आज ही के दिन कुछ साल पहले सड़क दुर्घटना में उत्तराखण्ड की नयी पीढ़ी के अग्रणी लोकगायक पप्पू कार्की का निधन हो गया था. मात्र 34 साल की उम्र में पप्पू कार्की न सिर्फ अपने कैरियर के उरूज पर थे बल्कि वे उत्तराखण्ड के लोकगायन की सबसे बड़ी उम्मीद भी बने हुए थे. लोकगीतों के नाम पर घटिया, बाजारू कुमाऊनी गीतों अंधी दौड़ के दौर में पप्पू पारंपरिक लोकगीतों को सहेज रहे थे, उन्हें संवार रहे थे. उन्होंने पारंपरिक लोकगीतों को नए कलेवर में ढालकर आज की युवा पीढ़ी के बीच लोकप्रिय बनाया.
(Remembering Pappu Karki)
पप्पू के गीतों के बिना कुमाऊँ के किसी भी समारोह की रंगत की कल्पना करना बेमानी है. पांच साल की उम्र में अपनी पहली न्योली गाने वाले पप्पू ने अपना पहला गीत 1998 में कृष्ण सिंह कार्की के साथ रिकॉर्ड किया, यह उनकी अपनी गुरु के साथ जुगलबंदी थी. अपनी पहली संगीतमय पारी में पप्पू उतना कामयाब नहीं हुए. जिंदगी के समस्याएँ उन्हें दिल्ली ले गयीं. दिल्ली प्रवास के दौरान 2006 में वे उत्तराखंड आइडल के रनर उप बने.
इस जीत ने पप्पू के भीतर नया उत्साह भरा और वे एक बार फिर उत्तराखण्ड आ गए. अपनी नयी पारी में पप्पू कार्की ने लोक गायक प्रहलाद महरा और नरेंद्र तोलिया के साथ मिलकर झम्म लागछी एल्बम रिकॉर्ड किया. 2010 में रामा कैसेटस की इस एल्बम के गीत ‘डीडीहाट की जमना छोरी’ सुपरहिट साबित हुआ. इसके बाद पप्पू कार्की ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. इसके बाद का उनकी संगीत यात्रा न सिर्फ उनकी कामयाबी की कहानी है बल्कि कुमाऊनी संगीत की यात्रा का भी एक अहम पड़ाव बना. पप्पू कार्की ने ऐसे लोकगीतों की झड़ी लगा दी जिस पर उत्तराखण्ड की 3 पीढ़िया थिरकती हैं. उनके ठेठ गीत खालिस लोकगीतों के रसिकों को भी भी उतने ही पसंद आते जितने पंजाबी थाप के दीवाने युवाओं को. पप्पू ने दिखाया कि लोकगीत-लोकसंगीत की आत्मा को बचाए-बनाये रखते हुए उसे आधुनिक बनाया जा सकता है.
(Remembering Pappu Karki)
अब पप्पू कार्की एक कामयाब लोकगायक के रूप में स्थापित हो चले थे. 2017 में उन्होंने पीके इंटरप्राइसेस नाम से अपना खुद का स्टूडियो हल्द्वानी में खोला. उनके स्टूडियो ने कुमाऊनी लोकसंगीत के दीवानों को दिल्ली के दौड़ से बचने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.
अपनी मंजिल के इस मुकाम तक पहुंचने के लिए पप्पू को काफी संघर्ष करना पड़ा. 30 जून 1984 को पिथौरागढ़ के मामूली से गाँव सेलावन में किशन सिंह कार्की और कमला कार्की के घर जन्मे. घर के खराब आर्थिक हालातों के कारण सरकारी स्कूलों तक की पढ़ाई भी नहीं कर सके. हाई स्कूल के बाद खटने के लिए दिल्ली चले गए, जैसी की पहाड़ के सभी युवाओं की नियति है. दिल्ली में वे प्रिंटिंग प्रेस से लेकर पेट्रोल पम्प और चपरासी तक की नौकरी में खटते रहे. फिर रुद्रपुर में फैक्ट्री में मजदूर रहे.
(Remembering Pappu Karki)
वो पप्पू ही थे जिन्होंने जिंदगी के इस ख़राब समय में भी लोकगीतों के लिए अपनी दीवानगी और सपने को नहीं मरने दिया. फिर उनके जुनून ने उत्तराखण्ड को अपने गीतों का दीवाना बनाया. उनके गीतों के लिए दीवानगी का आलम यह है कि उनके गीत उत्तराखण्ड के युवाओं द्वारा जिम में कसरत करते हुए बजाये जाते हैं, जहां हमेशा ही पंजाबी गानों की धूम रहा करती है.
पप्पू कार्की और उत्तराखंडी लोकजीवन अपने बेहतरीन वर्तमान और शानदार भविष्य के सफ़र पर आगे बढ़ ही रहे थे कि सड़क दुर्घटना में उनकी असमय मौत हो गयी. सड़क दुर्घटना भी उत्तराखण्ड के अधिकांश लोगों की तरह पप्पू कार्की की भी नियति बन गयी.
(Remembering Pappu Karki)
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