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अपने ही भीतर मरते जा रहे हैं जीवित लोग: स्मृति शेष मंगलेश डबराल

हिंदी कवि मंगलेश डबराल को गुज़रे एक साल हुआ. नौ दिसंबर 2020 को कोरोना महामारी से उनकी जान गई. प्रस्तुत संस्मरणनुमा वृत्तांत, कवि के कमरों के हवाले से है, जहां कवि बचपन से लेकर देह के आख़िरी समय तक रहता-गुज़रता आया था.
(Remembering Manglesh Dabral 2021)

आईनों से भरे कमरे में रहता था मैं, देखता हुआ बस ख़ुद ही ख़ुद को…
जिमी हेन्ड्रिक्स, रूम फ़ुल ऑफ़ मिरर्स  

कमरे बिल्कुल अलग होते हैं, वे शांत होते हैं या तूफ़ानी, समन्दर की ओर रुख़ किए हुए, या उसके उलट, किसी जेल की तरफ खुलते हुए, उनमें धुले कपड़े टंगे हैं, या वो ओपल नगीनों और रेशमी ढेरों से खिले हुए हैं, घोड़े के बाल जैसे कड़े होते हैं या पंखो जैसे नाज़ुक- किसी भी गली में किसी भी कमरे में बस दाखिल होने की देर है, स्त्रीत्व की वो समूची अत्यन्त जटिल शक्ति, तमाम अपेक्षाओं पर फटकार की तरह बरसती है.
वर्जीनिया वुल्फ़, अ रूम ऑफ़ वन्स ओन, 1929

जब अकेले होते थे, तब खोसे अर्कादिओ बोअन्दिआ अनंत कमरों का सपना देखते हुए ख़ुद को बहलाने लगते थे. एक रोज़ उन्होंने स्वप्न देखा कि वो बिस्तर से उतरकर दरवाजा खोल रहे हैं और ठीक वैसे ही एक दूसरे कमरे में दाखिल हो रहे हैं, रॉट आयरन के सिरहाने वाले हूबहू बिस्तर पर, जहां वैसी ही बांस की कुर्सी रखी है और पीछे की दीवार पर वर्जिन मैरी का वैसा ही छोटा सा चित्र है. उस कमरे से वो जिस दूसरे कमरे में पहुंचते थे वो भी हूबहू वैसा ही था, जिसका दरवाजा जिस कमरे में खुला वो भी वैसा ही था, जिसका दरवाजा जिस कमरे में खुलता वो भी वैसा ही होता और इस तरह वैसे ही दूसरे कमरे में और एक के बाद एक अनंत तक ये सिलसिला चलता रहता. उन्हें एक कमरे से दूसरे में जाना पसंद था. जैसे समांतर आईनों वाली गैलरी में, जब तक कि प्रुडेन्सियो एगिलार का हाथ उन्हें अपने कंधों पर न महसूस होता. फिर वो एक कमरे से दूसरे कमरे में लौटने लगते. उल्टा चलते हुए. जहां से शुरू किया था वहीं पहुंच जाते और वहां उन्हे यथार्थ के कमरे में प्रुडेन्सियो एगिलार मिल जाता. जब उन्हें बिस्तर पर पड़े दो सप्ताह गुज़र गए थे, तब एक रात, प्रुडेन्सियो एगिलार ने उन्हें एक बीच के कमरे में कंधों पर छू लिया और तबसे वो हमेशा के लिए वहीं रह गए, सोचते हुए कि वही असली कमरा था.
गाब्रिएल गार्सिया मार्केस, वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड, 1971

कमरे उन किताबों की तरह होते हैं जिन्हें आप पढ़कर बंद कर आए और भूल गए, फिर अचानक कोई पल अजनबी की तरह आता है और कुछ याद दिलाने की कोशिश करता है. स्मृति दबे पांव उठती है और उन कमरों की ओर लौटने लगती है. जैसे किताब के पन्ने फड़फड़ाए. कितने सारे लोगों के पास कितने सारे कमरों की याद रहती होगी. एक जीवन कहां कहां ले जाता है और एक जीवन कितने सारे कमरों से होकर गुजरता है. या ये जीवन ही एक कमरे की तरह व्यतीत होता है. क्या मृत्यु भी एक कमरे की तरह हमारे पहुंचने का इंतज़ार करती है. कमरा एक भराव है- आकांक्षा और मौन का, उम्मीद और निराशा का, प्रेम और इंतज़ार का. नदी पर एक नाव की तरह कमरा रखा हुआ है कमरा जितना अंदर बुलाता है उतना ही बाहर को उलीचता रहता है जैसे मैं नहीं सैलाब हो. एक कमरा एक अदृश्य झोले की तरह साथ रहता है. कंधे पर नहीं, स्मृति में. वही हमें उन कमरों तक जाने का रास्ता बताता है जिन्हें हम भूल गए हैं या जो हमारे पीछे पीछे हमारे साथ चले आ रहे हैं.
लेखक, काव्यांश प्रकाशन की पुस्तक ‘मेरा कमरा’ में संकलित लेख और काफ़ल ट्री में एक लेख “गढ़वाल से ग्लोब तक मेरे कैसे कैसे कमरे, 2020 ”

फिर उसने आंखें खोलीं और अपनी कुर्सी मेज पर आकर बैठ गया. और उसने अपने भीतर एक सिनेमा खोल दियाः ‘एक बिल्कुल पर्सनल सा एस्से.’ 

और मेरे भीतर ज़रा भी मैल नहीं है
बल्कि एक खाली जगह है
जहां कोई रह सकता है.

(घर शांत है, कविता संग्रह हम जो देखते हैं, मंगलेश डबराल)

जनसत्ता अपार्टमेंट की तीसरी मंजिल का मकान. दरवाजा खोलते ही तीन-चार कदमों का पैसेज, सामने एक कमरा. वो बना कवि का कमरा. बीच में ड्रॉइग रूम, फिर डाइनिंग स्पेस, बगल में किचन, अंदर दो कमरे. एक में चाची और अलमा और दूसरे में मोहित और हम जैसे दो चार रोज़ के मेहमान. घर की दीवारों से लगी किताबों की दीवारें थीं. दीवार में दीवार रहती थी और दीवार में खिड़की रहती थी और दीवार में किताबें रहती थी.

कमरे में एक दीवार पर ब्रेख्त और पिता की तस्वीरें हैं. एक दीवार पर निराला. एक पेंटिंग है विख्यात एक दीवार पर उनकी प्रिय. एक जाता हुआ आदमी. और वह जाता हुआ भी कहां है. क्या वो पीछे मुड़कर अगर देख ले. अगर हम उसे सामने से देख लें, अपनी ओर आता हुआ. कपड़े जैसे पत्तों का ढेर था. कुछ उजले मुड़ेतुड़े कुछ करीने से रखे, हैंगर पर शर्ट कोट जैकेट. वहीं कपड़ों के पीछे अपनी तरह का बार था कुछ लुढ़की हुई सी अटकी हुई सी कुछ कम खाली कुछ आधा भरी बोतलों का. मेज़ पर कम्प्यूटर उसके ऊपर के खानों में शीशे के पल्लों के भीतर करीने से रखी किताबें. नीचे खुली जगह पर फ़ाइलें कागजों के बंडल पांडुलिपियां कतरनें नोट. उस कमरे में लौट लौट कर आता था वो. अन्य कमरों में कुछ देर के लिए रुकता और चला आता.

दो बेडरूमों और रसोई में खुलते बीच के हिस्से में डाइनिंग टेबिल, दीवार पर चाचा के माता पिता और दादा की तस्वीरें और अब वहां वो ख़ुद भी है एक तस्वीर में. वहीं से जैसे पुलक कर स्वागत करता हुआः अरे तुम हो, कब आए. मैंने सपना देखा, वो और मैं जंगल में कहीं किसी तालाब में नहा रहे हैं. वो तैर रहे हैं, मैं तैरना नहीं जानता. हैरत में पूछता हूं, अरे चाचाजी आपको तैरना आता है और वो मुंह से पानी की छाप पौंछते हुए सिर्फ़ मुस्करा रहे हैं. 
(Remembering Manglesh Dabral 2021)

फ़ेसबुक का भी एक कमरा था, उनके कमरे के भीतर. वहां भी लगातार आवाजाही, चहलपहल, शोरशराबा, गुत्थमगुत्था, गालीगलौच, चीखपुकार, मार-फटकार, तारीफ़-कसीदे, भक्ति-वंदना के कैंप चल रहे थे और वहीं कहीं कहासुनी छींटाकशी प्यार-मनुहार टीका-टिप्पणी सलाह-मशविरे हिदायत-दावत के खाने भी खुले हुए थे. अपने फलसफे से वो उसे समझने की कोशिश करता था इस खिंचाव से पीछा छुड़ाना नामुमकिन सा था. आभासी संसार अपनी वास्तविकताओं का शिकार था.

उस कमरे में जो चीज़ सबसे ज़्यादा नुमायां होती थी वो एक निराशा थी, उदासी और अकेलापन और एक फंसाव. जैसे कवि कोई जवाब चाहता था, कोई तसल्ली, कोई मोहलत. वो प्यार चाहता था. उस कमरे में प्रेम की तलाश के निशान बिखरे हुए थे. उसने घटती ऑक्सीजन, सिकुड़ते फेफड़ों, उखड़ती सांसों और रात दिन के बुखार के आतंक को ठेलते हुए अपना कमरा नहीं छोड़ना चाहा. वह उसकी कविता का भी कमरा-कारखाना था. 

फ़्रासींसी चिंतक ज्यां देरिदा अपनी पुस्तक स्पीच ऐंड फ़िनोमेनाः ऐंड अदर एसेस ऑन हसर्ल्स थ्यरी ऑफ़ साइन्स में, पाठ और अर्थ के संबंध की चर्चा करते हुए अपने गढ़े हुए शब्द या यूं कहें पहले से मौजूद शब्द में अपनी चिरपरिचित तोड़फोड़ करते हुए “डिफ़रान्स” के हवाले से कहते हैं कि मृत्यु नियत हो जाने की हद तक भिन्नता और स्थगन की हलचल होती है. इसका मतलब ये है कि डिफ़रान्स, उपस्थिति और अनुपस्थिति के विलोम को संभव कर देता है. देरिदा के “डिफ़रान्स” में ‘डिफ़र’ और ‘डिफ़रेंस’ यानी स्थगन और व्यतिरेक (फ़र्क)- दोनों के मिलेजुले भाव हैं. मंगलेश डबराल की कविता भी मानो डिफ़रान्स के इस दर्शन को हासिल करते हुए मृत्यु को एक नयी जगह नयी जुंबिश की तरह देखती है. इस कविता में दुख और निराशा का संसार मृत्यु के शिकंजे में न आने पाता था. प्रेम और अवसाद और स्मृति एक बहुत बड़ी कथा का हिस्सा थे.

अपने ही भीतर मरते जा रहे हैं
जीवित लोग
मैं उम्मीद से देखता हूं मृतकों की ओर
वे ही हैं जो दिखते हैं जीवित

(‘स्मृति एक दूसरा समय है’ संग्रह से)

कोरोना ने परिवारों को घरों तक और लेखकों कवियों को कमरों तक महदूद कर दिया था. उनके कमरे ही उनके बेकरार समय के सबसे निकटस्थ प्रत्यक्षदर्शी होंगे. बाज़दफ़ा वे कमरे न होकर आईनों में बदल जाते होंगे. “रूम फुल ऑफ़ मिरर्स” की तरह और वहां लेखक खुद को ही देखता होगा लगातार सतत. क्या कमरों से किसी की कमियां भी ढूंढी जा सकती हैं. क्या हम मनुष्य मंगलेश को कवि मंगलेश से अलग कर देखने के सूत्र उनके कमरों से चीन्ह सकते हैं या ये एक व्यर्थ की कवायद होगी. क्या वे दोनों अलग अलग हैं. कवि कभी ग़लत हो सकता है, अगर हां तब वो कैसा दिखता है, क्या कमरा उसका वो भाव पकड़ लेता है. क्या वो कैमरा भी होता है.
(Remembering Manglesh Dabral 2021)

मरोड़ा के सामने जो पहाड़ी धार है उसके पीछे है काफलपानी गांव. बचपन में ये दूरियां ऐसे लगती थीं मानो कभी पूरी ही नहीं कर पाएंगें. उकाल चढ़ो, ढलान उतरो सीधे कच्चे पक्के रास्ते पर चलो और ठिकाना दिखता कि बस आने ही वाला है, नहीं आता. प्रमोद भैजी के साथ ऐसी न जाने कितनी यात्राएं मैंने अपनी छठीं-सातवीं-आठवीं से लेकर 12वीं तक की कक्षाओं के दिनों में की हैं. मरोड़ा से टिहरी पैदल. फिर वापस. दोबाटा में आराम और चिलचिलाती धूप में जेपी कंपनी के टीन शेडों पर गिरती धूप जैसे बौछार की तरह गिरती थी. और ऋषिकेश-गंगोत्री राष्ट्रीय राज मार्ग का कोलतार उस रास्ते पर ऐसा गरम लोहे की तरह पांवों से चिपकता जाता था. फिर सिरांय. मालीदेवल, विद्यासागर नौटियाल की जन्मस्थली, गंगा किनारे, जहां भागीरथी नदी उत्तरायण होती थी और फिर मालीदेवल के विशाल मैदान की बगल से फुफकारती हुई बह निकलती थी. वहां से मरोड़ा के लिए पैदल चढ़ाई. जेब में चना, बिस्कुट, टॉफी, यही सब.

ऐसे ही किसी बीहड़ से दिन में हम दोनों काफलपानी की ओर निकले. हमारे कवि का घर. मेरी मामी का मायका. प्रमोद भैजी का नानाघर. जहां से कवि मैदानों की ओर निकल चुका था और उसका लौटना लगभग असंभव होने वाला था. जहां उसके बूढ़े हो रहे माता पिता रहते थे और अक्सर सबसे बड़ी दीदी. हालचाल जानने और कुछ सामान पहुंचाने के लिए भेजा गया था हमें. चीड़ के जंगलों से उसकी पीली पड़ चुकी पत्तियों (पिल्टु) से ढकी चढ़ाई में किसी तरह सहम सहम कर कदम रखते और पांव बढ़ाते हुए चला. धार की नोक पर पहुंचे तो मरोड़ा जैसे एक बिंदु की तरह टिमटिमा रहा था. शाम ढल रही थी और भूत घिरने लगे थे. अब गांव की सीमा के पास थे, जंगल का इलाका अभी कुछ और था. डर के साथ साथ छायाएं कभी भी दबोच सकती थीं. अंधेरा हो गया था और अभ्यस्त प्रमोद भैजी के साथ शहरी बालक मैं लगभग टकराता, नशे में जैसा उनके पीछे हाथ थामे चल रहा था. भैजी भैजी पुकारता हुआ जैसे अंधेरे की नदी पार कर रहे हों. घरों में चूल्हे और लालटेनों की कमजोर ज्वालाएं जैसे थकीहारी अपने नृत्य की आखिरी लहर मे उठती गिरती थीं. अंधेरा उनसे और साफ़ दिखता था. दोनों ‘बूढ़े’ मिले.   ग्राम्य जीवन चेहरे पर इतनी सारी लकीरें उतेर देता है. टटोलकर टटोलकर हाथ मुंह धुला, चाय पी, खाना खाया. बस एक कमरे में पहुंचने की याद है. वहां एक छोटी सी डिबिया जैसी थी जो लैम्प था और वो बहुत नन्ही सी मशाल की तरह उठी हुई कांपती एक लौ थी. माचिस की तीली की रोशनी से बस ज़रा ही ऊंची. अंधकार और सन्नाटे में मोमबत्ती की तरह जलता था दिल, और फिर महसूस की जा सकती थी कविता के जन्म लेने की प्रक्रिया- बांग्ला कवि जीबनानंद दास ने कहा था.

कवि के निधन के बाद जब प्रमोद भैजी ने एक रोज़ काफ़लपानी का दौरा किया और आंखो देखा हाल बताया, और कुछ तस्वीरें उतारीं और मेल पर भेजीं तो उन्हें देखकर जैसे बचपन का कोई कोना खुल गया और वहां उतर गया उन डांडो कांठों में. उन तस्वीरों को देखते देखते, जैसे कम्प्यूटर की स्क्रीन ही एक खिड़की बन जाती, उससे होते हुए उन स्मृतियों में मौजूद हुआ जा सकता था. एक कोहरा एक अंधेरा एक प्रकाश एक नमी और एक सिहरन. और मैं जैसे झूमता हुआ सा कभी नदी में हाथ-पाँव मारता, कभी पहाड़ी ढलान पर फिसलता, कभी बिट्टों पर चढ़ता, कभी किसी पेड़ पर, कभी नाशपाती तोड़ता या आम या कभी किसी झाड़ी में हथेली को मोड़कर कांटों के बीच सरकाता और हिस्सर को टहनी से अलग करता हुआ. कभी मरोड़ा के खेतों में किनारे किनारे फैली हुई बेर की झाड़ियों से बेर इकट्ठा करता हुआ. कभी पानी भरने गाड. लौटते हुए हाथों मे पानी की बाल्टी, सरकंडो के पेड़ों में छिपकर बैठे और कभी भी उड़कर ऐन सिर के ऊपर आ जाने वाले पूंछ वाले सांप और नीचे अजगर की तरह पड़ा हुआ राष्ट्रीय राजमार्ग. सफेद काले रंग का. बचपन एक यातना की तरह गुज़रता था लेकिन ये एक मीठी फांस थी. इससे छूटने का दिल न चाहता था. कहानी की तरह घट रहा था वो जीवन.

कई वर्ष बाद 2004-05 में एक विशाल बांध के साथ टिहरी नगर डूबा, सड़कें डूबीं. खेत घर डूबे, और नये रास्ते बने, घर बने, कारें और बोट्स आयीं. विस्थापन दिल की आखिरी गहराइयों तक हुआ और पुनर्वास भी भरपूर होता रहा. एक विस्थापित स्मृति की जगह एक पुनर्वासित व्यवस्था ने ले ली. मरोड़ा का जादू झील के भीतर चला गया. मालीदेवल पानी में, सिरांय पानी में और काफलपानी को नये राज्य ने सड़कों और निर्माणों से काट दिया. पेड़ों के नीचे से बहता हुआ पानी बह गया और खो गया. कवि की जन्मस्थली उसके घर की तस्वीरों की तरह एक दूसरे समय में चली गयी. अब जो दिखता है वह मेरा ननिहाल मरोड़ा व्यवसाय और महत्त्वकांक्षा और नयी उलझनों और नये तनावों का मरोड़ा है, और वह काफलपानी ग्राम जैसे अब कवि के परिचय में ही रह गया है. एक नीले रंग की और कई झुर्रियों वाली विशाल भैंस वहां पड़ी है, न जाने टससेमस क्यों न होती हुई. उस मकान की दीवार का नीला रंग और किवाड़ और छत की पठालें देखकर लगता है कि मकान खड़ा है, लेकिन किवाड़ खोलकर अंदर जाएं तो वहां सबकुछ गिरा हुआ और नष्ट हुआ पड़ा है. कोठार और आईने से लेकर गद्दों के चीथड़े और दीवार तक- क्या यह जो खाली और उजाड़ और कभी भी गिर जाने वाला सूरतेहाल है वो घर है या कुछ और. और घर के भीतर कमरे कहां विलुप्त हो गए हैं. वो कमरा कहां है जहां मैं रात सोया था. क्या मैं यहां आ चुका हूं. क्या यह जगह वास्तव में है या फिर ये एक फ़रेब है. शायद गांव के घर का ये वही ‘कमरा’ था जिसके बारे में कवि लिख गये थेः

…रोज़ एक पहाड़ धीरे-धीरे
इस पर टूटता है
एक जंगल यहाँ अपने पत्ते गिराता है
एक नदी यहाँ का कुछ सामान
अपने साथ बहाकर ले जाती है
यहाँ देवता और मनुष्य दिखते हैं
नंगे पैर
फटे कपड़ों में घूमते
साथ-साथ घर छोड़ने की सोचते.

(कविता संग्रहः हम जो देखते हैं, 1989, मंगलेश डबराल)

उनकी कविता में घर और उसके कमरे, उसकी दीवारें, उसका जर्जर पिघलता वितान देखा जा सकता है. ‘घर शांत है’ लेकिन उसके भीतर जमा उत्पात और बेचैनियां और उम्मीदें-नाउम्मीदियां ‘दीवारों को धीरे-धीरे गर्म कर रही’ हैं. ‘घर का रास्ता’ दरअसल किसी घर का रास्ता नहीं था. यह अपने ही भीतर मचे घमासान का एक शोक-गीत था. जेम्स बाल्डविन के “जियोवानीज़ रूम” की एक पंक्ति के हवाले से कहें तो कमरे और घर की जर्जरता और बिखराव के निशान आदत, मिज़ाज या हालात में नहीं ढूंढे जा सकते थे, ये मानो एक किस्म की सज़ा थी, एक अवर्णनीय दुख. “भारी मन से चले गये हम, तजकर पुरखों का घरबार, पीछे मिट्टी धसक रही है गिरती पत्थर की बौछार…” (कविताः छूट गया है, संग्रहः हम जो देखते हैं)

कवि अपनी आग में जलता रहा, काफलपानी के घर का चूल्हा बिना आग का रहा और धीरे धीरे ज़मीन में धंस गया. दहकता सिर्फ़ कवि रहा. वह काफलपानी से क़रीब तीन सौ-साढ़े तीन सौ किलोमीटर दूर रहता था लेकिन उसका अतीत आकाशगंगा जितनी दूरी पर था. वह सामंतवादी और ब्राह्मणवादी और ऊंच-नीच वाले भूगोल में प्रसिद्ध लौटकर उसे सहसा रोमांचित नही कर देना चाहता था. क्या यह उसका प्रतिकार था या प्रतिरोध. वह उससे दूर रहकर ही ऐसा कर सकता था. कवि ने अपनी कविता में अपना काफलपानी बना लिया था. वहीं मां पिता की तस्वीरें थीं, बारिश में भीगता परिवार, मां और बहनें थीं, पिता का हारमोनियम था और मां का नमस्कार था. वहीं चाची का भूत था और रास्ते का पत्थर था और वहीं विकल आत्माओं के डेरे थे. वह दूर खड़े प्रेम की तरह उस जीवन को देख रहा था. तभी एक रोज़ उसे पहले बीमारी की बेयक़ीनी, फिर खांसी, बुखार और निमोनिया ने आ दबोचा. उसकी प्राणवायु सूखने लगी और वो ठगा गया. उस जीवन का हरण कर लेने वाली क्या सिर्फ़ मृत्यु थी?!

और इधर, एक बड़ा झपट्टा था. चेहरे धुंधले हो चुके थे और आंखों को कोई चीज़ अंदर ही अंदर काटती जा रही थी. एक कमरे में ऐसे बैठे थे वे लोग जैसे वैन (फ़ान) गॉग की तस्वीर का परिवार. स्थिर, निर्विकार, आँसुओं की धार भी जैसे इस जड़ता और स्तब्धतता को और प्रगाढ़ करती थी. चेहरों की जगह उसी की टेढ़ीमेढ़ी धाराएं थीं. रंग जैसे फैले हुए थे सारे दुख की तरह पूरे इस कमरे पर जो दर्द का कैनवास था और पीला पर्दा पीली चादर और पीले रंग का एक अमूर्त चित्र ही जीवित हो चले थे- फड़फड़ाते हुए. वो जाना समझ ही नहीं आ रहा था.

उसने उनकी एक कविता उठाई और उसे थोड़ा बदलकर इस तरह देखाः सबसे प्रिय लोग जहां होते हैं, अपनी एक जगह बना लेते हैं और वह आसानी से मिटती नहीं. वह कमरा मौजूद है. और वह जगह बनती ही जाती है, जैसे मंगलेशियत का यूनिवर्स फैलता ही जाता है!
(Remembering Manglesh Dabral 2021)

शिवप्रसाद जोशी

शिवप्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और जाने-माने अन्तराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों  बी.बी.सी और जर्मन रेडियो में लम्बे समय तक कार्य कर चुके हैं. वर्तमान में शिवप्रसाद देहरादून और जयपुर में रहते हैं. संपर्क: joshishiv9@gmail.com 

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इसे भी पढ़ें: एक मरा हुआ मनुष्य इस समय जीवित मनुष्य की तुलना में ज़्यादा कह रहा है: मंगलेश डबराल की याद में

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