समाज

गढ़वाल के वीर सेनापति ‘लोदी रिखोला’ की कहानी

पट्टी मल्ला बदलपुर के बयेली गांव में लगभग सन 1590 ई० में लोदी रिखोला का जन्म रिखोला परिवार में हुआ था. उनके पिता अपने इलाके के एक प्रतिष्ठित थोकदार थे. लोदी रिखोला का बचपन अपने गांव में ही बीता, जहां कि खेल-कूद और कसरत में उन्होंने अपना समय बिताया. उनकी उम्र अभी १३-१४ बरस की ही हो पाई थी कि ईड़ा (पट्टी मौंदाडस्यूँ) से एक बारात बयेली आई. उसके स्वागत-सत्कार का सब गांव वाले प्रबंध कर रहे थे.
(Rikhola Lodhi)

गांव से नीचे जल-धारा के पास पानी से भरा एक बड़ा ‘गैडा’ रखा हुआ था, वह इतना भारी था कि कई लोग मिलकर भी उसे उठा नहीं पा रहे थे. उसी बीच बालक लोदी कौतूहलवश वहां पर पहुँच गया, उसने अकेले ही उस ‘गैडे’ को उठा लिया तथा चढ़ाई पर ले जाकर बारात के स्थान पर पहुंचा दिया.

लोदी रिखोला के इस पराकम को देख कर सब लोग आश्चर्यचकित हो गए और चारों ओर धूम मच गई. लोगों ने बारात का काम तो स्थगित कर उन्हें पालकी पर बैठाकर बाजे-गाजों सहित सारे गांव की परिक्रमा कराई और स्थानीय भैरव देवता के समक्ष पूजा कर उनका अभिसिंचन किया. उस दिन से सब ओर यह खबर फैल गई कि एक नया ‘भड़’ पैदा हो गया है और चारों ओर इनकी ख्याति फैलने लगी.

कुछ दिनों बाद लोदी रिखोला का विवाह एक सम्भ्रान्त थोकदार परिवार की पुत्री से हो गया और सुखपूर्वक जीवन बिताने लगे. उन दिनों लोदी रिखोला अधिकतर अपने गाँव से कुछ मील पश्चिम की दिशा में नयार नदी के किनारे खैरासैण में अपने ‘बगवान’ ( बागीचे) में रहा करते थे. लेकिन शीघ्र ही इनके एकान्तवास का वह क्रम भंग हो गया.

महाराज महीपतिशाह ने तिब्बत से बार-बार आकर लूट-पाट करने वाले तिब्बती सरदार को सदा के लिये परास्त करने का निश्चय किया. मुख्य सेनापति माधोसिंह भंडारी के सुझाव पर उन्होंने गढ़वाल भर के सब भड़ों तथा अन्य वीर युवकों को निमन्त्रण दिया. लोदी रिखोला भला उस निमन्त्रण को कैसे अस्वीकार कर सकते थे तुरन्त श्रीनगर जाकर दरबार में प्रस्तुत हो गये और एक सेना के संचालक नियुक्त हुए. तिब्बत-युद्ध में लोदी रिखोला ने यथेष्ट वीरता का परिचय दिया और इसलिये वहाँ से लौटने पर इन्हें दक्षिणी सीमा की रक्षा का भार दिया गया क्योंकि ये स्वयं दक्षिणी गढ़वाल के निवासी थे.
(Rikhola Lodhi)

लोदी रिखोला के कथानक में दिल्ली से दरवाजा तोड़कर लाने का एक स्थान पर उल्लेख मिलता है. इस विषय पर उस पंवाड़े में बड़े जोरदार शब्द आते हैं लेकिन इस बात पर विश्वास करने के लिए पुष्ट ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं. सम्भवतया लोदी रिखोला ने नजीबाबाद के किले पर आक्रमण किया होगा और अपने बल-पौरुष द्वारा उसके फाटक को नष्ट-भ्रष्ट करके उसका कुछ अंश प्रमाण के तौर पर श्रीनगर दरबार में प्रस्तुत किया होगा.

डा. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने लोदी रिखोला के पंवाड़े को सम्पादित किया था और उनकी भी इस विषय में यही सम्मति है. दक्षिणी सीमा की रक्षा का भार इनके कन्धों पर होने के कारण नजीबाबाद के किले पर इनका आकमण करना यथेष्ट तर्क-संगत प्रतीत होता है क्योंकि उन दिनों डाकू-लुटेरे गढ़वाल की सीमा में घुसकर लूट-पाट करते और भाग कर नजीबाबाद की सरहद में घुस जाया करते थे. संभवतः उन्हीं का दमन करने के लिये लोदी रिखोला को उस किले पर हमला करना पड़ा हो. दक्षिणी लुटेरों का दमन करने के लिये लोदी रिखोला ने जिस स्थान पर अपनी ‘रक्षणी’ सेना नियुक्त की थी उसे ही अब रिखणीखाल कहते हैं.

उपरोक्त घटना के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि लोदी रिखोला को कुछ समय तक कोई विशेष कार्य नहीं करना पड़ा और वह अपने बगवान में विश्राम करते रहे. उधर माधोसिंह भंडारी के नेतृत्व में उत्तरी व पश्चिमी सीमा निर्धारित करने का कार्य जारी था और उसी कार्य को करते हुए छोटी चीन में उनका देहान्त हुआ. जब तक वे जीवित रहे तब तक सिरमौर आदि राज्यों में पूर्ण शान्ति रही और उधर के सब लोग गढ़वाल-राज्य की संरक्षकता स्वीकार करते रहे लेकिन उनके देहावसान के बाद उन्होंने फिर उपद्रव मचाना शुरू कर दिया. वे गढ़वाल की सीमा में घुसकर खड़ी फस्लों को बर्बाद कर देते तथा गाँवों को लूट-पाट कर वापिस चले जाते. उनका दमन करने के लिए कई बार सेनाएँ भेजी गईं फलस्वरूप वे कुछ दिन शाँत रहते लेकिन सेनाओं के लौटने पर फिर उत्पात शुरू कर देते. ऐसे अवसर पर महाराज महीपतिशाह को फिर लोदी रिखोला की याद आई और लोदी रिखोला को संदेशा भेजा गया कि वह पश्चिमी सीमा को ठीक करें.  
(Rikhola Lodhi)

महाराज का सन्देशा पाकर लोदी रिखोला ने सब परिवार वालों तथा ग्रामवासियों से विदा ली परन्तु चलते समय इनकी बांई भुजा फड़कने लगी और इन्हें कुछ ऐसा लगा कि शायद वह जीवित न लौट पायेंगे. इसलिए गाँव से कुछ दूर निकलकर लोदी रिखोला  वाट की पुगड़ी तक ही गये और वहीं रात भर विश्राम किया. दूसरी सुबह जब लोदी रिखोला घर वापिस लौट आये तो वीर-प्रसविनी माता ने उनकी बुरी तरह भर्त्सना की और कहा- देश की रक्षा के लिए चाहे प्राण भी देने पड़ें पर वीरों को पीछे नहीं हटना चाहिए. यह कहकर उन्होंने अपने दूध की धारा छोड़ी और तवे पर छेद करके दिखलाया और कहा- मेरे दूध की लाज रखना और अपने कुल को कलंक न लगाना.

इस प्रकार से प्रोत्साहित होकर लोदी रिखोला श्रीनगर पहुँचे और अपनी सेवायें समर्पित की. महाराज ने स्वयं अपने हाथों से लोदी रिखोला का तिलक किया और अपना आशीर्वाद देकर आदर-सत्कार के साथ एक सेना के संचालन का भार इन्हें देकर पश्चिमी सीमा की ओर भेजा.  

अपनी वीरता, रण-कुशलता और सैन्य-संचालन के द्वारा लोदी रिखोला ने सिरमौरी लुटेरों के दांत खट्टे कर दिये. लोदी रिखोला ने उन्हें गढ़वाल की सीमा से बाहर तो खदेड़ा ही पर साथ ही सिरमौर की सीमा के अन्दर घुसकर उनका बुरी तरह दमन भी किया. यहाँ तक कि सारे इलाके में त्राहि-त्राहि मच गई और सबने लोदी रिखोला को आश्वासन दिया कि अब कभी भी गढ़वाल की सीमा लाँघ कर उत्पात नहीं मचायेंगे. यह कहा जाता है कि वहाँ इनका इतना आतंक फैल गया था कि वहाँ के निवासी अभी तक अपने मकानों की छतों पर धुर नहीं बांधा करते है और वहाँ की स्त्रियाँ भी अपने लहंगों पर नाड़ा नहीं बाँधा करती हैं. यह प्रथा वहाँ इसलिये प्रचलित है कि इनके चले आने पर वहाँ के लोगों ने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक वे लोदी के समान भड़ पैदा कर बदला नहीं ले लेंगे तब तक वे उपरोक्त दो कार्य नहीं करेंगे लेकिन न तो वहाँ ही और न यहाँ ही फिर कोई वैसा वीर भड़ पैदा हो सका.

पश्चिमी सीमा से इस प्रकार सफलता प्राप्त करने के बाद जब ये श्रीनगर वापिस लौटे तो श्रीनगर में इनका शानदार स्वागत किया गया. सारे राज्य में हर्ष मनाया गया और महाराज ने स्वयं अपने हाथों से इन्हें खिलअत पहनाई और आज्ञा दी कि कराईखाल से दक्षिण का सारा इलाका जागीर में इन्हें दे दिया जाय पर इनके उस असाधारण सम्मान से मन्त्रियों में खलबली मच गई और उन्होंने षड़यन्त्र रचने शुरू कर दिए उन्होंने महाराज को बहकाया कि लोदी रिखोला स्वयं राजा बनना चाहते हैं आदि-आदि. अतः इन्हें आज्ञा दी गई कि ये एक विशेष दरवाजे को उखाड़कर अपने बल का प्रदर्शन करें. उस दरवाजे के पीछे एक गड्ढे में कई बर्छे लगे हुए थे और ऊपर से नकली जमीन तैयार कर दी गई थी. उस विशाल फाटक को झटका देकर ज्यों ही लोदी रिखोला ने उखाड़ा कि ये नीचे गड्ढे में गिर गये और बर्छे से बुरी तरह छिद गये.  

एक वर्णन के अनुसार लोदी रिखोला का वहीं देहांत हो गया सिर्फ लोदी रिखोला की पगड़ी बयेली तक पहुँच सकी जहाँ लोदी रिखोला की पत्नी उसके साथ सती हो गई. एक अन्य वर्णन के अनुसार उन बर्छों से घायल हो जाने पर भी ये साहसपूर्वक उठ खड़े हुए और अपने गांव की ओर चल दिये. खैरासैण के पास विषगड्डी नदी के किनारे पहुँचने के बाद चढ़ाई शुरू हो गई इस कारण ये आगे नहीं बढ़ पाये और वहीं इनका प्राणान्त हो गया.

एक और कथानक के अनुसार लोदी रिखोला ने अपनी पगड़ी से अपनी कमर के घाव कस कर बांध लिये और घोड़े पर सवार होकर अपने गांव की ओर चल दिये. वहाँ पहुँचने के बाद अपनी स्नेहमयी वीर-प्रसविनी मातेश्वरी की सुखद गोद में लोदी रिखोला ने अपनी अन्तिम साँस ली.  लोदी रिखोला की निःसन्तान धर्मपत्नी भी उनके साथ सती हो गई. उस भयानक शकुन को देखकर जन्मदायिनी वीर माता ने श्राप दिया कि उस दिन से उस कुल में कोई लडैया वीर पैदा नहीं होगा.

उधर महाराज महीपतिशाह को भी गहरी श्रात्मग्लानि हुई कि किस प्रकार एक निश्छल वीर देशप्रेमी भड़ दबारियों के षड़यन्त्रों द्वारा मारा गया. उनके बारे में कथानक है कि उन्होंने अपने राज्य के अन्तिम वर्ष में हरिद्वार के कुम्भ को जाते समय ऋषिकेश में भरत-मूर्ति की बिल्लौर की आँखें निकलवा दी और फिर लगवा दी.  हरिद्वार पहुँचे तो वहाँ 500 जोगियों और 1000 गृहस्थों को मरवा डाला. अन्त में उस धर्म-विरुद्ध कार्य का प्रायश्चित करने के लिये बिना किसी कारण कुमाऊँ के तत्कालीन राजा त्रिमलचन्द से युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त हुए उनकी उस विक्षिप्तावस्था का एक मुख्य कारण लोदी रिखोला की लोमहर्षक षड़यन्त्रपूर्ण मृत्यु भी थी. उन्होंने इनके वंशजों को बदलपुर पैन की आगीर प्रदान की जहाँ कि वे अभी तक थोकदार हैं. एक वर्णन के अनुसार- गढ़वाल का रखवाला होने के कारण ही इन्हें रिखोला की उपाधि दी गई थी. बदलपुरी रिखोला थोकदारी दस्तूर गढ़वाल में सर्वाधिक बताया जाता है.

लोदी रिखोला के वंशधर अभी तक मल्ला बदलपुर पट्टी के बयेली तथा कोटा ग्रामों में विद्यमान हैं और यथेष्ट सम्पन्न व्यक्ति हैं लेकिन उन वंशधरों के अतिरिक्त बयेली में इनका एक और स्मारक है. कहते हैं कि एक बार किसी व्यक्ति ने ताना मारा कि अगर वाक़ई भड़ हो तो अमुक पत्थर उठा लायो. वह विशाल पत्थर गांव से कुछ दूरी पर पड़ा हुआ था. इन्हें जो तैश आया तो तुरन्त उस पत्थर को उठा लाये और गांव के बीच में स्थापित कर दिया. वह पत्थर अभी तक मौजूद है उसका अधिकांश भाग टूट गया है लेकिन अभी भी जो टुकड़ा शेष है वह लगभग छः फीट लम्बा, चार फीट चौड़ा और एक फुट ऊँचा है. यह आजकल बच्चों के बैठने व खेलने का प्रिय स्थान है और लोदी रिखोला की वीर-गाथा का पाषाणमय स्मारक है.
(Rikhola Lodhi)

भक्त दर्शन की किताब गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ से साभार

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