ध्यान चंद की आत्मकथा की प्रस्तावना लिखते हुए मेजर जनरल ए.ए. रुद्रा ने उन्नीस साल के ध्यान चंद को इस तरह याद किया है – “मैं ध्यान चंद को 1924 से जानता हूँ और उस मैच में मौजूद था जब उसे जादूगर की पदवी दी गयी. झेलम में पंजाब इडियन इन्फैंट्री टूर्नामेंट का फाइनल चल रहा था और उसकी टीम दो गोल से हार रही थी. खेल समाप्त होने में चार मिनट बचे हुए थे जब उसके कमांडिंग ऑफिसर ने चिल्ला कर कहा – “कम ऑन ध्यान! हम दो गोल से पीछे हैं कुछ करो जल्दी!” यह सुन कर ध्यान चंद ने वाकई जल्दी कुछ करना शुरू कर किया और बचे हुए समय में तीन गोल किये और अपनी टीम को जिता दिया. इस मैच के बाद उनकी ख्याति बहुत जल्दी सारे देश में फ़ैली और जब 1926 में भारतीय हॉकी टीम ने ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड में अपना पहला विदेशी दौरा करना था ध्यानचंद उसके स्टार खिलाड़ी थे. कुल 48 मैच हुए जिनमें से भारत ने 43 जीते और टीम द्वारा किये गए कुल 584 गोलों में से अकेले ध्यानचंद के नाम पर 201 थे.
(Remembering Major Dhyanchand)
लाख दफा सुनाईं-दोहराई जा चुकीं वे कहानियां अब घिस पिट चुकीं जो बताती हैं किस तरह सन 1936 के बर्लिन ओलिम्पिक में ध्यानचंद ने नंगे पैर खेल कर फाइनल में मेजबान देश को आठ-एक से हराया था और कैसे इस हार से खीझा-गुस्साया हुआ हिटलर स्टेडियम छोड़ कर चला गया था और कैसे बाद में उसने ध्यानचंद को अपनी सेना में बड़ा ओहदा देने का प्रस्ताव किया था.
ध्यानचंद बर्लिन से पहले भी दो बार भारत को ओलम्पिक में सोने का तमगा दिला चुके थे. 1928 के एम्स्टर्डम खेलों में आस्ट्रिया को 6-0, बेल्जियम को 9-0, डेनमार्क को 5-0, स्वीटजरलैंड को 6-0 और नीदरलैंड को 3-0 से हराकर और 1932 लॉस एंजेल्स खेलों के फाइनल में मेजबान अमेरिका को 24-1 से हराकर भारत ने गोल्ड मेडल जीते थे. लॉस एंजेल्स फाइनल में ध्यानचंद ने आठ गोल किये थे. इसी फाइनल में उनके भाई रूप सिंह ने दस गोल किये. बताया जाता है कि 1928 में जब ओलपिंक में गोल्ड लेकर भारतीय हॉकी टीम बंबई बंदरगाह पहुंची थी तो देश भर से लोग ध्यान चंद की एक झलक देखने को रास्ते भर इकठ्ठा हो गए थे. उस दिन समुद्री जहाज़ों की आवाजाही ठप्प रही.
फ़ौज में सिपाही की नौकरी से अपना करियर शुरू करने वाले ध्यानचंद को एम्स्टर्डम से लौटते ही तबादले पर वजीरिस्तान भेज दिया गया जहाँ हॉकी के मैदान थे ही नहीं. लेकिन जब 1932 के ओलम्पिक की टीम चुने जाने की बारी आई तो सबसे पहला नाम ध्यानचंद का ही लिखा गया. तब तक वे नायक की पोस्ट तक प्रमोट हो चुके थे.
तो 15 अगस्त 1936 को अपनी कप्तानी में बर्लिन ओलम्पिक का स्वर्ण पदक दिलाने वाले ध्यानचंद को सेना में प्रमोशन के लिए दो साल का इन्तजार करना पड़ा जब उन्हें वाइसराय का कमीशन मिला और जमादार का ओहदा मिला. चार साल बाद वे सूबेदार बने. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान उन्हें किंग्स कमीशन दिया गया और 1943 में वे लेफ्टिनेंट बन गए. भारत के आजाद होने पर उन्हें कैप्टन की रैंक मिली. हालांकि यह कहा जाता है कि उन्हें रिटायरमेंट के समय मेजर का पद दिया गया लेकिन इस बारे में साफ़-साफ़ नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनके रिटायरमेंट का 20 मार्च 1957 का सरकारी गजट लिखता है – “Lt. (A/Capt.) Dhyan Chand (IEC 3526), Punjab.”
ध्यान चंद की आत्मकथा ढूंढ-खोज कर पढ़िए. उनसे ज्यादा विनम्र चैम्पियन आपको दूसरा नहीं मिलेगा. ऐसी असाधारण उपलब्धयों को हासिल कर चुकने के बाद भी वे अपना परिचय यूं देते हैं – “निस्संदेह आप जानते हैं कि मैं एक साधारण मनुष्य पहले हूँ और उसके बाद एक सिपाही. मेरे बचपन से ही मुझे ऐसी तालीम दी गयी है कि पब्लिसिटी और चकाचौंध से दूर रहूं.मैंने एक ऐसा पेशा चुना जिसमें हमें सिपाही बनाना सिखाया जाता था. और कुछ नहीं.”
(Remembering Major Dhyanchand)
जिस समय ध्यानचंद अपने खेल से समूचे देश के निवासियों को हिन्दुस्तानी होने के नाते गर्व करने की वजहें दे रहे थे, मीडिया का वैसा प्रचार नहीं था. इक्का-दुक्का रेडियो और अखबारी समाचारों से उनकी उपलब्धियों की ख़बरें आमजन तक पहुँचती थीं और आग की तरह फ़ैल जाया करती थीं. हॉकी अगर देशप्रेम का प्रतीक बना तो ध्यानचंद की वजह से.
इस सिलसिले में मुझे एक बड़ी शानदार डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘फायर इन बेबीलोन’ की याद आ रही है. वेस्ट इंडीज क्रिकेट के इतिहास को उसके सामाजिक-राजनैतिक तानेबाने की सान पर परखने वाली, स्टीवन राइली की 2010 में बनाई इस असाधारण डॉक्यूमेंट्री में उस दौर का जिक्र है जब उन कैरिबियाई द्वीपों पर ब्रिटिश शासन था और एक से एक बड़े काले क्रिकेटरों की कप्तानी गोरा ही किया करता था. ऐसे में फ्रैंक वॉरेल के पहले काले कप्तान बनने की महत्ता को स्वतंत्रता प्राप्ति से कम नहीं आंका गया. क्रिकेट में देवता की हैसियत रखने वाले विवियन रिचर्ड्स उस समय को याद करते हुए बहुत भावुक हो जाते हैं और बताते हैं किस तरह क्रिकेट ने उनके जनसाधारण की अस्मिता को गौरव बख्शा. मुझे पक्का यकीन है अगर ध्यानचंद के जीते-जी भारत में हॉकी के इतिहास पर चालीस-पचास साल पहले ऐसी कोई फिल्म बनी होती तो वे भी रिचर्ड्स की तरह कोई ऐसी बात बताते. लेकिन यह भारत है.
अपने जीवन के अन्तिम दिनों में ध्यान चन्द भारतीय हॉकी की स्थिति को लेकर मोहभंग की स्थिति में थे. वे कहा करते थे, “हिन्दुस्तान की हॉकी खतम हो गई. खिलाड़ियों में डिवोशन नहीं है. जीतने की इच्छाशक्ति खतम हो गई है”
(Remembering Major Dhyanchand)
अन्तिम दिनों में ध्यान चन्द को कई सारी स्वास्थ्य समस्याएं हो गई थीं. जिस तरह उनके देशवासियों ने, सरकार ने और हॉकी फ़ेडरेशन ने उनके साथ पिछले कुछ सालों में सुलूक किया था, उसका उन्हें दुःख भी था और शायद थोड़ी कड़वाहट भी. अपनी मृत्यु से दो माह पूर्व ध्यान चन्द ने एक वक्तव्य दिया था जिससे उनकी तत्कालीन मनस्थिति का पता चलता है, “जब मैं मरूंगा तो दुनिया शोक मनाएगी लेकिन हिन्दुस्तान का एक भी आदमी एक भी आंसू तक नहीं बहाएगा. मैं उन्हें जानता हूं.”
उनकी मृत्यु से कोई छः महीने पहले उनके अभिन्न मित्र पं. विद्यानाथ शर्मा ने उनके समक्ष विश्व भ्रमण का प्रस्ताव रखा. उन्हें आशा थी कि ऐसा करने से यूरोप और अमेरिका के हॉकी प्रेमियों से ध्यान चन्द की मित्रता पुनर्जीवित होने के साथ साथ इस महानायक को दोबारा से सार्वजनिक स्मृति का हिस्सा बनाया जा सकता है. टिकट तक खरीद लिए गए थे लेकिन ध्यान चन्द कहीं भी जा पाने की हालत में नहीं थे. ध्यान चन्द के मित्रों ने उनसे यूरोप आकर अपना इलाज करवाने का निवेदन किया पर उन्होंने यह कहकर इन्कार कर दिया कि वे दुनिया देख चुके हैं.
1979 के अन्तिम महीनों में उनके सुपुत्र और देश का प्रतिनिधित्व कर चुके अशोक कुमार हॉकी खेल रहे थे जब उन्हें पिता की खराब स्थिति का पता चला. ध्यान चन्द को झांसी से दिल्ली लाया गया और ऑल इन्डिया इन्स्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ में भर्ती कराया गया. इन आख़िरी दिनों में भी वे अक्सर हॉकी की ही बातें किया करते थे. उन्होंने अपने परिजनों को अपने मेडलों का ध्यान रखने को और यह सुनिश्चित करने को कहा कि कोई भी उनके कमरे में न जाए क्योंकि कुछ समय पूर्व कोई सज्जन उनके कमरे से कुछ मेडल चुरा ले गए थे. इसके अतिरिक्त उनका ओलिम्पिक में जीता हुआ स्वर्ण पदक झांसी में एक प्रदर्शनी से चुरा लिया गया था.
एक बार उनके डॉक्टर ने उनसे पूछा, “भारतीय हॉकी का भविष्य क्या है?” ध्यान चन्द ने जवाब दिया “भारत में हॉकी खतम हो चुकी है.”
“ऐसा क्यों है?” डॉक्टर ने पूछा तो ध्यान चन्द बोले “हमारे लड़के बस खाना भकोसना चाहते हैं. काम कोई नहीं करना चाहता.”
ऐसा कहने के कुछ ही समय बाद वे कोमा में चले गए और कुछ ही घन्टों के बाद 3 दिसम्बर 1979 को उनका देहान्त हो गया. उनके शरीर को उनके गृहनगर झांसी ले जाया गया जहां झांसी हीरोज़ ग्राउन्ड में इजाज़त मिलने में आई कुछ अड़चनों के बाद उनका दाह संस्कार किया गया. ध्यान चन्द की रेजीमेन्ट, पंजाब रेजीमेन्ट ने उन्हें पूर्ण सैनिक सम्मान दिया.
अशोक कुमार को भारतीय हॉकी अधिकारियों के हाथों एक अन्तिम ज़िल्लत यह झेलनी पड़ी कि उन्हें 1980 के मॉस्को ओलिम्पिक के तैयारी शिविर में भाग लेने से रोक दिया गया. अशोक कुमार पिता के श्राद्ध में व्यस्त रहने के कारण समय पर कैम्प नहीं पहुंच सके थे. भीषण कुण्ठा और अपमान के चलते अशोक कुमार ने उसी दिन हॉकी से सन्यास ले लिया.
आधुनिक समय के एक और शानदार खिलाड़ी और ज़बरदस्त लेफ्ट आउट जफ़र इकबाल के हवाले से यह बात पढ़ने को मिलती है कि जब ध्यानचंद के परिवार की सहायता के लिए दिल्ली के शिवाजी स्टेडियम में एक चैरिटी मैच आयोजित किया गया तो कुल 11,638 रुपये इकठ्ठा हुए.
इस तरह इतनी बड़ी रकम जुटा कर कृतज्ञ राष्ट्र ने उनके प्रति अपना फर्ज निभाया और तय किया कि हर साल दद्दा ध्यानचंद को उनके जन्मदिन पर याद करेंगे और उन्हें भारत रत्न दिए जाने की मांग करेंगे.
(Remembering Major Dhyanchand)
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हम भारतीयों के लिए प्रत्येक अवसर सिर्फ प्रतीात्मकता प्रदर्शित करने और अपनी पब्लिसिटी का मौका ढूंढने वाला क्षण रह गया है । जब दिल से इज्जत की बात आती है तो 11638/- रुपए इकत्रित होते हैं ।