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नासूर होती जिंदगी पर नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू की चुप्पी !

म्यांमार के रखाइन राज्य में जारी रोहिंग्या मुसलमानों के उत्पीड़न को लेकर 3.86 लाख लोगों ने एक ऑनलाइन याचिका पर हस्ताक्षर करके आंग सान सू की से नोबेल शांति पुरस्कार वापस लेने की मांग की थी.

उन्हें 1991 में म्यांमार में लोकतंत्र और मानवाधिकार के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष करने के लिए यह पुरस्कार मिला था. 2012 में स्वतंत्र चुनाव के बाद से वे म्यांमार का नेतृत्व कर रही हैं. लेकिन नॉर्व स्थित नोबेल इंस्टीट्यूट ने म्यांमार की स्टेट काउंसलर आंग सान सू की से नोबेल शांति पुरस्कार वापस लेने से इनकार कर दिया है. लेकिन म्यांमार की स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची से रोहिंग्या मुसलमानों पर अत्याचार के बाद उनके द्वारा उठाए गए कदम की वजह से ऑक्सफोर्ड सम्मान अधिकारिक रूप से वापस ले लिया गया है

(सोर्स-रायटर्स)

वहीं कनाडा की संसद ने म्यांमार की नेता आंग सान सू ची को दी गई मानद नागरिकता वापस लेने संबंधी प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित कर दिया. म्यांमार में चल रहे रोहिंग्या संकट की पृष्ठभूमि में यह कदम उठाया गया है. नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित आंग सान सू ची को कनाडा की संसद ने 2007 में मानद नागरिकता दी थी.

बौद्ध बहुल म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की दस लाख से ज़्यादा आबादी रहती है. उन्हें दुनिया के ‘सबसे ज़्यादा सताये गए अल्पसंख्यकों’ में शुमार किया जाता है.म्यांमार में एक अनुमान के मुताबिक़ 10 लाख रोहिंग्या मुसलमान हैं. इन मुसलमानों के बारे में कहा जाता है कि वे मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं. सरकार ने इन्हें नागरिकता देने से इनकार कर दिया है.

(सोर्स-रॉयटर्स)

हालांकि ये म्यामांर में पीढ़ियों से रह रहे हैं. रखाइन स्टेट में 2012 से सांप्रदायिक हिंसा जारी है. इस हिंसा में बड़ी संख्या में लोगों की जानें गई हैं और एक लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं. रोहिंग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ म्यांमार में लगातार हिंसा होती रही. इतना ही नहीं म्यांमार की प्रधानमंत्री आंग सान सू ची ने उन्हें रोहिंग्या कहने से इनक़ार कर दिया.

संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार एजेंसी यूएनएचसीआर का भी अपनी रिपोर्ट में मानना है कि रोहिंग्या मुसलमानों के सैंकड़ों गांव जला दिए गए और बड़े पैमाने पर बलात्कार और हत्याएं की गईं. म्यांमार की कार्रवाई नरसंहार की तरह है और इसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता है
सेना का आत्याचार  से कई लोग  म्यांमार के रोहिंग्या समंदर पार कर या फिर पैदल ही अपने घर छोड़कर भाग रहे हैं. रास्ता आसान नहीं है. लेकिन मौत का डर छोड़ कर वो जान हथेली पर रखकर सफ़र कर रहे हैं.

(सोर्स-रायटर्स)

एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं और बच्चियों को यौन हिंसा का शिकार बनाया. रोहिग्याओं के गांव मलबे में तब्दील कर दिए गए हैं, लेकिन पड़ोस में बने दूसरे समुदाय के गांव को हाथ भी नहीं लगाया गया. हद तो तब गयी जब अगस्त 2017 के बाद से म्यांमार में कम से कम 288 गांव पूरे या थोड़े जला दिए गए.

यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक़ 7,20,000 बच्चों को मानवीय आधार पर मदद चाहिए. हैजे के 9,00,000 से भी ज़्यादा टीके चाहिए. संयुक्त राष्ट्र को अगले 6 महीने के राहत काम के लिए 28 अरब से भी ज़्यादा रुपये की ज़रूरत है. बांग्लादेश की सेना को 250,000 लोगों के लिए दस हज़ार से भी ज़्यादा शौचालय बनाने की ज़रूरत है.

भारत में 40,000 रोहिंग्या समुदाय के लोग हो सकते हैं. भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि रोहिंग्या शरणार्थी देश की सुरक्षा के लिए खतरा हैं. सरकार इन शरणार्थियों को देश के बाहर भेजना चाहती है. सरकार के इस कदम की काफी आलोचना हो रही है. रोहिंग्या समुदाय के हालात आज जिस तरह के है वहां एक सवाल लाज्मीय तौर पर उठता है कि क्या विश्व बिरादरी के साथ-साथ भारत को भी अपने मानवीय पक्ष को सामने रखते हुए कोई सुधारात्मक व सहयोगात्मक पक्ष नही रखना चाहिए? या मानवीय मूल्यों को तिलांजलि दे देनी चाहिए? फिलवक्त इस पर स्पस्ट राय कायम करना मुश्किल है. सरकार भी कई संशयों से भरी हुई है.

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