समाज

ल्वेशाल इंटर कालेज में नवीं में पढ़ने वाली ईशा और उसकी पिरूल की टोकरियां

दूर कहीं किसी पर्वतीय अंचल में पतली-पतली पगडंडियों पर चलता हुआ एक अलग सा जुड़ाव व खिंचाव लगता है कदमों में. पहले पहल तो मैं इसे थकावट व ऊबासी लेती हुई चाल समझ रहा था. पर ये थकावट की चाल नहीं वरन् कुछ अलग सा अहसास था.  समझ नहीं पा रहा था क्या नाम दूं इसे. बड़े सोच-विचार के बाद ये मुझे मिट्टी का खिंचाव लगा. कारण हर बढ़ते हुए कदम के साथ मिट्टी की सिलवटें मुझे कहीं न कहीं अपनी ओर आकर्षित कर रही थी.  (Isha and her Basket)

तभी इन ऊंचे-ऊंचे डानों मे एक सीधी सपाट रेखा में तथा कुछ तिरछी रेखाओं मे बने पाथर के बने मकान दिखाई दिये. हालांकि जिस गांव की ओर मेरी यह चहलकदमी थी, वह टूटे-फूटे सड़क मार्ग से जुड़ा था. पर मिट्टी का खिंचाव पैदल ही मुझे जाने के लिये कहने लगा. सड़क गांव के बीचों-बीच जरुर थी, पर कई पाथरों के आंगन आज भी सड़क से बहुत दूर है. (Isha and her Basket)

प्राकृतिक छटाओं से भरपूर यह क्षेत्र नैनीताल जिले व अल्मोड़ा जिले की सीमा से लगा रामगढ़ ब्लाक का ग्राम खैरदा है. शहरी चकाचौंध से दूर आज भी यहां के लोगों का प्रकृति से जुड़ाव स्पष्टतया दिखता है. आज भी लहजे में कुमाऊँनी खनक सुनाई देती है और ग्रामीण परिवेश मे प्रकृति से उन्मुक्त प्रेम भी स्पष्टया दिखता है. हालांकि सरकारी उदासीनता व दूरस्थ होने के कारण मूलभूत सुविधाओं का अभाव भी दिख जाता है. पर उन सुविधाओं के लिये संघर्ष तो दिखता है, पर पीड़ा भी एक मृदुल मुस्कान में नजर आ जाती है. 

इस गांव में वैसे तो बहुत कुछ जानने और समझने को है, पर मेरा ध्यान यकायक एक छोटी बालिका की ओर चला गया. समीपवर्ती निकटतम इंटर कालेज ल्वेशाल में पढ़ने वाली कक्षा नौ की छात्रा ईशा आर्या पर.  भोली व मृदुल मुस्कान लिये हुऐ इस नन्ही सी बालिका के समीप जब मैं गया तो वो घास को बिन रही थी, उत्साहित हो मैंने पूछा क्या कर रही हो बेटा? मधुर से कंठ से आवाज निकली डलिया (टोकरी) बना रही हूं.

मैं आश्चर्यचकित हो उसे देख ही रहा था और चंद मिनटों मे उसने डलिया की प्रतिकृति बना भी ली  और चंद मिनटों मे उसे पूर्ण भी कर लिया. तब और भी आश्चर्य हुआ जब पता चला कि ये पिरुल (चीड) की पत्तियों से बनी हुई है.  

अहा! इतनी सुंदर और सटीक बनावट. पता करने पर पता चला कि वो इनसे और भी कलाकृति बना सकती है और जब उसकी बनी और कृतियां भी देखी तो उसकी प्रतिभा का वास्तविक दर्शन हुआ. पूछने पर उसने बताया कि उसने यह अपनी ताईजी से सीखा है जो ऐसी ही सुन्दर डलिया बनाती है और साथ में उसके मामा की लड़की किरन आर्या भी इसे बना लेती है. सच कहूं तो गांधीवादी दर्शन की क्रियात्मक शोध पद्धति जीवित होते हुऐ दिखी मुझे.

आज के युग में जब बच्चे मोबाइल व इंटरनेट से बाहर नही निकल पाते, आज भी गांव के ये बच्चे अपने प्राकृतिक परिवेश से कितने जुड़े हुऐ हैं और न केवल सीख रहे हैं, वरन् इसे हस्तांतरित भी कर रहे है, एक सुखद अहसास है.  

प्लास्टिक के विकल्प के रुप मे यदि इस कला को प्रोत्साहन दिया जाये तो भावी पीढ़ी व पर्यावरण के लिये भी एक वरदान साबित हो सकता है.

प्लास्टिक की कंडियों की जगह, पिरुल की कंडिया,  सब्जी, फल-फूल की की प्लास्टिक की टोकरियों की जगह ये पिरुल की टोकरियां,  मंदिर इत्यादि मे जाते समय प्लास्टिक व स्टील के बर्तन मे सजी पूजन साम्रागी की जगह पिरुल के बर्तन मे सजी पूजन सामाग्री आदि माध्यमों से न केवल हम प्लास्टिक व पर्यावरण प्रदूषण से छुटकारा पा सकते हैं, बल्कि अपने परिवेश व प्रकृति से जुड़ाव का एक सुखद अहसास भी महसूस कर सकते हैं.

ईशा द्वारा बनाई गयी टोकरियां देखिये :

नैनीताल के संदीप कुमार पेशे से शिक्षक हैं और एक शोधार्थी के रूप में इतिहास के छात्र भी. इनकी कई कविताएँ, लेख व शोध विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.

राजपुष्प ब्रह्मकमल और लोकपुष्प फ्यूंली

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

View Comments

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago