एक बड़े शहर के एक बड़े कला केंद्र में कठपुतली समारोह का आयोजन किया गया. अनेक अभिवावक अपने छोटे-छोटे बच्चों को यह समारोह दिखाने के लिये लाए. आगे की सीटें मुख्य अतिथि, सचिव, उपसचिव, सहायक सचिव, अतिरिक्त सचिव, आयुक्त, उपायुक्त, सहायक आयुक्त, के लिये आरक्षित थीं. बच्चों को उनके पीछे बैठना था. कुछ ही देर में उपरोक्त शासकीय महानुभाव भी वहाँ पधारने लगे. (Puppet Show Satire Priy Abhishek)
कठपुतली समारोह में पधार रहे सरकारी कर्मचारियों को देख कर लगा कि कठपुतलियां स्वयं कठपुतलियां देखने आई हैं. वे सब सधे हुए नपे तुले कदमों से चल रहे थे. बड़े अधिकारी के पीछे छोटा अधिकारी. वे जब चलते थे तो हाथ पीछे बांध लेते थे ,और जब खड़े होते थे तो आगे. उनमें से जो सबसे वरिष्ठ था, केवल उसके ही हाथ खुले थे. फिर वे उसी कठपुतली के अंदाज़ में हाथ हिला कर अपने से वरिष्ठ अधिकारी से बैठने का निवेदन करने लगे. जब वे सब बैठ गए तो उद्घोषक ने कहा- अब आप उठ जाइये और दीप प्रज्ज्वलित करिये. ( Puppet Show Satire Priy Abhishek )
कठपुतलियां पुनः क्रम से खड़ी होने लगीं. वहाँ पहुँच कर याद आया कि द्वीप प्रज्ज्वलन हेतु माचिस कहाँ है? यह सुन कर कुछ धावक ,जो किसी भी आयोजन में दौड़ने के लिये रखे जाते हैं ,दौड़ने लगे. वे जब धावक के रूप में नियुक्त किये गये थे उस समय उन्होंने आयोजकों से पूछा था कि हमारा काम क्या होगा?
आयोजकों ने कहा कि कार्यक्रम में आपको थोड़ी-थोड़ी देर में इधर से उधर दौड़ना होगा. कभी गलियारों में ,कभी वीथिकाओं में . कभी सीटों के बीच से ,तो कभी मंच के सामने से. और जब दौड़ न रहे हों तो नेपथ्य से दौड़ने की धम-धम आवाज़ें निकालते रहें. कार्यक्रम सरकारी है तो दिखना चाहिये कि काम हो रहा है. बहरहाल माचिस लाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी.
मुख्य अतिथि एक मँजा हुआ मुख्य अतिथि था. उसे मुख्य अतिथि बनने का वर्षों का अनुभव था. उसने तत्काल जेब से लाइटर निकाला और दीप प्रज्वलित कर दिया. मुख्य अतिथि धूम्रपान नहीं करता था, केवल दीप प्रज्वलित करता था. सब वापस अपने स्थान पर बैठने लगे तो मुख्य अतिथि ने आयोजकों के कान में कहा – माला नहीं पहनाओगे?
‘माला?’ एक आयोजक ने दूसरे आयोजक की ओर देखा. ‘माला?’ दूसरे आयोजक ने तीसरे आयोजक की ओर देखा. ‘माला?’ तीसरे आयोजक ने धावकों की ओर देखा. चार-पाँच धावक फिर से दौड़ने लगे. फ़िर नेपथ्य से धम-धम की आवाज़ें आना शुरू हो गईं. समय बढ़ रहा था. मुख्य अतिथि ने एक आयोजक के कान में कहा – स्टोर रूम से लग कर जो लोहे की रैक है न , उस पर जो सुबह जो तुम्हें पहनाई थीं ,वो मालाएं रखी हैं. आयोजक के इशारे पर फिर एक धावक दौड़ गया. मालाएं आ गईं. ( Puppet Show Satire Priy Abhishek )
मालाएं पहना कर सब चलने लगे तो मुख्य अतिथि ने पुनः आयोजकों के कान में कहा – भाषण नहीं कराओगे?
‘भाषण?’ माला की तरह यह शब्द भी प्रश्नवाचक चिह्न के साथ पदसोपान में ऊपर से नीचे तक गया. और धावक लोग फिर दौड़ने लगे. इस बार मुख्य अतिथि ने पहले ही धावकों को चिल्ला कर सावधान कर दिया -‘इलेक्ट्रिक रूम में खिड़की के बगल वाले कंट्रोल पैनल पर दो नम्बर का बटन खोल देना. पैनल के तार माचिस की तीली से ही लगेंगे. माचिस उसी की दराज में है. नालायक!’
माइक चालू हो गया और उसके साथ भाषण भी.
‘साथियों हम सब यहाँ कठपुतली का तमाशा देखने आए हैं. वैसे तो ये दुनिया भी एक तमाशा है और हम सब कठपुतलियां……..’
भाषण जारी है. इस बीच मेरी निगाह आगे बैठे लोगों पर जाती है. क़रीब पाँच साल पहले भी ये लोग यहीं थे. आज भी यहीं है. ये कला के सच्चे संरक्षक हैं. कला के संरक्षण के लिये व्यक्ति पहले संस्था को संरक्षित करता है, उसके बाद उस संस्था में स्वयं को संरक्षित करता है. और इस प्रकार कला संरक्षित हो जाती है. यह कहना गलत है कि वे संस्था से जुड़े हैं. दरअसल उन्हें संस्था पर ग्राफ्टिंग कर के लगाया गया है. वे संस्था के कलमी सदस्य हैं. वे संस्था के साथ ही फलेंगे-फूलेंगे ,संस्था के साथ ही मुरझायेंगे. उनका मज़ार संस्था के प्रांगण में ही बनेगा. उनके चेले उस पर चादर चढ़ाएंगे. वैसे संस्था कहने की बजाय उसे मठ कहना अधिक उचित है. संस्थाओं में जब व्यक्ति स्थायी हो जाते हैं तो संस्थाएं मठ बन जाती हैं. वे धावक ही उनके चेले हैं जो आगे मठाधीश बनेंगे.
‘ सरकार कुछ ऐसे लोगों को मुख्य अतिथि के रूप में आगे बढ़ा रही है जो अभी कल ही मुख्य अतिथि बने हैं’ – भाषण जारी है -‘ ये सरकार संस्थाओं को नष्ट करना चाहती है. फासीवादी है ये सरकार …….’
मेरे बगल में बैठे सज्जन ने किसी को फोन लगाया -‘ यार तुमसे बोला था मौर्या को दो-तीन कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि बना लेना. यहाँ उल्टा-सीधा बोल रहा है. अब मंत्री जी मुझ पर नाराज़ होते हैं. उसके विज्ञापन भी क्लियर करवाओ!’ ( Puppet Show Satire Priy Abhishek )
इधर मुख्य अतिथि का भाषण जारी है-‘हमने अपना पूरा जीवन मुख्य अतिथि बनने में लगा दिया. अरे मुख्य अतिथि बनना एक साधना है. तपस्या है. बहुत त्याग करना पड़ता है…..’
सभ्य लोग धैर्य से उनका भाषण सुन रहे थे, सिवाय बच्चों के. बच्चे किसी स्थापित नियम, कानून, परम्परा, शिष्टाचार ,रूढ़ि-प्रथा आदि को नहीं जानते हैं.
‘काँ है कतपुल्ली? ये है कतपुल्ली?’ एक बच्चे ने मुख्य अतिथि की ओर इशारा करके पूछा.
‘नहीं बेटा, ये कठपुतली नहीं है. कठपुतली अभी आएगी.’ बच्चे की माँ ने उत्तर दिया. बच्चे की आवाज़ बुलंद थी. मुख्य अतिथि का ध्यान थोड़ा भंग हुआ पर उन्होंने अपना भाषण जारी रखा.
‘मैं इछके घूंछा माल दूँ?’ एक दूसरे बच्चे ने खड़े होकर हवा में मुट्ठी लहराते हुए पूछा. उसके पिता ने उसको पकड़ कर बिठा दिया. वह प्रतिरोध में ज़ोर से रोने लगा. मुख्य अतिथि अब हकलाने लगे थे.
‘ह..ह..हमें संस्थाओं को नए मुख्य अतिथियों से बचाना होगा. ये घु…घु…घुसपैठिये हैं.’
‘मैं इछके घूंछा माल दूँ?’ बच्चे ने पुनः पूछा. ‘अब तो मैं पक्का माल दूँगा.’ और निर्णय सुना दिया.
‘कतपुल्ली छे मिल्ना है’, वो पहला बच्चा दहाड़ें मार कर रोने लगा. कुछ बच्चे अपने अभिवावकों से आज़ाद होकर गलियारे में दौड़ने लगे. छू-छू आई है, पॉटी आई है- के उद्घोष हो रहे थे. अब मुख्य अतिथि नन्हे बच्चों से भयभीत दिख रहे थे. यह सब शोर-शराबा चल ही रहा था कि तभी एक भीषण दुर्घटना हो गई.
लोग बताते हैं कि वो कोई बहुत बड़े अधिकारी थे. घटना के बाद सभी चोपड़ा साब-चोपड़ा साब कह कर उनके पीछे दौड़े थे. अतः उनका नाम चोपड़ा साब था. वे सबसे आगे वाली पंक्ति में, मध्य वाली सीट पर बैठे थे. एक विद्रोही प्रकार का बच्चा लुकता-छुपता उनकी सीट के ठीक पीछे पहुँचा और उनके सिर पर ज़ोर की चपत लगा कर बोला -धप्पा! इस चपत से उन अधिकारी महोदय के सिर के बाल उनके बगल में बैठी एक सुंदर महिला की गोदी में जा गिरे. पीछे बैठे बच्चे ज़ोर से हँस कर ताली बजाने लगे. ‘कतपुल्ली गंजू है, हौss..’ एक बच्चा बोला. कुछ बच्चे तकलू-तकलू कह कर चिल्लाने लगे. उन बच्चों के अभिवावक उनको समझा रहे थे ,पर वे कहाँ सुनने वाले थे. वे अधिकारी महोदय क्रोध में उठ कर बाहर चल दिये. पीछे-पीछे एक आयोजक सर-सर करता हुआ उनकी विग लेकर भागा. ये दृश्य देख मुख्य अतिथि बचा-खुचा भाषण भी भूल गए. ( Puppet Show Satire Priy Abhishek )
उनकी आँखों के सामने से उनके श्रीविग्रह रूठ कर जा रहे थे. एक बच्चा मंच पर पहुँच कर उनका माइक हिलाने लगा. अब कला के संरक्षण का प्रश्न उत्पन्न हो गया था. भाषण क्या ,अब वे सुध-बुध भी खो बैठे थे. ‘स.. स..साथियो दिनकर की इन पंक्तियों के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ-
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे.
धन्यवाद.'
इतना कह कर वे मंच से उतर कर चोपड़ा साब-चोपड़ा साब कहते भागे. आगे की कुर्सियां खाली हो गई थीं जिन पर बच्चों ने अपना कब्ज़ा जमा लिया. कठपुतली का नाच शुरू हुआ.
प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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