गढ़वाल के उन गिने-चुने गाँवों में से एक है सैकोट जिनकी उपजाऊ ज़मीन पहली नज़र में ही मन को भा जाती है. खेती ऐसी जैसे कुदरत ने गाँव के आगे हरियाला आँगन बना के दिया हो. सिंचित हरी-भरी खेती वाला सैकोट गाँव, चमोली जिले में अलकनंदा नदी के दाहिने पाश्र्व में स्थित है. बदरीनाथ जाते हुए, जिले के नाम वाले कस्बे से पाँच किमी पहले अलकनंदा पार सैकोट और उसके हरे-भरे खेत देखे जा सकते हैं. गाँव के समीप ही प्रसिद्ध इंद्रामति देवी मंदिर भी है.
(Ropai Article by Devesh Joshi)
गाँव में ही राजकीय इण्टर काॅलेज है और सीमान्तर्गत समाज कल्याण विभाग द्वारा संचालित आवासीय माध्यमिक विद्यालय भी. तहसील मुख्यालय व सरकारी इंजीनियरिंग काॅलेज आठ किमी की दूरी पर है और जिला मुख्यालय पंद्रह किमी की दूरी पर. गाँव से आवागमन कर बच्चे विज्ञान, कला, वाणिज्य और विधि स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं. पक्की सड़क गाँव में है ही और हवाई पट्टी गौचर भी यहाँ से मात्र 35 किमी की दूरी पर है. एक ही कमी थी रेल की तो वो भी ऊपर वाले ने सैकोट की झोली में डाल दी है.
सैकोट चार धाम रेल परियोजना के एक महत्वपूर्ण स्टेशन के रूप में शीघ्र ही अस्तित्व में आ जाएगा. सैकोट-आमखेत गाँवों की 200 नाली ज़मीन भारतीय रेलवे द्वारा अधिग्रहीत की जा चुकी है. रेलवे मानचित्र पर सैकोट का महत्व ये भी है कि यहीं से रेललाइन बदरीनाथ और केदारनाथ धामों के लिए वाई-शेप में दो हिस्सों में विभाजित हो जाएगी. दोनों धामों के रेलहेड (जोशीमठ और सोनप्रयाग) सैकोट से क्रमशः 75 और 99 किमी की दूरी पर होंगे. चार धाम रेलवे परियोजना के पूर्ण होने के बाद सैकोट की चहल-पहल की सहज ही कल्पना की जा सकती है. तब सैकोट स्टेशन पर लघु-भारत के दर्शन होना तो सामान्य बात होगी. साथ ही पर्वतारोहण और घुमक्कड़ी के लिए विदेशों से पधारे पर्वतारोही और पर्यटकों की भी सैकोट स्टेशन में गहमागहमी रहेगी.
ऐसा भी नहीं है कि प्रकृति के रौद्र रूप का इस गाँव को कभी सामना न करना पड़ा हो. 1973 में अतिवृष्टि से सैकोट गाँव में जन-धन और ज़मीन का काफी नुकसान हुआ था. तब 11 लोगों की जनहानि हुई थी और सिंचित खेतों में मलवा भर जाने से बहुत नुकसान हुआ था. चमोली जिले में, प्राकृतिक आपदाओं में, बिरही और बेलाकूची के बाद, कालक्रम में सैकोट की अतिवृष्टि से आई बाढ़ को ही गिना जाता है.
(Ropai Article by Devesh Joshi)
आषाढ़ के महीने, सैकोट के सिंचित खेतों में रोपाई होती है. बाकायदा ढोल-दमाऊ वादन के साथ बगड्वाली गाते-सुनते हुए. ये अवसर अतीत में खुशी का होता था पर इस बार लोग काफी भावुक देखे गये. वे समझ रहे हैं कि जिन हरे-भरे सिंचित खेतों ने उनकी कई पीढ़ियों की उदरपूर्ति करी है उन पर वे स्वामित्व तो खो ही चुके हैं और शीघ्र ही खेती का हक़ भी खो देंगे. अपने खेतों में धान रोपते हुए वे मन ही मन कामना भी कर रहे हैं कि ये रोपाई आखिरी न हो. टिहरी और गौचर की उपजाऊ ज़मीन को उन्होंने विकास के लिए हाल ही में बलिदान होते देखा है. बिन मांगे मिले इस विकास पर वो अभी ये तय करने की स्थिति में नहीं हैं कि खुश हुआ जाए या दुखी. जो आँखें सुबह उठ कर हरियाला-विस्तार देखने की आदी हो गयी थी उन्हें शोरगुल भरा रेलवे स्टेशन देख कर कैसा लगेगा. पके धान की महक की जगह जब कोई और ही गंध नथुनों में समायेगी तो कैसी अनुभूति होगी.
इस सच्चाई को सैकोटवासी स्वीकार करने की कोशिश कर रहे हैं. वे आषाढ़ की रोपाई के इस ऐतिहासिक दृश्य के साक्षी बनने के लिए अपने रिश्तेदारो और मित्रों को भी आमंत्रित कर रहे हैं. प्रसिद्ध नाट्य संस्था अक्षत के संस्थापक-संचालक और रंगकर्मी विजय वशिष्ठ भी कुछ साथियों के साथ, ऐसे ही एक आमंत्रण पर सैकोट की ऐतिहासिक रोपाई के साक्षी बने हैं. गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर में आयोजित राष्ट्रीय नाट्य प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले अक्षत संस्था के साथी खुद को ही समझा रहे हैं कि ये भी एक नाटक है.
(Ropai Article by Devesh Joshi)
इस नाटक में बगड्वाली गायन से रोपाई का शुभारंभ हो रहा है और खेती-किसानी की विदाई भी. इस नाटक के अगले दृश्य में हरे-भरे खेतों की जगह एक रेलवे-स्टेशन दिखायी देगा. उससे अगले दृश्य में मंत्रोच्चारण के साथ रेलवे स्टेशन का उद्घाटन दिखाया जाएगा. नेपथ्य से चाय-चाय की आवाज़ सुनायी देगी. गाँव वाले इस परिचित आवाज़ को पहचानने का प्रयास कर रहे होंगे कि तभी तीर्थयात्रियों से भरी रेलगाड़ी को हरी झण्डी दिखा दी जाएगी.
भावी रेलवे स्टेशन सैकोट के सेरों की रोपाई समळौण्या (स्मृतिशेष) हो गयी है. एक सवाल है जिसका गाँववासियों को कोई उत्तर नहीं सूझ रहा और जो उनके बच्चों द्वारा किया जाएगा. सवाल ये कि आपने हमें वैसा हरा-भरा सैकोट क्यों नहीं दिया जैसा पुरखे आपको सौंप गये थे.
लगभग यही कहानी सिवाई, भट्टनगर, कोठगी और मलेथा के सेरों की भी है. विकास आता है तो भूदृश्य से कुछ सुंदर, बहुपयोगी चीजों को छीन भी लेता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रस्तावित चार धाम रेलवे परियोजना में न सिर्फ पर्यावरणीय मानकों का बल्कि स्थानीय ग्रामीणों की भावी पीढ़ियों के सुरक्षित भविष्य का भी पूरी तरह ध्यान रखा जाएगा. लोहपथगामिनी का पहाड़ों में स्वागत है और विनती भी कि इन सेरों से हौले-हौले गुजरना. मिट्टी से लथपथ होकर रोपे हुए सेरों में किसी का नंगे पाँवों चलना भी हमारे सीने में कांटे की तरह चुभ जाता था.
(Ropai Article by Devesh Joshi)
–देवेश जोशी
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं.
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