(पिछली क़िस्त का लिंक – रहस्यमयी झील रूपकुंड तक की पैदल यात्रा – 6)
लौटते हुए ज्यादा परेशानी नहीं हुई पर अब बर्फ पिघलने लगी है इसलिये रास्ते में फिसलन हो गयी है जिससे चलने में परेशानी हो रही है. इस समय लगा कि सुबह जल्दी निकलने का फैसला कितना सही था. अगर देर से आते तो ये परेशानी ऊपर आते समय झेलनी पड़ती. खैर आराम से ये रास्ता पार हो गया. इस समय घाटी अच्छे से दिख रही है. मेरे एक ओर बर्फ से भरी ऊँची चोटियाँ है और एक ओर घाटी है. आसमान बिल्कुल नीला है इसलिये ये सब एक दूसरे के साथ मिलकर इस जगह की सुन्दरता को और ज्यादा बढ़ा रहे हैं.
बगुबासा पहुँचने तक मौसम फिर खराब हो गया. एकदम घने बादल घिर आये और तेज हवायें चलने लगी. अब तसल्ली इसी बात की है कि ट्रेक पूरा हो गया. इसलिये वापसी भी हो ही जायेगी. यहाँ कुछ देर रुक के खाना खाया और सामान समेट कर वापसी की तैयारी की.
अब फिर वही दुःख की ये सब पीछे छूट रहा है. त्रिशूल की विशाल चोटी भी पीछे ही रह जायेगी. आज हम लोग पाथरनचुनियाँ तक जायेंगे और कल वेदनी बुग्याल होते हुए वान के रास्ते से लोहाजंग पहुँचेंगे.
नीचे उतरते हुए मौसम अच्छा होने लगा और गर्मी बढ़ गयी. उतरने में ज्यादा समय नहीं लगा. दोपहर तक पाथरनचुनियाँ पहुँच गये और कैम्प लगा लिया. पहाड़ियों में दिन ढलने में समय नहीं लगता है.
अब तक शाम हो गयी और हम लोग खाना खा के जल्दी ही सो गये. अगली सुबह भी मौसम की मेहरबानी बनी रही और मौसम बिल्कुल साफ और खूबसूरत है. नाश्ता करके आज का ट्रेक भी जल्दी ही शुरू कर दिया. नीचे की ओर लौटते हुए फिर बुग्याल आने लगे. पाथरनचुनियाँ से घोड़ालौटानी और फिर वहाँ से इस समय वेदनी बुग्याल के लिये रास्ता पकड़ा. एक पतली सी पगडंडी बुग्याल के बीच से होती हुई नीचे की ओर जा रही है. पीछे पलट के देखने में त्रिशूल और नंदाघुटी की चोटियाँ दिख रही है.
इतनी करीब दिखने वाली चोटियाँ धीरे-धीरे दूर हो रही हैं. मौसम अच्छा है इसलिये चलने में बहुत मजा आ रहा है और जल्दी ही वेदनी बुग्याल आ गया. मैं यहाँ जूते उतार के नंगे पैर घास के गद्दों में चलने का मजा लेती हूँ. इतना कोमल स्पर्श मेरी सारी थकान को सोख रहा है. वेदनी बुग्याल में भी एक कुंड है. कहते हैं देवी पार्वती जब पानी की प्यास से तड़प उठी थी तो उनकी वेदना शिव सहन नहीं कर पाये और अपने त्रिशूल से खोद के उन्होंने यहाँ पानी का कुंड बना दिया जिसका पानी पी कर पार्वती की वेदना शांत हुई इसलिये इसे वेदनी कुंड और इस जगह को वेदनी बुग्याल कहते हैं.
यहाँ शिव-पार्वती का प्राचीन मंदिर है जिसमें शिव-पार्वती की प्राचीन मूर्ति रखी है. यह मूर्ति भी काले रंग के पत्थर से बनी है. मंदिर बहुत छोटा सा है और मिट्टी से लीप के बनाया है. एक पुजारी यहाँ पर पूजा कर रहे हैं. आज वेदनी बुग्याल में स्थानीय लोगों का जमावड़ा लग रहा है क्योंकि आज नन्दा अष्टमी का त्यौहार है और लोग यहाँ देवी को पूजा देने आ रहे हैं. मुझे कुछ स्थानीय लोगों ने बताया – मुख्य पूजा तो शाम को होगी. अभी तो सब जगह से गाँव वाले इकट्ठा हो रहे हैं. उन्होंने मुझे भी रात्री पूजा में सम्मिलित होने का आमंत्रण दिया पर मुझे वापस लौटना है इसलिये रुकना संभव नहीं हो पाया.
वेदनी कुंड का पानी बहुत पारदर्शी और साफ है. इसमें पूरी घाटी और चोटियों के साफ प्रतिबिंब दिख रहे हैं. अब चोटियों में बादल आने लगे हैं और उन्हें अपनी गिरफ्त में ले रहे हैं. मुझे पारंपरिक पोशाक और गहने पहने हुए एक बुजुर्ग महिला दिखायी दी. उन्होंने गले में सिक्कों और मोतियों की मालायें पहनी है और नाक के बीच में लम्बी सी कुछ चीज पहनी है जिसे बुलाक कहते हैं. ये उनके पूरे मुँह से नीचे लटक रही है. उन्होंने अपनी पोटली से निकाल कर कुछ पत्ती और प्रसाद मुझे दिया और बदले में मुझसे दक्षिणा माँगी.
वेदनी बुग्याल में कई सारी भेड़ें घास चर रही हैं. कुछ का तो शायद आज घास चरने का अंतिम दिन भी हो क्योंकि रात्री पूजा में उनकी भेंट भी चढ़ सकती है. यहाँ कुछ समय और बिताने के बाद मैंने आगे का रास्ता लिया. अब घास कम होने लगी है इसलिये जूते पहन लिये. नीचे जाते हुए कई स्थानीय ऊपर आते दिख रहे हैं. सब पूजा के लिये ही आ रहे होंगे. महिलायें अपने पारंपरिक पोशाकों में हैं पर पुरुष जींस और टीशर्ट में भी हैं. कुछ आधुनिक युवाओं ने तो काला चश्मा भी पहन रखा है और कलाइयों में मोटी चेनें भी लटक रही है. बदलाव से कब तक दूर रह पायेगी ये जगह भी आखिर.
नीचे उतरते हुए कुछ लोग एक डोली को लेकर ऊपर जा रहे हैं. ये स्थानीय देवता लाटू की डोली है जिन्हें देवी नन्दा का भाई माना जाता है और उन्हें पूजा के लिये वेदनी तक ले जाया जा रहा है. इनमें भी दो-तीन युवा आधुनिक पोशाकों में ही दिख रहे हैं. एक बुजुर्ग महिला और रास्ते में दिखी उनके पारंपरिक गहनों में मेरा ध्यान सबसे ज्यादा उनके कानों के कुंडलों में गया जो बहुत ज्यादा बड़े हैं और कान के ऊपरी हिस्से में छेद करके उन्हें पहना है. उनसे बात नहीं हो सकी क्योंकि उन्हें मेरी भाषा समझ ही नहीं आयी और उन्हें वेदनी पहुँचने की भी जल्दी है.
इस रास्ते को पार कर हम नीलगंगा के पास आ गये. अब तीन घंटे का रास्ता और तय करना है वान पहुँचने के लिये. ये रास्ता गाँवों के बीच से होकर जा रहा है इसलिये रास्ते में महिलायें और बच्चे दिखायी दे रहे हैं जो देखते ही नमस्ते कह कर संबोधित कर देते हैं पर बात करो तो शर्मा जाते हैं. वान के नजदीक पहुँचते हुए मुझे देवदार का एक विशाल वृक्ष दिखा. इतना विशाल वृक्ष मैंने यहाँ से पहले कभी नहीं देखा. वान में टैक्सी आ गयी है और यहाँ से सीधे लोहाजंग के लिये निकल गये.
अगली सुबह लोहाजंग से वापस नैनीताल.
(समाप्त)
विनीता यशस्वी नैनीताल में रहती हैं. यात्रा और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.
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