भारत के प्रथम ऐतिहासिक ग्रंथ राजतरंगिणी के रचियता कल्हण ने ठीक ही कहा है—
श्लाध्यः स एव गुणवान् रागद्वेष बहिष्कृता
भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती
अर्थात्, ‘वही गुणवान प्रशंसनीय है, जिसकी वाणी राग-द्वेष का बहिष्कार कर न्यायाधीस के समान भूतकालिक घटनाओं को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करती है.’ इतिहास को विकसित करने के लिए विद्वानों द्वारा उपलब्ध साहित्यिक स्रोतों, पुरातात्विक साक्ष्यों व महत्वपूर्ण विधियों का अध्ययन एवं व्याख्याओं का उल्लेख इतिहास लेखन कहलाता है.
पारम्परिक इतिहास लेखन का कार्य प्राय: राजा-महाराजाओं अथवा धनिकों द्वारा प्रायोजित होता था, इसलिए इतिहास लेखन प्रभावशाली व्यक्तियों पर केंद्रित रहता था. पारम्परिक वर्ग के इतिहास में सर्वहारा वर्ग की दशा प्रतिबिम्बित नहीं होती है. निचले तबके के जनजीवन के सम्बंध में ऐतिहासिक जानकारियाँ एकत्रित करने के लिए सबसे उपयुक्त मौखिक स्रोतों का अध्ययन है. क्षेत्रीय इतिहास लेखन को लोक साहित्य के रूप में भी जाना जाता है. लोक साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है, जिसकी रचना लोक अर्थात् जनसामान्य द्वारा की जाती है. लोक साहित्य उतना ही प्राचीन है, जितना स्वयम् मानव. अत: उसमें जनजीवन की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक पक्ष, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समय और प्रकृति सभी कुछ बिना कृत्रिमता के समाहित रहता है. यदि किसी क्षेत्र विशेष की समूची संस्कृति के वास्तविक स्वरूप के साक्षात् दर्शन करने हों, तो वहॉ के लोकसाहित्य का गहन अवलोकन अति आवश्यक है, क्योंकि लोकजीवन की जैसी सरलतम्, नैसर्गिक, अनुभूतिमयी अभिव्यंजना का चित्रण लोकगीतों, लोककथाओं, गाथागीतों, कथागीतों, लोकनाट्य, जागर आदि में मिलता है, वैसा अन्यत्र सर्वथा दुर्लभ है.
उत्तराखंड के संदर्भ में देखें तो यहाँ के इतिहास की ओर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि अक्षरज्ञान और लिपिबद्ध करने की कला के अभाव में यहाँ का क्षेत्रीय इतिहास लिखित न होकर मौखिक अधिक है. कालांतर में जागरुकता और शिक्षा के पदार्पण के पश्चात् कुछ लोक साहित्यकारों एवम् इतिहासकारों ने इसे लिपिबद्ध करने का प्रयास अवश्य किया है. लोकप्रसिद्ध जागर गायिका बसंती बिष्ट ने न केवल राष्ट्रीय वरन् विश्व पटल पर भी उत्तराखंड के लोकसाहित्य एवम् लोकसंस्कृति को पहचान दिलाई है. शिवप्रसाद डबराल, बद्रीदत्त पांडे, यशवंत सिंह कठौच, देवीदत्त शर्मा इत्यादि इतिहासकारों ने लोकसाहित्य को प्रकाशित कर उत्तराखंड के इतिहास को मुख्य धारा से जोड़ने का कार्य किया है, किंतु अभी भी मैखिक लोकसाहित्य बहुत बड़ी मात्रा में असंग्रहित है, जिसका संग्रहित होकर सम्पादित होना अति आवश्यक है, अन्यथा समय की अबाध गति से दौड़ते विकास में यह अनुपम लोकसाहित्य विस्मृति के गर्त में विलीन हो जाएगा और भावी पीढ़ी को न इसका ज्ञान होगा, न ही जानने-सुनने की उत्कंठा.
जहाँ साहित्यिक और मौखिक स्रोतों में पूर्वाग्रहों अथवा त्रुटियों की सम्भावना सदैव बनी रहती है, वहीं पुरातात्विक स्रोत हमारे इतिहास को ठोस आधार प्रदान करते हैं. सिंधु घाटी सभ्यता का इतिहास हो अथवा पाषाणकालीन संस्कृतियॉ, ताम्रषाणीय संस्कृति, या लौहसंस्कृति सभी का ज्ञान पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसंधान से ही सम्भव हो पाया है. उत्तराखंड में सर्वप्रथम पुरातात्विक खोज प्रारम्भ करने का श्रेय विलियम जे. हेनवुड को जाता है, उनके द्वारा सन् 1856 में चम्पावत नामक स्थान पर कपमार्क्स खोजे गए. सन् 1877 में कारनेक ने अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट में चंद्रेश्वर मंदिर के पास 200 कपमार्क्स मिलने का उल्लेख किया, जो 12 समांतर रेखाओं में विभाजित थे. इसके साथ ही उनके आस-पास अलग-अलग प्रकार के आलेख व चित्र (लहरदार रेखाएं, पत्तियॉ, आड़ी-तिरछी रेखाएं आदि) भी बने हुए थे. कारनेक के अनुसार इस प्रकार के कपमार्क्स केवल भारत में ही नहीं, यूरोप के कई देशों में भी मिले हैं. यह खोज उत्तराखंड को विश्व स्तर से जोड़ती है.
इसी प्रकार सन् 1968 में डॉ. एम. पी. जोशी एवम् सन् 1985-89 में डॉ. यशोधर मठपाल ने अल्मोड़ा में तथा डॉ. राकेश भट्ट ने अलखनंदा घाटी में शैलाश्रयों की खोज की. इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि उत्तराखंड भी भारत के प्रागैतिहासिक काल में महत्वपूर्ण भूमिका में रहा होगा. उत्तराखंड को महापाषाणीय संस्कृति से जोड़ने का कार्य किया है, डॉ. शिवप्रसाद डबराल “चारण” एवम् डॉ. यशोधर मठपाल ने. इन्होंने क्रमश: चमोली एवम् अल्मोड़ा जनपद की रामगंगा घाटी में महापाषाणीय शवाधानों की खोज की. उपरोक्त सभी पुरातात्विक खोजों से भारतीय इतिहास को नई दृष्टि मिली. इससे स्पष्ट होता है, कि एक क्षेत्र विशेष का इतिहास किस प्रकार पूरे देश के इतिहास को और कभी-कभी तो विश्व के इतिहास को भी प्रभावित करता है.
क्षेत्रीय इतिहास के विभिन्न आयामों का ऐतिहासिक विश्लेषण करने से ज्ञात होता है, कि भारत का इतिहास प्रत्येक छोटे-बड़े प्रांत के स्थानीय इतिहास के समंवय से ही पूर्ण हुआ है. उपर्युक्त विवरण में हमने उत्तराखंड राज्य का संदर्भ लिया और जाना कि भारत व उत्तराखंड का इतिहास परस्पर अंत:सम्बद्ध है. इसी प्रकार देश के हर राज्य, हर प्रांत का अपना इतिहास है और सभी इतिहास एक-दूसरे से परस्पर सम्बंधित हैं. अत: इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि विभिन्न क्षेत्रीय इतिहासों का अवलोकन एवम् विश्लेषण करने के पश्चात् ही भारत के वास्तविक इतिहास का निरूपण हुआ है.
मूल रूप से मासी, चौखुटिया की रहने वाली भावना जुयाल हाल-फिलहाल राजकीय इंटर कॉलेज, पटलगाँव में राजनीति विज्ञान की प्रवक्ता हैं और कुमाऊँ विश्वविद्यालय से इतिहास की शोध छात्रा भी.
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