(पिछली क़िस्त का लिंक – रहस्यमयी झील रूपकुंड तक की पैदल यात्रा – 1)
मेरे पहुँचते ही मुझे चाय मिल गयी. इस समय चाय से ज्यादा जरूरत हाथ-मुँह धोने के लिये ठंडे पानी की है इसलिये मैं पास में ही बहती हुई पानी की धारा के पास आ गयी. धारा के ठंडे पानी से मुँह धोने और पैर डुबाने से थकान मिट गयी. अब गर्मी भी कम हो गयी है और हल्के बादल छाने लगे हैं. चाय पी के मैंने अपना सामान कमरे में रखा. यह मकान भी दोमंजिला है. नीचे के कमरों में रहने वालों के लिये कई चारपाई लगी हैं और ऊपर मालिक रहता है. ये मकान एक बुजुर्ग का है जो आजकल अकेले हैं. उनका परिवार बाहर गया है. मैंने एक चारपाई में सामान रख दिया और बाहर आ गयी. मालिक ने मेरी चारपाई में बिस्तर लगा दिया और खाने के लिये बुलाया. खाने में पहाड़ी चावल, मिक्स पहाड़ी दाल, सब्जी और रोटी है. पहाड़ी खाना हमेशा अच्छा लगता है. भूख में तो और भी ज्यादा स्वादिष्ट लगता है.
खाना खाने के बाद मैं गाँव घूमने आ गयी. डीडना छोटा गाँव है. यहाँ मुझे अधिकतर महिलायें और बच्चे ही नजर आये. ज्यादातर घर बंद भी दिखे. एक महिला से पूछने पर, बर्तनों को साफ करते हुए बोली – कुछ लोग तो शहरों में चले गये हैं वो अब कम ही आते हैं और कुछ अभी खेतों में काम करने गये हैं. घरों को बनाने का तरीका लगभग एक सा ही है. दो मंजिले मकान में नीचे जानवरों के और ऊपर इंसानों के रहने के लिये. घरों में एक या दो दरवाजे और खिड़की हैं और एक छोटा सा तिकोना स्थान खाली छोड़ा गया हैं जो कुछ सामान रखने के लिये काम आ जाता है.
घूमते हुए मुझे पारंपरिक पोशाक पहने एक बुजुर्ग महिला दिखी. काला घाघरा स्वेटर और सिर कपड़े से बँधा हुआ. उम्र देख के लगता है कि अब वो खेत के काम कर पाने की असमर्थ हैं इसलिये घर कामों में ही परिवार का हाथ बँटाती होंगी. उन्होंने मुझे चाय पीने के लिये रोक लिया और मैं घर के अंदर जाने वाली सीढ़ी पर ही बैठ गयी जो पत्थरों की बनी हैं. कुछ देर में वो चाय बना कर ले आयी और मेरी ओर पकड़ाते हुए कहा – मेरी बहू अभी खेत में काम करने गयी है और बेटा शहर में काम करता है. छुट्टियों में ही घर आ पाता है. गाँव की खेती-बाड़ी हम दोनों को ही संभालनी पड़ती है. उनके साथ बात करके मैं वापस लौट गयी.
ये गाँव अभी शहरी चहल-पहल से दूर है इसलिये परंपरायें बची हुई हैं. सभी घर पारंपरिक ढंग से बने हैं और खिड़की दरवाजों में नक्काशी भी है. हालाँकि अब बहुत से घरों की दीवारों में गैस्ट हाउस लिख दिया गया है.
मेरे वापस लौटने तक हल्की ठंड होने लगी. सूप पीने के बाद मैं अपने कमरे में आ गयी और फिर खाना खाने के लिये ही गयी. खाना ऊपर के कमरे में बना है. खाना खा के बाहर आयी तो बारिश फिर शुरू हो गयी. आज की रात भी शायद ऐसे ही बीत जाये.
सुबह उठी तो बारिश के कारण बाहर नहीं जा सकी. आज भी ट्रेक शुरू करने में देरी होगी. तय ये हुआ कि 9 बजे तक बारिश रुकने का इंतजार करेंगे उसके बाद ट्रेक शुरू कर लेंगे. नाश्ता करके हल्की रिमझिम में ही ट्रेक के लिये गये. खुले घास के मैदान से सामने लोहाजंग और बाँकि गाँव नजर आये. दूर-दूर तलक फैली हरियाली के बीच से निकलती धुंध इसे और भी सुंदर बना रही है. कुछ देर में फिर धुंध छा गयी. आज पानी के कई सोते भी बहते हुए दिख रहे हैं इसलिये पानी की कमी नहीं होगी.
दो-तीन घंटे चलने के बाद तोलापानी जगह आयी. यहाँ मैं कुछ देर के लिये रुक गयी. चरवाहों की तीन-चार झोपड़ियाँ बनी हैं यहाँ जिनके बाहर कुछ बच्चे भी नजर आये. हालाँकि बच्चे शरारती हैं पर फिर भी मैं उनसे बात करने चली गयी. दो लड़के तो झोपड़ी के पीछे छुप गये पर एक बच्ची वहीं रुकी रही.
तुम किस झोपड़ी में रहती हो ? मेरा सवाल सुन के उसने एक झोपड़ी की ओर इशारा किया और बोली – जिसमें से धुँआ रहा है. वो मेरे कैमरे को देख रही है. खाना बन रहा है क्या ? मेरे कैमरे में नजरें गढ़ाते हुए उसने कहा – हाँ. फिर वो खुद ही बोली – हम लोग यहाँ कुछ दिन के लिये ही हैं फिर यहाँ से चले जायेंगे क्योंकि ठंड बढ़ जायेगी और मैदानों में जानवरों के लिये घास भी नहीं रहेगी. उस बच्ची ने ही मुझे बताया – इस जगह को देवी नन्दा खुद तोल-तोल के पानी देती हैं इसलिये इसे तोलापानी कहते हैं. एक लम्बी मगर पतली सी धारा की ओर इशारा करते हुए उसने कहा – वो देखो पानी. यहाँ पानी की एक लम्बी पर पतली धारा बह रही है जो जंगलों के बीच से आयी है. मैंने उससे पढ़ाई के बारे में पूछा. उसकी नजरें अभी भी मेरे कैमरे में ही टिकी हैं और ऐसे ही उसने जवाब दिया – मैं लोहाजंग में पढ़ती हूँ. इतना कह कर वो अपने बाँकी साथियों के पास भाग गयी.
बारिश फिर तेज हो गयी पर रुकने का फायदा नहीं है इसलिये आगे बढ़ गये. घने जंगल के बीच से चलते हुए यहाँ कुछ और नहीं दिख रहा है. किसन भाई ने जो मुझसे थोड़ा पीछे हैं, पेड़ों की ओर इशारा करते हुए कहा – यहाँ के पेड़ों में एक अजीब किस्म की बीमारी फैलती जा रही है. पेड़ों के तनों में जहरीली फंगस लग गयी है जो पेड़ों को कमजोर कर रही है और ये फैलती जा रही है. इसके कारण पेड़ कमजारे हो रहे हैं. यदि जल्दी ही इसे काबू नहीं किया गया तो आने वाले समय में ये जंगल नहीं बचेगा. मैंने गौर से पेड़ों को देखा तो सारे पेड़ों की छाल निकली है और तने लाल हो गये हैं. उन्होंने फिर कहा – हमने सरकार को भी इस बारे में बताया पर अभी तक भी कुछ किया नहीं गया. इन जंगलों को कुछ हो गया तो हमारा पूरा अस्तित्व खतरे में आ जायेगा.
मैं फिर अकेले चलने लगी. इस इलाके में मशरूम की कई किस्में हैं. हर कदम में अलग तरह का मशरूम नजर आ रहा है. मशरूम के बारे में कहा जाता है कि यदि उसकी पहचान न हो तो उससे दूर ही रहना चाहिये इसलिये मैं भी इनसे दूरी ही बनाये हुए हूँ पर कुछ मशरूम तो बहुत ही खूबसूरत लग रहे हैं. एक मशरूम तो पूरे पेड़ के तने में फैला है जो दिखने में पीले रंग की जैली का गुच्छा लग रहा है.
जमीन में गिरे पत्ते बारिश में गीले और नर्म हो गये हैं. इनके ऊपर चलने में ऐसा लग रहा है जैसे पैरों के नीचे गद्दे बिछे हैं. जंगल के बीच ये लम्बा रास्ता खत्म ही नहीं हो रहा. आज मुझे बुग्याल देखने का बेसब्री से इंतजार है इसलिये हर मोड़ के बाद लगता शायद अब बुग्याल आ जाये पर फिर जंगल शुरू हो जाता. इतनी देर से जंगल के बीच चलते हुए नीरसता भी लग रही है पर ट्रेकिंग में तो ये सब चलता ही है. यूँ ही चलते हुए मैं जंगल में बने छोटे से मंदिर के पास पहुँच गयी और कुछ देर के लिये रुक गयी.
यह मंदिर पत्थरों से बना है और इसके अंदर पत्थर की मूर्ति है. किसन भाई ने बताया – ये तोलाखान है. यहाँ राज जात के समय में कुछ देर के लिये यात्रा रुकती है. राजजात हर 12 वर्ष में एक बार होती है. यह राजजात माँ नन्दा का समर्पित होती है. नन्दा देवी को ही पार्वती का एक रूप माना जाता है और नन्दा यहाँ की कुलदेवी भी हैं. मैं खाना खा कर आगे बढ़ गयी. यहाँ से अली बुग्याल शुरु हो गया. शुरुआत मैं तो बुग्याल ज्यादा विशाल नहीं दिखा पर जैसे—जैसे आगे बढ़ी इसकी विशालता भी दिखने लगी पर अब फिर से धुंध छा गयी और बूँदाबाँदी शुरू हो गयी.
बुग्याल में आगे बढ़ते हुए पेड़ पीछे छूटने लगे. अब नजरों के सामने हरी घास के मैदान के अलावा कुछ भी नहीं है. मैं रुक कर बुग्याल को निहार ही रही हूँ कि चार लड़कियाँ पीठ में ढोका बाँधे मेरी ओर आयी. मैंने जैसे ही उनसे कुछ बात करने की सोची वो चारों हँसती-शर्माती आगे बढ़ गयी और उनकी हँसी से कुछ समय के लिये पूरा बुग्याल गूँज गया. अब धुंध बढ़ गयी है पर बारिश नहीं हो रही है. आगे बढ़ते हुए बुग्याल की विशालता दिखने लगी. दूर-दूर तलक सिर्फ हरी घास का मैदान और धुंध. रास्ता सीधा सरल है इसलिये चलने में मजा आ रहा है. कहीं हल्के उतार-चढ़ाव हैं जो मजे को बढ़ा रहे हैं.
(जारी)
विनीता यशस्वी नैनीताल में रहती हैं. यात्रा और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.
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