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जन्मदिन पर सफ़दर हाशमी की याद

साल 1989 का पहला दिन यानी एक जनवरी था. उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद जिले के साहिबाबाद में सफ़दर हाशमी (Safdar Hashmi) अपनी नाट्य मंडली के साथ मजदूरों के सम्मुख ‘हल्ला बोल’ नुक्कड़ नाटक कर रहे थे. नाटक की विषयवस्तु और उसे मिल रहे जन-सहयोग से बौखलाए कांग्रेसी नेता मुकेश शर्मा ने अपने गुंडों के साथ इस नाट्य मंडली पर हमला बोल दिया. दिन-दहाड़े हुई इस वारदात में सफ़दर बुरी तरह घायल हो गए, जिसके अगले दिन दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में उनकी मौत हो गयी. सफ़दर के साथ ही रामबहादुर नाम का एक मजदूर भी मारा गया.

सफ़दर की निर्मम हत्या की खबर ने देश भर के लोगों को झकझोर कर रख दिया था. एक अनुमान के तौर पर उनकी अंतिम यात्रा में पन्द्रह हजार लोग शामिल हुए.

एक नाटककार, निर्देशक, गीतकार और शिक्षक के तौर पर सफ़दर हाशमी का योगदान यह है कि उन्होंने भारत में नुक्कड़ नाटक आन्दोलन को लोकप्रिय बनाने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान किया. दुनिया के मजदूर-श्रमिकों और शोषित-वंचित वर्ग की आवाज़ को अपने नुक्कड़ नाटकों की सहायता से सफ़दर हाशमी एक बड़ा प्लेटफार्म मुहैय्या कराया. दिल्ली के एक संपन्न परिवार से वास्ता रखने वाले सफ़दर ने दिल्ली के ही विख्यात सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की थी. अपने कॉलेज के दिनों से ही वे इप्टा से जुड़ गए थे और उन्होंने अपनी जैसी सोच रखने वाले मित्रों के साथ जन नाट्य मंच (Jana Natya Manch) नामक संस्था की स्थापना की थी.

1975 में देश में आपातकाल लागू कर दिया गया था. इस राजनैतिक क्रूरता के लागू होने के बाद से ही सफदर हाशमी ने जन नाट्य मंच के साथ तमाम ज्वलंत सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों को उठा कर लगातार नुक्कड़ नाटक किये.

उनकी संस्था महिलाओं, मजदूरों, छात्रों और किसानों के मध्य खासी लोकप्रिय थी और उनके सभी आंदोलनो में उसकी हिस्सेदारी रहती थी. सफ़दर हाशमी (Safdar Hashmi) के सबसे विख्यात नुक्कड़ नाटकों में मशीन, गांव से शहर तक, तीन करोड़, हत्यारे, और अपहरण भाईचारे का, औरत और डीटीसी की धांधली मुख्य रूप से शामिल हैं.

सफदर हाशमी कला के माध्यम से सांस्कृतिक आन्दोलन को जन्म दे कर उसे सामाजिक न्याय की डगर तक पहुंचा सकने के पक्षधर थे. सफ़दर ने एक समय पश्चिमी बंगाल में सूचना अधिकारी के पद पर भी काम किया था और उत्तराखंड के श्रीनगर में एक प्रवक्ता के तौर पर भी लेकिन 1984 में उन्होंने नौकरी छोड़ नुक्कड़ नाटकों को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया था.

सफ़दर हाशमी ने साफ़-सुथरी भाषा में अनेक लोकपरक कविताएं भी लिखीं.

किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं

किताबें करती हैं बातें
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की कल की
एक-एक पल की.
खुशियों की, गमों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की.
सुनोगे नहीं क्या
किताबों की बातें?
किताबें, कुछ तो कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं.
किताबों में चिड़िया दीखे चहचहाती,
कि इनमें मिलें खेतियाँ लहलहाती.
किताबों में झरने मिलें गुनगुनाते,
बड़े खूब परियों के किस्से सुनाते.
किताबों में साईंस की आवाज़ है,
किताबों में रॉकेट का राज़ है.
हर इक इल्म की इनमें भरमार है,
किताबों का अपना ही संसार है.
क्या तुम इसमें जाना नहीं चाहोगे?
जो इनमें है, पाना नहीं चाहोगे?
किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!

सफ़दर की हत्या के बाद न्याय मिलने में चौदह वर्षों का लंबा समय बीता जब इस अपराध के लिए मुकेश शर्मा और उसके नौ गुंडों को को आजन्म कैद के साथ साथ 25-25 हजार रुपये जुर्माने की सजा दी गई थी.

आज सफ़दर हाशमी का जन्मदिन है. वर्तमान में वे सिर्फ एक नाम नहीं रह कर एक पूरी की पूरी विचारधारा के प्रतीक हैं और देश भर में उनके चाहने वाले उनकी जलाई ज्योति को जीवित रखने के प्रयासों में लगे हुए हैं.

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