(पिछली क़िस्त का लिंक – रहस्यमयी झील रूपकुंड तक की पैदल यात्रा – 4)
सुबह उजाला हुआ तो मैं बाहर निकल आयी. मौसम साफ है. आसमान में कोई बादल नहीं हैं. आज पहली बार मैं नीला आसमान और धूप देख रही हूँ. मेरे बाहर आते ही तेज भाई चाय दे गये. मौसम अच्छा देखकर मैंने अपने गीले कपड़े और जूते धूप में सूखाने डाल दिये. आज हिमालय की चोटियाँ पहली बार सूर्योदय के समय दिखायी दी हैं हालाँकि हवाओं में कोई कमी नहीं है पर फिर भी आज मौसम सुहावना लग रहा है. इस जगह पर काफी काले पत्थरों के टीले बने हैं. बुग्याल नीचे छूट गया है. मैं धूप में बैठकर नजारों का मजा ले ही रही हूँ कि किशन भाई अपनी बांसुरी लेकर आ गये.
किशन भाई ने मुझे ‘कैले बजें मुरुली’ गाने की धुन बजाकर सुनाई है. इतना अच्छा मौसम और बांसुरी की तान ये अद्भुद है. किसने सिखाई पूछने पर – जोर-जोर से हँसते हुए कहते हैं – अरे भुली (बहन)! खुद ही सीख ली. अब मेरा तो रोज ऐसा ही हुआ. कभी इस पहाड़ में कभी उस पहाड़ में. कभी अच्छे लोग मिलते हैं और कभी खतरनाक लोग. ऐसे में अपना टाइम पास भी तो कुछ चाहिये न. इसलिये इसे साथ में रखता था और खुद ही सीखी बजानी. वैसे थोड़ा बहुत गाँव के चचा ने भी सिखाई थी शुरू में.
बांसुरी बजाकर वो एक ऊँचे टीले पर बैठ गये और बोले – तुझे पता है इस जगह को पाथरनचुनियाँ क्यों कहते हैं ? अब किशन भाई अक्सर मुझे ‘तू’ कहकर बुलाने लगे हैं. मैंने चोटियों में पड़ने वाली सूरज की किरणों की ओर देखते हुए जवाब दिया – नहीं. बांसुरी को कोट के अंदर वाली जेब में रखते हुए उन्होंने कहा – कन्नौज के राजा जसधवल एक बार जब माँ नन्दा की पूजा के लिये यहाँ आये तो वो अपने पूरे दल के साथ तीन नृत्यांगनाओं को भी ले आये और रात में नृत्य का आयोजन किया. राजा की इस हरकत से देवी को गुस्सा आ गया और उन्होंने तीनों नृत्यांगनाओं को पत्थर में बदल दिया. आज भी यहाँ तीन गड्ढे दिखते हैं जिनमें देवी ने उनको पत्थर बना दिया था. इसीलिये इस जगह को पाथरनचुनियाँ बोलते हैं. पाथर मतलब ‘पत्थर’ और नचुनिया मतलब ‘नृत्यांगना’.
इसके बाद घोड़ालौटानी का किस्सा भी सुना दिया जिस जगह से कल हम आये थे. उन्होंने कहा – पहले जब ब्रिटिशर्स यहाँ आते थे तो वो अपने घोड़ों को यहीं से वापस लौटा देते थे क्योंकि इससे आगे बुग्याल नहीं है तो घोड़ों को चरने के लिये कुछ नहीं मिलता था और रास्ता भी घोड़ों के चलने लायक नहीं था. इसलिये इस जगह को ही घोड़ालौटानी बोलने लगे.
किशन भाई मुझे तैयार होने का बोल के किचन टेंट में चले गये. मैं भी अपने कपड़े समेटने लगी जो अब सूख चुके हैं और फिर टेंट समेट के सामान इकट्ठा कर दिया. इतनी देर में खाना भी बन गया. आज किशन भाई ने पूरी और चटपटे आलू बनाये हैं. वो खाना भी अच्छा बनाते हैं और हँसते हुए कहते हैं – खाना बनाना आने से ये फायदा होता है कि कुक साथ में नहीं रखना पड़ता और थोड़ा पैसे बच जाते हैं.
खाना खाकर मैं आगे निकल गयी. आज का रास्ता चढ़ाई वाला है और सूखा भी. उस पर धूप भी तेज है. कैम्प से थोड़ा आगे निकली ही कि मुझे तीन गड्ढे बने हुए नजर आये. शायद यही वह गड्ढे हैं जिनके बारे में किशन भाई ने बताया था. कुछ आगे एक छोटा सा मंदिर भी है जिसमें टॉफियाँ और चॉकलेट भी रखी हैं. ट्रेकर्स् अपनी श्रद्धा से रख देते होंगे इसलिये मैंने भी एक चॉकलेट और टॉफी रख दी और आगे बढ़ गयी. आज रास्ते में ब्रह्मकमल भी दिखेंगे क्योंकि इस इलाके में वो होते हैं और इन्हीं दिनों होते हैं. थोड़ी देर में किशन भाई भी आ गये और उन्होंने बताया – पीछे जो मंदिर पड़ा वो छोटा कालू विनायक है. अभी आगे बढ़ेंगे तो बड़ा कालू विनायक भी आयेगा.
आज तो बस चढ़ाई ही है और उस पर गर्मी से हालत खराब हो रही है. अपने अगल-बगल उग आये फूलों और झाड़ियों को देखते हुए चढ़ाई चढ़ रही हूँ. बारिश के मौसम में बहुत कुछ उग आता है रास्तों में और ऐसे ही फूलों को देखते हुए मेरी नजर नीले रंग के फूल में पड़ी जो नील कमल है. कई सारे नील कमल उग आये हैं इस जगह पर. ये ब्रह्मकमल की ही एक प्रजाती है. भयानक गर्मी में लम्बी खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए कालू विनायक का मंदिर भी आ गया. मंदिर को स्थानीय पत्थरों से बनाया गया है. जिसके अंदर गणेश की काले पत्थर की मूर्ति रखी है. मूर्ति के सामने कुछ बह्मकमल के फूल चढ़े हैं और मंदिर में ऊपर घंटियों की माला बना कर लटकाया गया है. मंदिर में कई जगहों पर लोहे से बने त्रिशूल लगे हैं. मंदिर के सामने भी कुछ घंटियाँ रखी हैं और एक स्टील की थाली भी है. यहाँ पहुँचने तक फिर धुंध छाने लगी इसलिये मंदिर के पीछे धुंध का पर्दा टँगा हुआ दिख रहा है. किशन भाई ने बताया – ये मूर्ति किसी ने यहाँ रखी नहीं है. ये यहाँ हमेशा से ही है और ऐसा कहते हैं कि जब रूपकुंड में देवी पार्वती स्नान कर रही थी तो गणेश जी यहाँ पर से ही पहरेदारी कर रहे थे ताकि कोई कुंड तक न जा सके.
कालू विनायक मंदिर को स्थानीय पत्थरों से घेरा गया है और मंदिर प्रांगण को भी पत्थरों से घेर के मेढ़ बना दी है. हम यहाँ रुक गये. तेज भाई पहले से ही यहाँ रुके हुए हैं. किशन भाई ने कहा है कि वो यहाँ पर अच्छे से पूजा करेंगे और तब ही हम लोग आगे बढ़ेंगे. मुझे उनके आस्था विश्वास पर कुछ नहीं कहना है इसलिये पूरे दिल से उनकी पूजा में उनके साथ शामिल हो गयी और जब उन्होंने आगे बढ़ने को कहा तब ही आगे बढ़ी. आगे का रास्ता संकरा है और खड़ंजे वाला बना दिया है ताकि खच्चर चल सके. यहाँ से त्रिशूल चोटी का भव्य स्वरूप एकदम सामने दिख रहा है पर अभी धुंध से पूरा नहीं दिख रहा. बर्फ से ढकी हुई कई चोटियाँ धुंध के बीच से झाँकती दिख रही हैं. अब ठंडी बढ़ गयी और बादल भी आ गये. कल के मौसम को याद करके इन बादलों से डर लग रहा है.
आगे बढ़ी तो काले पत्थरों की चट्टानें दिखने लगी. यहाँ काला पत्थर बहुत है इसीलिये गणेश जी की मूर्ति भी काली होगी. खैर इन्हीं पत्थरों के बीच में मुझे ब्रह्मकमल भी दिखने लगे. कई जगहों में थोड़ी बर्फ जमीं है और इसी बर्फ के बीच से छोटे-छोटे ब्रह्मकमल के पौंधे फूलों के साथ उगे हुए हैं. ये बहुत खूबसूरत और दुर्लभ पौंधा इतनी ही ऊँचाई में और आजकल के मौसम में कुछ समय के लिये ही खिलता है. इसके फूलों से एक अलग सी सुगंध आती है जिसे कुछ देर तक सूंघते रहने से बेहोशी छाने लगती है इसलिये इसके पास ज्यादा देर तक नहीं रहा जाता है. ब्रह्मकमल के फूल हल्के पीले रंग के होते हैं. बाहरी परत दिखने में झीनी सी लगती है. जिसके अंदर फूलों के बीज नजर आते हैं. इन फूलों का आकार बढ़ा होता है और दिखने में बेहद खूबसूरत. पूजा के दौरान नन्दा देवी को यही फूल चढ़ाया जाता है. इन्हें देखते हुए आगे बढ़े तो पत्थरों से बनी झोपड़ियाँ दिखी. किशन भाई ने बताया – रजजात के दौरान इन्हें लोगों के रहने के लिये बनाया था. पर इन झोपड़ियों में कुछ तो इतनी छोटी हैं कि कोई कैसे इनमें रह सकेगा समझ नहीं आया.
बागुबासा पहुँचने तक मौसम ने फिर करवट ले ली और भयानक तरीके से खराब हो गया. इस समय तो हल्की-हल्की बर्फ भी गिरने लगी. मौसम डरा रहा है और इसी डर के साथ टेंट लगाया पर कुछ देर में ही सब ठीक हो गया और धूप निकल आयी. फिर तो मौसम की ये अठखेलियाँ शाम तक चलती ही रही.
शाम को मैं अपने टेंट से बाहर आयी उस समय भी मौसम बहुत खराब है पर अचानक ही बादल छटे और मुझे सामने त्रिशूल चोटी में सूर्यास्त का नजारा देखने मिल गया. हाथ में कैमरा है सो मैंने ऐसे ही कुछ फोटो ले लिये और बस इस नजारे ने इतना ही समय दिया क्योंकि उसके बाद बादलों और धुंध ने फिर इस जगह को घेर दिया.
बगुबासा के लिये कहा जाता है कि जब पार्वती स्नान के लिये रूपकुंड गयी तो वे अपने बाघ को इसी जगह छोड़ गयी इसलिये इसे बगुबासा कहते हैं जिसका मतलब है बाग का वास स्थान.
जल्दी ही अंधेरा छा गया और एकदम सन्नाटा फैल गया. अभी हवायें नहीं चल रही हैं इसलिये लग रहा है मौसम ठीक रहेगा पर हिमालय हर पल रंग बदलता है इसलिये कुछ भी नहीं कह सकते. खाना खाते समय किशन भाई ने बताया – सुबह 4.30 बजे ट्रेकिंग के लिये निकल जायेंगे क्योंकि जितना जल्दी जायेंगे उतना अच्छा है. ऊपरी इलाके में बर्फ होगी और धूप बढ़ने के साथ बर्फ पिघलने लगेगी जिसमें चलना मुश्किल हो जायेगा. उनकी बात मानकर में सोने आ गयी. इस समय आसमान तारों से भरा है. इस ट्रेक में ये पहली रात है जब मुझे तारों भरा आसमान देखने मिला. कई सारी आकाशगंगायें आसमान में बह रही हैं. कुछ देर तक आसमान को देखने के बाद अंदर आ गयी.
(जारी)
विनीता यशस्वी नैनीताल में रहती हैं. यात्रा और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…