Featured

पहाड़ से प्लेन्स आने के बाद की वह न भूलने वाली पहली दीवाली

पिताजी का तबादला अगस्त, 1972 में जोशीमठ से काशीपुर हुआ था. पहाड़ से उतरकर पहली बार प्लेन्स देखा. हर चीज हमारे लिए नयी और अजूबी. रिक्शा, रेलगाड़ी, पिक्चर हाल, सरदार, गन्ना, गोलगप्पे, आइसक्रीम और भी बहुत कुछ हमने देखा-सुना ही नहीं था. पहले के 6 माह महेशपुरा मौहल्ला में रहे. बडी-बडी दीवारों से घिरा मकान, जिसमें कई पपीते और अमरूद के पेड थे. चारदीवारी से घिरा मकान हमने पहली बार देखा. पहाड़ में चारदिवारी का रिवाज था ही नहीं, अब भी नहीं है. इसलिए माहौल बंद और घुटा-घुटा सा लगता. मां पिताजी से रोज कहती – ‘वापस पहाड चलो’. (Diwali Memoir Arun Kuksal)

काशीपुर आने पर पिताजी को महीनों तक वेतन नहीं मिल सका. मां की अपनी गुप्त जमा पूंजी रोज के खर्चों में खत्म हो गई. नवम्बर में दिवाली आ गई. लोगों से जान-पहचान न होने के कारण पिताजी का किसी से उधार मांगने मे संकोच आड़े आ जाता. स्कूल जाते-आते हम भाई-बहिन देखते कि दशहरे से ही बाजार नये और भयंकर पटाखों से, जो हमने जोशीमठ में देखे भी नहीं थे, सजने लगा था. पटाखों के अलावा भगवानजी से लेकर हीरो-हीरोइन की रंगीन तस्वीरों वाले कलेंडर हमारी पहली पसंद थे. उस समय साल में केवल दशहरे-दीवाली में ही बाजार में रंगीन कलेंडर दिखाई देते थे. मैने लक्ष्मी-सरस्वती और गणेश वाली तस्वीर के अलावा और भी कई कलैंडर मन में पसंद कर के रखे थे. काशीपुर में उन दिनों फिल्मी हीरो धर्मेंद्र का बहुत क्रेज था. धमेैद्र अक्सर काशीपुर आते थे. लिहाजा उनका कलेंडर खूब बिकता था. अपने को भी लेना था. पर खरीदें कैसे ? घर में पैसे तो थे नहीं. (Diwali Memoir Arun Kuksal)

उस घर से बाहर जाने के लिए एक लम्बा आंगन पार करना होता. हमारे घर के बड़े गेट को खोलते ही सड़क पर फैली दीवाली की दुकानें मुंह चिढ़ातीं. कई मनचाही चीजों के साथ ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ कलेंडर में तेल से खोलती कढाई में मुसंडों के हाथों उल्टा लटका आदमी दिखता तो मैं और छोटी बहिन शोभा डर के मारे चट से वापस अपने घर के गेट को बंद कर देते.

पिताजी को उम्मीद थी कि मां के पास अब भी कुछ न कुछ पैसे जरूर होंगें. मां ने झुंझलाकर जब ‘भै क सौं नि छिन’ (भाई की सौंगध नहीं है) कहा तो हमारे भी हाथों के तोते उड गए. पिछले कई दिनों से वह मना करती कि पैसे नहीं है, पर फिर कुछ न कुछ उसके पास निकल ही आता. हमें भरोसा था, मां के पास हमारे पटाखों लायक पैसे तो निकल ही जायेगें. पर उसके पास कोई अक्षय पात्र तो था नहीं जो खाली ही न हो.

छोटी दिवाली के दिन आने तक मेरे और तीनों बहिनों के अपने-अपने गुल्लकों की कुबेर के खजाने जैसी अपार दौलत भी जबाब दे गई. हमें मालूम था कि मां को खराब लग रहा होगा. वो दिन भर उदास और रोती रहती. मां को खुश रखने के लिए हम भाई-बहिन आपस में ही मस्ती-मस्ती में कई खेल कर रहे होते. फिलहाल छोटी दिवाली को दिन में ही लक्ष्मीजी की एक पुरानी तस्वीर को हमने नया जामा पहनाकर दुरस्त कर लिया था. परन्तु फिर भी दीवाली के दिन ‘बिन पैसा सब सून’ चरिताथॅ’ हो रहा था. मन पटाकों, फुलझडी, चरखाी, रंगींन मोमबत्ती, अनार अर भगवानजी और हीरो-हिरोइन की फोटुओं में अटका पडा था. वो घर पहले की किसी हवेली का हिस्सा था. चारों तरफ बडी ऊंची दीवारों से घिरा. दीवार पार के लोग नहीं दिखाई देते. पर उस घर के दीवार पार चारों ओर से कई दिनों और रातों से कमवक्त पटाकों की ही धमाकेदार आवाज और बाद में बच्चों की सामुहिक चिल्ल-पों सुनाई देती थी. ऊंचे आकाश में जाते दीपावली के राकेट तब लगते कि हमारे दिलों को ही चीर कर जा रहे हैं. छोटी दिवाली को मैने और शोभा ने दीवार पार चरखी और अनार को जलते देखने जुगाड़ निकाल ही लिया. शाम होते ही घर के सामने वाली दीवार से सटी मां की बनाई कठगलि (जलाऊ लकड़ी के एक के ऊपर एक कई गठ्ठर) पर चढ़ कर आराम से पड़ोस के बच्चों की दिवाली देखने लगे. पर ऊपर आते पटाकों का खतरा भांप कर थोड़ी देर बाद नीचे आकर टूटी दीवार के बडे़ से छेद से दिवाली का आनन्द लेने लगे. पर कुछ ही समय बीता होगा कि उस घर के किसी नामुराद सयाने ने ठीक उसी सुराग के पास कोई तख्त जैसा खड़ा कर दिया. चलो कुछ तो देखा सोच कर वापस चलने को हुए तो थोड़ी ही दूर लकड़ियों के पास एक सरसराहट हुयी. देखा कि एक सांप आराम से अपनी राह जा रहा था. हम हक-बक, अटकी सांसों के साथ हम दोनों घर में मां और दीदियों के साथ पूजा में बैठ गये. होशियारी यह रही कि किसी को बताया नहीं. वरना बड़ों के हाथों पिटाई क्या सीधे कुटाई ही होती. कुछ दिनों बाद हमने यह किस्सा बताया तो तब तक बात आई-गई हो गयी थी. (Diwali Memoir Arun Kuksal)

दिवाली की सुबह अब दोपहर में तब्दील हो ही रही थी. रात को बग्वाल का भेलो खेलेंगे करके हम भाई-बहिन भेलों बनाने में जुट गये. उसका मैटीरियल (टहनियां और घास-फूस) खूब था उस घर के आस-पास. अचानक बडे गेट पर खट्ट हुयी. और अपना प्यारा नरी भाई घर की ओर आता दिखाई दिया. मानो, भगवान से मन मांगी मुराद मिल गई. नरि भाई ने अपना बैग नीचे रखा भी नहीं था कि मैंने अर छोटी बहिन शोभा ने ‘भाजी (बडा भाई) पैसा-दे, पैसा-दे कहकर उससे एक रुपया झटक लिया. फिर पता नहीं गेट के बाहर की दुकानों से क्या-क्या खरीद लाये. बताता चलूं कि उस दिन नरि भाई आगरा से बी. ए. की परीक्षा देकर लौटे थे. उन्हें वस्तुस्थिति पता चली तो ‘अरे कोई बात नहीं मेरे पास खूब पैसे हैं’. उन्होने यह ऐलान किया तो हमारी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. बस सारा सीन ही बदल गया. थोडी ही देर में मैं, आशा दी अर शोभा नरि भाई के साथ काशीपुर के मेन बाजार में धन्ना सेठ की तरह अपने कई दिन पहले के मनपंसद पटाके अर फोटू खरीदने के संजोये सपनों को साकार कर रहे थे. भाई के पास भी कुल जमा थोडे ही पैसे रहे होगें. पर उन्होने हमारा उत्साह कम नहीं होने दिया. संयोग से हमारे चामी गांव के रामकृष्ण चाचा जी बाजार में दिखाई दिये. रामकृष्ण चाचा पुलिस महकमें में थे. पहले जोशीमठ में भी हमने उनको देखा था. बस चाचा जी ने बाकी सारी कमी पूरी कर दी. वो भी साथ में घर आये. गांव के किसी अन्य रिश्ते से वो मां को दीदी कहते थे. बस जब उनको पता चला कि माजरा क्या है. वो पिताजी से अपनेपन में बहुत नाराज हुए. खैर ! पिताजी ने उन्हें मनाया. वो चाचा जी फिर बाजार गये और वापसी में हमें लगा दिवाली का सारा बाजार ही उठा लाये हमारे लिए. फिर तो उस साल बूढी दिवाली (इगास) तक पटाकों की दौलत हम सब भाई-बहन लुटाते ही रहे-लुटाते ही रहे.

लेखक

अरुण कुकसाल

(वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है)

काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

4 days ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

6 days ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

1 week ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

1 week ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

2 weeks ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

2 weeks ago