हल्द्वानी निवासी गणेश जोशी एक समाचारपत्र में वरिष्ठ संवाददाता हैं. गणेश सोशल मीडिया पर अपनी ‘सीधा सवाल’ सीरीज में अनेक समसामयिक मुद्दों पर ज़िम्मेदार अफसरों, नेताओं आदि को कटघरे में खड़ा करते हैं. काफल ट्री के लिए लगातार लिखेंगे.
आज मन उदास है. उदास होने का बड़ा कारण भी है. मैंने अपनेपन के उस एहसास को खो दिया, जो मुझे अब तक मिलता रहा. मेरी अबू अब इस दुनिया में नहीं रही. अबू यानी मेरे बाबूजी की बुआ. जिसने पूरी जिंदगी हमारे नाम कुर्बान कर दी थी. अपने भाई यानी मेरे अबा (दादा) के परिवार के लिए ही जीती रही. पहाड़ी नारी की अथाह संघर्ष की दास्तां थी वह. न सुबह देखा और न शाम, मेरे बाबूजी और दो काका के परिवार को पालने के लिए मेहनत में कोई कसर नहीं छोड़ी.
बहुत उम्मीद थी उसके अंदर कभी तो आएंगे, मुझे ले जाएंगे. उनके लिए नित श्रृंगार करती थी. सुहागिन की तरह ही रहती थी, जैसे बिंदी लगाना, गले में मंगलसूत्र और नाख में नथुली, यहां तक कि माथे पर सिंदुर भी भरती थी. उनके लिए, जो उन्हें तब छोड़ गए थे, जब वह अपनी जिंदगी ठीक से समझ भी नहीं पाई थी. कम उम्र में ही शादी हो गई थी. एक या डेढ़ साल बमुश्किल साथ मिला होगा उनका. उसके बाद वह एक दिन अचानक गायब हो गए. कहां गए, कुछ भी नहीं बताया. आज उम्र के 92वें साल में अंतिम सांस ली, लेकिन जिनका इंतजार ताउम्र किया, वह कभी नहीं आए. चंद पलों की उनकी याद के सहारे ही पूरी जिंदगी काट दी.
जब मैं कई बार अबू से उनके पति के बारे में पूछने की हिम्मत करता, तो वह बात टाल दिया करती थी. जैसा कि मैंने अपने मां व अन्य परिजनों से सुना, अबू के पति ने जोग धारण कर लिया था यानी बाबा बन गए. लेकिन, इस बात में कितनी सत्यता थी. इसके बारे में किसी को साफ-साफ कुछ भी नहीं पता.
सभी भतीजे पल गए. उनकी शादियां हो गई. भरा-पूरा परिवार हो गया. सभी अपने-अपने में मस्त होने लगे, उलझने लगे, लेकिन हर परिस्थिति में अबू की गाय उसका सबसे बड़ा सहारा रही. गाय भी ऐसी कि अबू के अलावा उसके सामने कोई खड़ा तक नहीं हो सकता था. किसी की हिम्मत की उसे दुह ले. अबू और उसकी गाय का ऐसा प्यार देख, आंखें भर आती थी. जिसे वह अपने दिल से लगाए रखती थी. उससे बातें किया करती थी. ऐसा लगता, मानो गाय भी उसकी हर बात को समझ रही हो. बताती थी, पुरखों की निशानी है यह. इससे बिछड़ने की तो मैं सोच भी नहीं सकती. समय बीतता गया. जिंदगी भी बीतते चली गई. वह आजीवन पहाड़ की नारी की जीवटता व कर्मठता का इतिहास बयां करते रही. सुबह जंगल से घास काटना, नौले से पानी भरना, खेतों में जाना, ग्वाला जाना हो या फिर घर के अन्य काम, सभी कार्य खुद करना और करवाने में माहिर थी वह. ममता की साक्षात मूर्ति थी. अपने सबसे लाडली गाय का दूध, दही, घी चाहती तो खुद भी पी सकती थी, खा सकती थी, लेकिन नहीं. मेरे भैया खाएंगे-पीएंगे. मेरे भतीजे खाएंगे, मेरे भतीजों के बच्चे खाएंगे. बस, यही तो प्यार था उसका. मुझे अब भी याद है, जब वह कुछ साल ससुराल चली गई. ससुरालियों के बार-बार अनुनय-विनय को वह टाल नहीं सकी थी. उन्होंने अपने पास बुलाने के तमाम तर्क दिए थे. परंपराओं और रीति-रिवाजों का हवाला दिया. रोते-बिलखते, मन मसोसकर वह वीरान ससुराल को चली गई. तब हमारा परिवार ही नहीं, पूरा गांव रो उठा था. बेजुबान भी उदास हो गए थे. पहाड़ों से टकराती उस रोने की दहाड़ बार-बार कानों में पड़ती, जो याद आते ही आज भी हदय को विचलित कर देती है.
मैं इंटर कालेज, सानीउडियार में पढ़ रहा था. बुआ मेरे सहपाठी को, जो उसी गांव का था और मेरा नामराशि था, उसके जरिये अपने यहां आने का संदेश भेज देती. दोस्त से मुझे भी साथ में लाने को कह देती. जब मैं अपने घर न आने का जवाब भेजकर अबू के पास चला जाता. कुछ दिनों तक वहीं से स्कूल जाता, अबू का ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता. स्वादिष्ट भोजन बनाती. जरूरत से ज्यादा खिला देती. रात में पांवों की मालिश भी कर देती. कड़ी मेहनत से हाथ खुरदुरे से हुए रहते. सुबह नहला-धुलाकर स्कूल भेज देती थी. अबू के साथ बिताए उस अपनेपन के एहसास को मैं कैसे भूल सकता हूं. जब वह मुझे विदा करती, फूट-फूट कर रोने लगती. तब तक मेरी राह एकटक निहारते रहती, जब तक मैं पहाड़ी के उस पार न पहुंच जाऊं. उस पल की याद में अब भी रह-रहकर आंखें भर आती हैं. यह अपनापन उसका, केवल मेरे लिए ही नहीं, बल्कि मेरे परिवार के हर सदस्य के लिए भी ऐसा ही था. उसके लिए और कोई नहीं, उसके ओ दा, बड़े भैयाद, के बच्चे ही सबकुछ थे. अपने ससुराल में देवरों के बच्चों को भी प्यार करती थी, लेकिन इतना नहीं.
कुछ साल बीते. मैं उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ चला गया. मां की याद तो आती, लेकिन अबू की याद आते ही अकेले में रोना आ जाता. उसका प्राण तो मायके में था, भला ससुराल में कितने दिन टिक पाती. फिर लौट आई मायके, भतीजे और उनके बच्चों के पास. जिंदगी हर पल इम्तहान लेती है. जीवन में जीने का मकसद भी डगमगाने लगता है. कुछ पाने की उम्मीद थी, लेकिन आंखों के सामने ही उम्मीदों के सपने धराशायी होने लगते हैं. अब यही हो रहा था मेरी अबू के जीवन में. पहले छोटे चाचा सेना में शहीद हो गए और और फिर ओ दा यानी मेरे दादा चल बसे. इन घटनाओं को कुछ वर्ष बीते ही थे दूसरे चाचा कैंसर की जंग लड़ते हुए दुनिया से विदा हो गए. मैं हल्द्वानी आ गया. पापा-मम्मी, भाई-बहन भी यही आ गए. फिर वह अकेला महसूस करने लगी. मैं कहता, अबू हल्द्वानी आ जाओ. मना कर देती, लेकिन वह तब आई जब शरीर जवाब देने लगा. वैसे तो बीमारी कुछ नहीं थी, लेकिन बुढ़ापा ने उसे घेर लिया था. नौबत बिस्तर पकड़ने तक आ गई. यादाश्त कम हो गई. हमेशा स्वाभिमान से जीने वाली मेरी अबू बिस्तर से इतना ही कहती, गणेशा आब ठाड़ न है सैकन्यूं ;अब नहीं उठ सकती. एक-दो महीने ऐसा कहते-कहते वह हमसे हमेशा के लिए दूर हो गई है. रूला गई, लेकिन मन में इतना सा सुकून रहा, अंतिम समय वह हमारे साथ रही. सेवा का अवसर दिया. अबू तू हमें बार-बार याद आते रहेगी. तेरे जैसा प्यार-दुलार करने वाला अब शायद ही कोई मिले. मां नहीं बनी, लेकिन तू मां से कम नहीं रही. पत्नी नहीं बनी रही, लेकिन गृहणी से बड़ा धर्म निभाया. दादी नहीं बनी, लेकिन अबू बनकर दादी से बढ़कर रही. पति सामने नहीं थे, लेकिन तेरे श्रृंगार ने पति को हमेशा जिंदा रखा. तेरे लिए जितना किया जाना चाहिए था, उतना करना हम सब के लिए तो नामुमकिन ही था. तेरा व्यक्तित्व केवल मेरी अबू तक सीमित नहीं, बल्कि पहाड़ की हर उस नारी के सदृश है, जो वास्तव में अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए जीतीं हैं.
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अबू को नमन
यादेँ - यूँ ही दिल में जगह बनाएँ रहें
उनकी जिजीविषा और दायित्वबोध से मिलती रहे प्रेरणा ?
सचमुच बहुत मार्मिक चित्रण किया है उन पलों का जिन्हें आपने बचपन से देखा समझा और बड़े हुए उस "अबू" की पीड़ा को भी आपने सजीव चित्रित कर दिया है उत्तराखंड की हर उस नारी को सम्मान सहित अभिवादन नमन जिसने संघर्ष को अपने सीने से ताउम्र लगा कर रखा है।
गौरीशंकर कांडपाल, संस्कृतिकर्मी, सीसीआरटी
शानदार.. उनकी यादें हमें प्रेरित करेंगी।
आदरणीय जोशी जी , एक अत्यंत ह्रदय स्पर्शी वह मार्मिक विवरण ।