समाज

गिर्दा: जनता के कवि की दसवीं पुण्यतिथि है आज

गिरदा भौतिक रूप से आज हमारे बीच में नहीं हैं एक शरीर चला गया लेकिन उनका संघर्ष, उनकी बात, उनके गीत, उनकी लोक नाटकों में उठाये गये मुद्दे और जो कुछ वह समाज को दे गये वह सारा कुछ हमेशा जनसंघर्षों को ऊर्जा देता रहेगा. गिरदा आम जन की हर लड़ाई में संघर्ष के गीत गाते रहेंगे जनता के पक्ष के कवि की आवाज हमेशा जिन्दा रहेगी.
(Remembering Girish Chandra Tiwari Girda)

गिरदा की अन्दाजे बयानी का भी जवाब नहीं था. कहते हैं कि गालिब का है अन्दाजे बयाँ और गिरदा कविता को इस दरजा से परफॉर्म करते थे कि उनकी वाणी से निकला एक-एक लफ्ज सीधे से सुनने वाले के दिल में उतर जाता था. कविता की एक-एक पंक्ति, शब्द और उनके व्यापक अर्थों को वह अपनी अन्दाजे बयानी और हाव-भाव में चित्र रूप में साकार हो. अपनी जादुई बुलन्द आवाज में सुर-लय-ताल के साथ उनके शरीर का एक-एक अंग बोलता था. कविता चाहे मंच या सड़क पर, उनकी प्रस्तुति हर जगह जिन्दा और बोलती हुई होती थी जो श्रोताओं को अपने साथ बहा ले जाती थी.

उत्तराखण्ड आन्दोलन जब अपने पूरे शबाब पर था और सभी सांस्कृतिक संस्थाएं, कलाकार, रंगकर्मी, कवि आदि अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने गीत, संगीत नाटक के जरिये आन्दोलन को तेल, पानी दे रहे थे और पूरा जनमानस इस ऊर्जा से चार्ज था. उस समय नैनीताल समाचार के उत्तराखण्ड बुलेटिन में आन्दोलन की सही खबरों के लिए खूब भीड़ जुटती थी. इस बुलेटिन में गिरदा की उपस्थिति और ही समाँ बाँध देती थी. उत्तराखण्ड काव्य पर स्वयं गिरदा ने बहुत सटीक टिप्पणी की है.
(Remembering Girish Chandra Tiwari Girda)

यह काव्य या कि यह गीत पंक्तियाँ च्यूंकि नहीं बनती प्रतिदिन
नुक्कड़ गाने गीत
गा कर खबर सुनाते
आन्दोलन मुखर बनाने
इसलिए इन्हें हू ब हू
बहुत मश्किल
हरुफों में लिख पाना
जैसे कोई लोक काव्य.

गिरदा परिपक्व दृष्टि वाला एक ऐसा जनकवि था जो जनता के खिलाफ होने वाले हर षडयंत्र के विरुद्ध ताल ठोक कर खडा था.

उत्तराखण्ड की
आज की लड़ाई यह जो
हम लड़ रहे सभी
सीमित हरगीज उत्तराखण्ड तक
इसे नहीं
साथी समझो
यदि सोच संकुचित हुआ कहीं
तो भटक लड़ाई जाएगी
इसलिए
खुले दिल और दिमाग से
मिलों
लड़ना है इसको.

गिरदा ने इस सड़ी गली व्यवस्था के खिलाफ हमेशा ही टिप्पणी की है –

हालते सरकार ऐसी हो पड़ी तो क्या करें
हो गई लाज़िम जलानी झोपड़ी तो क्या करें.
गोलियाँ कोई निशाने बाँध कर दागी थी क्या  
खुद निशाने पर पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें?

 या उनकी उलट वाँसियाँ – ये उलट वासियों नहीं कबीरा, खालिस चाल सियासी या – ‘इस वक्त जब मेरे देश में/पेश किये जा रहे हैं पेड़, पेड़ों के खिलाफ जनता के खिलाफ जनता/पानी के खिलाफ हर जगह गिरदा अपनी कविता में लोगों को एक व्यापक दृष्टि देते हुए दिखाई देते थे.

गिरदा एक प्रतिबद्ध सांस्कृतिक व्यक्तित्व और रचनाधर्मी था. गीत, कविता, नाटक, लेख, पत्रकारिता, गायन, संगीत, निर्देशन, अभिनय आदि. यानि संस्कृति का कोई आयाम गिरदा से छूटा नहीं था. मंच से लेकर फिल्मों तक में लोगों ने गिरदा की क्षमता का लोहा माना. उन्होंने ‘धनुष यज्ञ’ और ‘नगाड़े खामोश हैं जैसे कई नाटक लिखे, जिससे उनकी राजनीतिक दृष्टि का भी पता चलता है.
(Remembering Girish Chandra Tiwari Girda)

नाट्य मंचन में भी प्रकमबद्ध और व्यापक दृष्टि का दर्शन होता है. गिरदा ने नाटकों में लोक और आधुनिकता के अद्भुत सामंजस्य के साथ अभिनव प्रयोग किये और नाटकों का अपना एक पहाड़ी मुहावरा गढ़ने की कोशिश की. पहाड़ी (पारम्परिक) होलियों को नागिरदा ने न केवल एक नया आयाम दिया, बल्कि इस गौरवशाली परम्परा को और व्यापक फलक तथा दृष्टि दी और कई नये प्रयाग भी किये. होली गीतों को भी अपनी प्रयोगधर्मी दृष्टि से सामयिकता दी.

झुकी आयो शहर में व्योपारी
पेप्सी कोला की गोद बठी,
संसद मारे चिपकारी.
दिल्ली शहर में लट मची है
आयो विदेशी व्योपारी.

गिरदा ने हमेशा जनता के दुख-दर्दों को आवाज और लड़ने का साहस जगाया, आशावाद की प्रेरणा दी. जैसा कि हम सभी की और गिरदा का भी चाहना है कि आएँगे उजले जरूर. इसलिए गिरदा ने साहिर और विश्व महाकवि फैज के साथ अपने को एकाकार कर लिया था.

‘ततुक की लगा उदेख, घुनन मुनइ नि टेक
जैंता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में.

उन्होंने फैज की कई रचनाओं का कुमाऊँनी में, लेकिन यहीं के मूल मुहावरों और खुशबू के साथ ऐसा सुन्दर भावानुवाद किया, का मिसाल दुर्लभ है. विश्व दृष्टि के साथ गिरदा अपनी मिट्टी की खुशबू, यहाँ के लोगों, पहाड़ों, नदियों, पेड़ों और हिमालय कभी नहीं भूलें. यहाँ का वातावरण उनकी साँसों में बसता था.

उत्तराखण्ड मेरी मातृभूमि
मातृभूमि मेरी पितृभूमि
भूमि तेरी
जय जय कारा
म्यर हिमालो.
(Remembering Girish Chandra Tiwari Girda)

वरिष्ठ रंगकर्मी जहूर आलम का यह लेख श्री नंदा स्मारिका 2011 से साभार लिया गया है.

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