कला साहित्य

प्रतीक्षा: अपने पति की ख़ोज में दिल्ली आई ‘भागुली काकी’ की कहानी

उम्मीद-भरी प्रतीक्षा के बाद निराशा की जो अथाह थकान होती है, उसी को लेकर टूटी डाल की मानिंद-थकी-माँदी काकी लौट गई थीं. उनका जाना निश्चित था. हम कोशिश करते तब भी वे रुकनेवाली नहीं थीं. किसी ने उन्हें रोकने की ज्यादा कोशिश की भी नहीं. मुझमें उन्हें रोक पाने की हिम्मत बिलकुल नहीं रह गई थी. उनका अचानक आना और अल्पावधि में ही लौट जाना, मेरे मन में एक विषाद भर गया था. रजनी ने भी ज्यादा जोर नहीं दिया. शायद उसके मन में रही हो कि वे हमारी सगी तो हैं नहीं, बेकार में अपने लिए परेशानी पैदा करने का क्या मतलब! सभ्यता और औपचारिकता वह निभाती रही थी.
(Prtiksha Story by Kshitij Sharma)

जिस दिन वे गाँव से आई थीं, उसी दिन बच्चों के कहने के अंदाज से ही परायेपन की गंध आ रही थी. मैं घर पहुंचा ही था कि बच्चों ने चिल्लाना शुरू कर दिया, “पापा, गाँव से कोई आमा आई हैं.” मैं चौंका. माँ की मृत्यु के बाद पहली बार बच्चों ने आमा-आमा कहा था. एकाएक समझ में नहीं आया कौन हो सकता है. मौसी मेरी कोई है नहीं. बुआ लखनऊ रहती हैं. चाची-ताई में से कोई भी गाँव नहीं रहता.

अंदर गया तो भौंचक्का-सा रह गया, भागुली काकी थीं. क्षण-भर को ठिठका-भागुली काकी यहाँ! स्वास्थ्य तो ठीक है इनका. इलाज-विलाज के चक्कर में ना आई हों. यहाँ आने का और क्या उद्देश्य हो सकता है? कोई सगासंबंधी उनका इस शहर में रहता हो, मुझे याद नहीं. जहाँ तक ध्यान जाता है, उन्होंने अपने किसी निजी संबंधी के यहाँ, दिल्ली में, होने का कभी जिक्र भी नहीं किया. निजी कहने को उनके पास ज्यादा संबंधी हैं भी नहीं. भाई उनके देहात में ही रहते हैं. अब शायद जिंदा भी हों या परलोक सिधार गए हों, मुझे जानकारी नहीं है. दोनों दामादों में से एक बरेली रहता है और दूसरा किच्छा में. शायद किसी शुगर मिल में है. बीमारी का मामला होता तो निश्चित रूप से वे दामादों के पास ही जाती हैं. पर वे अचानक यहाँ बिना किसी सूचना के?

इस समय अधिक सोचने का मौका नहीं था. मैं थोड़ा सँभला. मेरे संस्कारों ने मुझे उनके पैरों तक झुका दिया. आशीर्वाद के रूप में उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा और मेरे चेहरे को हाथ से मलास कर अपनी उँगलियों को चूमती रहीं. बीच-बीच में पूछती रहीं, “च्यला भौल छै, नैनतिन भल छै?” (बेटा ठीक है, बाल-बच्चे ठीक हैं?) मेरे गाँव में बलाइयाँ लेने, प्यार-स्नेह जताने का यही तरीका है. मैं हाँ-हूँ में ही उत्तर देता रहा. उनकी यह प्रक्रिया मेरे अंदर संकोच पैदा करती रही.

उनके यहाँ आने पर मुझे कोई भार या परायापन बिलकुल महसूस नहीं हुआ. खुशी का ही अहसास होता रहा-अपने प्रियजन को पाने का सुख मिलता है जैसे. उनके और मेरे बीच संबंध ही ऐसा था. न मैं उनके लिए कभी पराया रहा, न वे मेरे लिए. माँ के बाद मेरी सबसे अधिक श्रद्धा उन्हीं के प्रति रही है. बल्कि मेरे लिए माँ ही हैं और मैं उनके लिए बेटा.

जबकि सारा गाँव उन्हें तेज-तर्रार, मुँहफट औरत के रूप में देखता था. सबके मन में उनके प्रति एक अव्यक्त-सी नफरत थी. लोग उनसे कतराते थे. एक धारणा-सी बन गई थी-यह औरत नहीं, डंकन है. इसके मुँह कौन लगे. अव्वल तो लोग उनसे ज्यादा बोलते नहीं थे, पर भीतर से भरे रहते थे. झगड़ा होने पर फूट पड़ते थे, बदतमीज, बेशरम जैसे संबोधनों की झड़ी लगा देते थे. जवाब में काकी कभी चुप रही हों, ऐसा नहीं देखा गया. उनको भी जैसे मौका मिल जाता था-सबके ऐबों और संबंधों की पोल-पट्टी खोल देती थीं कि खुद ही फैसला कर लो, कौन बदतमीज और बेशरम है. किसी को बख्शना काकी ने सीखा ही नहीं था. गुस्सा आ जाए तो बच्चों तक को डाँट-फटकार कर भगा देती थीं. लेकिन मेरे साथ उनका व्यवहार बिलकुल अलग तरह का था. कभी मुझ पर गुस्सा किया हो, मुझे याद नहीं.

गाँव में बहुत कम परिवार ऐसे होंगे-ना के बराबर, जिनसे उनका झगड़ा न हुआ हो और संबंध लंबे समय तक अच्छे रहे हों. झगड़ों के बड़े कारण नहीं थे. बस, उन्हें अपना जरा-सा नुकसान बर्दाश्त नहीं था. किसी की गाय-बकरी क्षण-भर को ही उनके खेत में चर आई तो फूट पड़ी. सब्जी की किसी बेल में या खेत में उनके अनुमान से रत्ती भर भी कमी दिख जाए तो शाम को ठीक संध्या के समय-जब लोग घरों को लौट रहे होते हैं, अपनी धुरी (ढलवाँ छत की मिलान पट्टी) पर खड़ी होकर गालियों की बौछार कर देती थीं–जिसने भी उनका नुकसान किया, उसका सर्वनाश हो जाएगा. मेरे खेत की चुराई चीज पकाने की जगह अपने प्यारों को क्यों नहीं पका खाते.

सुननेवालों को तब गुस्सा आता था. उन्हें संकेत अपनी ओर दागा हुआ लगता था. वे बौखलाने को ही आते थे. फिर ‘क्या मुँह लगना हो रहा है राँड के जैसे भाव आते थे. जो उनके गुब्बार को फूटने नहीं देते थे वे, “लो, संध्या-बेला में मंत्रोचारण शुरू हो गया है” कहकर ही अपने को हल्का कर लेते थे. दो-एक दाने-सयाने जरूर भुनभुनाते रहते थे, “जिस गाँव में सुबह-शाम शंख और घंटियाँ गूंजती थीं, इस घोर कलयुग में गू-मृत खाने की बात हो रही है.”

बस, एक मेरी माँ ही थी, जिससे उनके संबंध ठीक रहते थे. हल्कीफुल्की तकरारें होती थीं, जल्दी सुलह भी हो जाती थी. अबोला ज्यादा दिन नहीं रहता था. उनका ज्यादा उठना-बैठना और ऐंच-पेंच (लेना-देना) भी हमारे ही घर से था. शायद इसका कारण यह भी रहा कि माँ और काकी का मायका एक ही गाँव में है. इस रिश्ते को वे बड़ा मान देती थीं. माँ को दीदी कहती थीं. इस नाते, माँ उन्हें झिड़क भी देती थी और समझाती भी रहती थी-“थोड़ा-बहुत नुकसान तो होता रहता है. गाय-बकरियाँ जब चरने जाती हैं तो रास्ते के खेतों में मुँह मार ही देती हैं. सभी के साथ ऐसा होता है. खाली गालियाँ देने से क्या फायदा. इससे सुधर जो क्या जाएगा.”

काकी का तर्क होता था, “आते-जाते मुँह मारने की कोई बात नहीं. उसके लिए कौन कहता है. ये लोग जानबूझकर मेरा नुकसान करते हैं कि इसका कोई है नहीं, क्या कर लेगी करके. अगर मैं एक बार चुप रह गई तो ये मेरा गाँव में रहना मुश्किल कर देंगे.”

बड़ा होने के बाद, जब कभी काकी के इस तर्क पर सोचता हूँ तो लगता है इसके पीछे उनका यह मनोविज्ञान रहा होगा कि निखालिस खेती के दम पर पहाड़ में कौन जिंदा रह सकता है. कुछों ने खेती की और कुछों ने बाहर से मनीऑर्डर किया, तब घर चला. काकी का मनीऑर्डर भेजनेवाला कौन था? इसलिए एक दाने की भी बरबादी उन्हें भविष्य के अंधकार का सूचक लगती होगी.

उनके स्वभाव की कटुता के बारे में गाँव के लोग जितना बताते हैं, मैंने उतना नहीं देखा है. मैं लंबे समय तक गाँव रहा नहीं. बहुत छोटी उम्र में पढ़ने के लिए बाबू के साथ दिल्ली आ गया था. बाबू की हार्दिक इच्छा थी कि उनका इकलौता बेटा कुछ बन जाए. माँ, दीदी और छोटी पुष्पा गाँव में रहते थे. एक तो बाबू गाँव का नाता छोड़ना नहीं चाहते थे-उनके मन में था कि आखिर लौटकर तो वहीं आना है. दूसरा, सबको साथ रखकर, अपनी छोटी-सी नौकरी की आय से, बेटे को कुछ बनाने के उद्देश्य को पूरा करना मुश्किल समझ रहे थे. इसलिए परिवार दो हिस्सों में बँटा रहा.

मेरी गर्मियों की छुट्टियाँ गाँव में ही बीतती थीं. माँ का भी आग्रह रहता था, कम-से-कम दो महीने तो इसे मेरे पास रहने दिया करो, और घोर गर्मी में मेरा क्वार्टर में अकेले पड़ा रहना बाबू को भी पसंद नहीं था.

मेरी छुट्टियों का इंतजार जितना माँ को रहता था, उतना ही काकी को भी रहता था. माँ अक्सर कहती थी, “तेरी भागुली काकी एक महीने से कह रही है, अब तो भवानी की छुट्टियाँ होनेवाली होंगी!”
(Prtiksha Story by Kshitij Sharma)

छुट्टियों के दौरान हफ्ते में कम-से-कम तीन-चार समय का खाना मैं काकी के यहाँ ही खाता था. मैं ना भी जाता तो वे अपनी बेटी नंदी को भेज देती थीं. मेरी पसंद की उड़द-पेठे की बड़ियाँ और दाम (चीड़ के बीज) ये सँभाले रखती थीं.

उनका और हमारा घर लगभग सटा हुआ है. माँ बताती थीं, छुटपन में मैं अधिकांश उन्हीं के घर में रहता था. माँ और दीदी खेतों पर चले जाते थे, मैं और पुष्पा काकी की बेटियों के साथ खेला करते थे. कालांतर में उनका वात्सल्य मेरे मन में बैठ गया-मेरे संस्कारों में रम गया. उनको लेकर मेरे मन में एक भावुकता हमेशा रही. खासकर नौकरी लगने और माँ की मृत्यु के बाद-जब से मैं पूरी तरह शहर का हो गया हूँ. गाँव का अर्थ मेरे लिए माँ और काकी की स्मृतियाँ ही हैं और इस अपनत्व का सहारा लेकर वे यहाँ आई हैं तो कोई बेजा नहीं किया उन्होंने. बल्कि उनका हक है. जितने दिन चाहें, यहाँ रहें. जिस चीज की जरूरत हो, खुलकर कहें. रजनी को इस संबंध की कुछ जानकारी तो है, थोड़ा उसे और समझाना होगा कि काकी को हमेशा यही लगे कि वे अपनों के पास आई हैं और हमें उनके आने की बहुत खुशी है.

कपड़े बदलकर जितनी देर उनके पास बैठा रहा; मन में उनके आने का उद्देश्य जानने की उत्सुकता बनी रही. ‘कैसे आईं काकी?’ पूछ लेने का साहस नहीं हुआ. ऐसा पूछना कितना भोंड़ा लगता और असभ्य भी! • बातचीत में गाँव-भर की खबर पूछता रहा. परिचित परिवेश के बारे में, वह भी जिसे देखा-सुना ही नहीं, भोगा भी हो, नया जानना या पुरानी स्मृतियों को पुनर्जागृति करना कितना सुखद लगता है. एक-एक के बारे में पूछता रहा. कौन अब क्या करता है? कितना बड़ा या बूढ़ा हो गया है? बेड़-तिमिल, आड़खूबानी और काफल की चोरी बच्चे अब भी करते होंगे?

काकी सिलसिलेवार सब बताती गईं, अपने कहने के खास अंदाज में.

जिससे इन दिनों उनकी पटती थी, संबंध अच्छे थे, उनके बारे में सहानुभूतिपूर्वक अपनत्व जताते हुए बताती गईं, “ठीक ही चल रहा है बेचारों का. दूधों नहा रहे हैं, पूतों फल रहे हैं” और जिनसे हमेशा अनबन रही उनके बारे में कहती गईं, “तू तो जाननेवाला ही ठहरा उनके लछड़ों को. खा-पी रहे हैं. अपना भला करना जानते हैं. दूसरों के पड़े में तो कभी काम आए नहीं.”

वे किसी भी तरह से कहें, उनकी बातों से गाँव और लोगों की एक मुकम्मल खबर तो बन ही जाती है.
(Prtiksha Story by Kshitij Sharma)

मैं कुछ पुरानी स्मृतियों की ओर जाना चाहता था. वे वर्तमान को क्रमवार बताने को आतुर थीं. जैसे, कहती गईं, “अब पहले जैसी बात नहीं रह गई है गाँव में भी. कभी तूने वहाँ किसी के घर में ताला देखा? और अब सुई भी बाहर रह गई तो समझ लो ढूँढ़ना बेकार है. पिछली सर्दियों में कोटली के प्रधान की दीवार तोड़ दी चोरों ने. बताते है, सारा जेवर ले गए. सारी सर्दियाँ आसपास के गाँवों में रात-भर हल्ला होता रहता था कि वो आए कि वो गए. डर के मारे कँपकँपाती रहती थी. एक रात भी चैन से नहीं सो पाई. प्राण सूखे रहते थे. बगल में अपना कहने को एक तुम्हारा घर था, वहाँ भी कोई नहीं ठहरा. बूनों (चीड़ के पत्ते) की साँय-साँय आवाज से लगता था-दरवाजे पर ही आ गए हैं. बस, अभी गला घोंट देंगे. मैं तो च्यला, दिन ढलने से पहले ही दरवाजे खिड़कियों पर अडिए-मडिए (आड़) लगा देती थी. बैठी रहती थी फिर रातभर-ठीटों (चीड़ के दाने) की आग के सामने. मेरी आँखें देख रहा है तू. कुछ तो इनमें पहले से ही पानी आता है, ठीटों के धुएँ से बिलकुल ही फूट गई हैं. घाम उछाने के बाद तो जपजपाट पड़ जाता है. कुछ नहीं दिखाई देता. अंदाज से ही सारे काम करती हूँ. आँखें तो अब फूट ही गई हैं, क्या इलाज हो सकता है इनका. पर ज्यादा भय हो गया है चोरों का. अब मैत-सौरास (मायके-ससुराल) आती-जाती बहुओं ने भी जेवर पहनने कम कर दिए हैं. इस बार तो च्यला, अभी से हो गई है चोर-चोर करके. हर समय पराड़ डरे रहते हैं. किसी दिन कोई पच्च से गला दबा गया तो हो गया, तीन दिन तक किसी को पता भी नहीं चलेगा कि मर गई है करके.”

काकी की बात सुनकर दुःख भी हुआ कि लो अराजकता और अमानवीयता पहाड़ तक पहुँच गई है. जहाँ किसी का एक रुपया खो जाने की बात सनसनीखेज खबर की तरह चारों ओर फैल जाती थी, वहाँ का यह हाल !

और हँसी भी आई कि काकी का गला कोई क्यों दबाएगा? ले-देकर पाँच-सात बर्तन होंगे उसके पास, वे भी पचास-साठ साल पुराने–पिचके और लकड़ियों के धुएँ की मोटी काली परत चढ़े हुए. ज्यादा-से-ज्यादा पंद्रह-बीस किलो मडुवा-झंगूरा जैसा मोटा अनाज होगा. उसके लिए बुढ़िया की हत्या कर क्यों कोई कलंकित करेगा अपने को. जाने किस बात का भय खाए हुए काकी को जो खबर बताते हुए इस समय भी ज्यादा नहीं तो थोड़ा-थोड़ा काँप ही रही है.

मैंने पूछ ही लिया, “ऐसी वारदातें तो काकी अब दुनिया के कोने-कोने में हो रही हैं. बड़ी-बड़ी सरकारें जिनके पास इतनी ताकत है कि पूरी दुनिया को घंटों में खत्म कर दें, वे भी ऐसे लोगों का कुछ नहीं कर पा रही हैं. पर तुम्हें काहे का डर लगता है जो दिन छिपते ही कैद कर लेती हो अपने को! सारी रात ठीटों के धुएँ में बैठी खाली घर का पहरा देती रहती हो! जबकि जग जाहिर है कि तुम्हारे पास फूटी कौड़ी भी नहीं होगी.”

“नहीं च्यला, तुझे नहीं पता, जमाना कितना खराब हो गया है वहाँ. आदमी के मुँह जब खून लग जाता है तो कुछ नहीं समझता वह.”

वह फिर कई किस्से बताने लगी कि कैसे-कैसे लोगों ने अपने को बचाया. उनके कहने के तरीके से ही लग रहा था कि वे सब वारदातें उनकी देखी नहीं, सुनी हुई थीं.
(Prtiksha Story by Kshitij Sharma)

बातों का सिलसिला आगे नहीं चल सका, इस बीच रजनी चाय ले आई थी. अपने और मेरे लिए कप में और काकी के लिए गिलास में. गिलास को धोती के छोर से कसकर पकड़ वो चाय को सूउ-सूउ कर पीती रहीं. रजनी ने बिस्कुट और भुजिया की प्लेट भी उनके आगे सरका दी. पहले की बात का क्रम टूट चुका था. कुछ और बात शुरू करने और उनके आने के कारण को टटोलने के लिए मैंने पूछ लिया, “काकी, अब आ ही गई हो तो कुछ दिन यहाँ रहो. वहाँ तुमने कौन-सा भंडार भर देना है. अकेली जान है तुम्हारी, यहीं पड़ी रहो.”

“ना च्यला, ना, ज्यादा दिन नहीं रुकूँगी. घर वैसे ही छोड़ आई हूँ. बडी लड़की तो बरेली चली गई है, वे वहीं के हो गए. कुछ दिनों के लिए छोटी नंदी को बुला रखा है. वो भी कब तक रहेगी. ससुराल वाले ज्यादा दिन रहने नहीं देंगे. झींस जैसा लड़का है उसका. वो भी ठीक नहीं रहता. अब एक फिकर थोड़ी है, उसके लड़के को कुछ तकलीफ हो गई तो, उधर भी नाम ही पड़ने वाले हुए.”

उनकी अपनी ही कथा में फिर रह गया उनके आने का उद्देश्य जानना.

रजनी चाय के बर्तन लेकर किचन में चली गई तो मैं भी उठ गया. बेडरूम में चला गया. सोचा, अगर कुछ काम होगा वो बता ही देंगी. आखिर इतनी दूर से आई हैं, कोई कारण तो होगा ही. बिना काम बताए और कराए जाएँगी नहीं. इतनी भी उतावली क्या! अगर खाली घूमने-फिरने आई होंगी तो रजनी से कह दूँगा, वह थोड़ा समय निकालकर घुमा लाएगी. ना हो तो मैं ही छुट्टी ले लूँगा. आखिर वे अपना मानती हैं, तभी तो मेरे पास आई हैं.

रात खाने के बाद, उनके सोने का प्रबन्ध ड्राइंगरूम में ही कर दिया गया. रजनी ने दीवान पर नई बेडशीट बिछा दी और पानी का जग सिरहाने के पास स्टूल पर रख दिया. काकी को रजनी का आदरभाव और व्यवहार काफी पसंद आया. मुझसे हँसकर बोली, “तेरी दुल्हणी (पत्नी) तो बहुत अच्छी है रे भवानी!” रजनी की ओर मुखातिब होकर बोली, “अच्छा कर रही है व्यारी (बहू), जस-अपजस और भलाई-बुराई ही आदमी के साथ जाती है.’ रजनी को अपनी प्रशंसा अच्छी लगी. वह काकी के पास दीवान पर ही बैठ गई, पूछने लगी, “बेटियों की शादी के बाद तो आप एकदम अकेली हो गई हैं. इतनी मेहनत कर पाती हैं क्या कि गुजारा हो सके?”

“द, हो पाए या न पो पाए, मरते-गिरते करना पड़ता है. आज तक किसी तरह गाड़ी खींच ही रही थी. अब पराण नहीं रहा. कभी दो-तीन भैंसें रहती थीं. कर भी सकती थी. खूब घी कमाया-बेचा भी, खाया भी. अब होगी कुकुरगत. भूखों रहने के दिन आ गए हैं. एकदम से पराण भी नहीं निकलेंगे. धीरे-धीरे जिंदगी की अधोगत हो जाएगी. अब तो रात-दिन यही फिकर खाए रहती है, इसके बाद क्या होगा. बेटियों के पास जाऊँ तो सास-ससुर, देवर-नंदों के तानों से उनका भी जीना हराम हो जाएगा. कुछ समझ में नहीं आता ब्वारी”.”

उसके बाद रजनी चुप हो गई और काकी अपनी पीड़ा को छिपाने की कोशिश में इधर-उधर झाँकने लगीं. रजनी वहाँ से उठने लगी. शायद उसके मन में आया हो कि कहीं काकी पुराने संबंधों की आड़ में आसरे के लिए तो नहीं आई हैं और बेकार के भार को गले मढ़ने में उसे कोई अकलमंदी नहीं दिखाई दे रही होगी.

रजनी के साथ मैं भी बेडरूम की ओर जाने लगा तो उन्होंने, “च्यला, बैठ एक बात कहनी है,” कहकर हमें फिर बैठा लिया. खुद थोड़ा आराम से बैठ गईं और पैर सुकोड़कर हमारे लिए भी दीवान पर अपने नजदीक जगह बना दी.

पल-भर रुककर बोलीं, “च्यला, मैं एक खास वजह से आई हूँ. तुझे अपना समझा, इसलिए तुझे तकलीफ देने चली आई. तू तो जानता है, मेरा और कौन है ?” उनकी आँखें थोड़ा रुधियाँ आई थीं.
(Prtiksha Story by Kshitij Sharma)

रजनी कुछ भी सोचे, मेरे अंदर उनके प्रति अब भी वही आत्मीयता है. वे बेकार में अपराध-बोध लिये हैं . इतनी भूमिका बाँधने की क्या जरूरत है. सीधासीधा कह दें-यह काम है, बस.

“काकी, इसमें तकलीफ की क्या बात है. तुम काम तो बताओ. खाली अधीर हो रही हो . तुम जो भी कहोगी, मैं जरूर करूँगा. तुम्हें कहने का पूरा हक है और मेरे करने का पूरा कर्तव्य.” उन्हें सहज करने के लिए मुझे विश्वास-सा दिलाना पड़ा.

“सो तो ठीक है. तेरा सहारा है तभी तो . बात दरअसल यह है कि तू अपने चाचा को ढूँढ़ दे. मैं उन्हें लेने आई हूँ.”

– चाचा को ढूँढ़ दूँ! कौन-से चाचा को ढूँढ़ दूँ? ओह ! शायद काकी अपने पति को खोजने की बात कह रही हैं.

मेरे लिए सचमुच यह आश्चर्य की बात थी. पूरी उम्र बिता देने के बाद अब चाचा की क्या जरूरत आ पड़ी है काकी को! इस मुकाम पर जब आँख, कान और दाँतों की कमजोरी के माध्यम से मृत्यु ने आगमन की सूचना दे दी हो, चाची का चाचा के लिए भटकना चौंकानेवाली बात तो थी ही.

“च्यला, मैंने बहुत कोशिश कर ली है. गाँव के जितने भी आने-जाने थे सभी को कहा-कुछ पता लगे तो खबर देना. किसी ने बताया था, काफी पहले उसने उन्हें दिल्ली में देखा था. शुरू में वे नौकरी करने दिल्ली ही आए थे. उन दिनों की चिट्ठियों में उनका पता भी था. इतने वर्ष हो गए, वे चिट्ठियाँ जाने कहाँ चली गईं. मेरा पक्का विश्वास है, वे दिल्ली में ही हैं. ‘च्यला! तू पढ़ालिखा है. सब बात, सब जगह जानता-पहचानता है. तू उन्हें खोज दे. तेरा अहसान .” वे रोने को हो आईं.

मेरी समझ में कुछ नहीं आया-जैसे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया हो. पहले तो इतने बड़े महानगर में एक आदमी को, वह भी उस आदमी को जिसे मैं ठीक से पहचान भी नहीं सकता, ढूँढ़ना कितना कठिन था! बहुत छुटपन में, जब मैं पहली-दूसरी में पढ़ता होऊँगा या शायद स्कूल भी नहीं जाता होऊँगा, उन्हें देखा होगा. आज अगर वे सामने पड़ भी गए तो क्या मैं उन्हें पहचान लूँगा? उनकी पहचान के कुछ धुंधले-से चिह्न जो इस समय मेरे दिमाग में घूम रहे थे, क्या उम्र के इतने बड़े अंतराल ने उन्हें ज्यों-का-त्यों बनाए रखा होगा? फिर यह जरूरी नहीं कि वे दिल्ली में ही हों. हो सकता है, किसी दूसरे शहर में चले गए हों. यह भी संभव है-अब इस संसार में ही न हों.
(Prtiksha Story by Kshitij Sharma)

पर इससे भी अधिक समझ में नहीं आनेवाली बात थी कि काकी को अब क्या जरूरत आ पड़ी है चाचा की? अपनी आयु के हिसाब से गणना करूँ तो जब वे गाँव से आखरी बार आए थे, बल्कि काकी और दो बेटियों को बेसहारा छोड़ आए थे, मैं छ:-सात साल का रहा होऊँगा. इस हिसाब से करीब पैंतीस-छत्तीस वर्ष हो गए हैं उन्हें खोए हुए.

इतने लंबे अंतराल में काकी ने उनकी कभी जरूरत महसूस नहीं की. कठिनाइयों और जिम्मेदारियों के दिन उन्होंने खुद निभाए, बिना किसी सहारे के.

इस दौरान उन्होंने कभी चाचा को किसी के सामने याद किया हो, मुझे खबर नहीं . बाबू की पूरी उम्र दिल्ली में ही बीती है, उन्होंने भी मेरे सामने कभी नहीं कहा कि काकी चाचा को हुँढ़वाना चाहती हैं. माँ के मुँह से भी सुनने में नहीं आया कि काकी चाचा के गायब होने से परेशान हैं.

हो सकता है, मेरे होश सँभालने यानी उस आयु से पहले जबकि अधिकांश बातें याद नहीं रहतीं, काकी परेशान रहती हों और उन्होंने लोगों के माध्यम से चाचा को खोजवाने की कोशिश की भी हो. यह भी हो सकता है कि चाचा के परदेश बह जाने के कारणों को काकी अच्छी तरह जानती हों और उसे अपने अंदर राज के रूप में दबाकर अकेले, अपने दम पर जिंदगी और जिम्मेदारियाँ निभाने का साहस उन्होंने जुटा लिया हो.

अपनी याददाश्त सँभालने के बाद से आज तक मुझे कभी नहीं लगा कि चाचा के प्रति उनमें कोई अनुराग शेष बचा है. उन्होंने अपने को चाचा से पूरी तरह काट लिया था. बल्कि मैंने उनके मन में चाचा के प्रति एक तिरस्कार भाव ही देखा है. बड़ी बेटी के कन्यादान पर पंडितजी थोडा अनमनाए थे कि यहाँ पिता का होना जरूरी था. काकी बिखर पड़ी थीं, “विधवा की बेटियों का कन्यादान नहीं होता है क्या पंडितजी? वैसे ही करिए.”

सभी स्तब्ध थे. काकी के इसी तीखे व्यवहार से अधिकांश लोग उनसे कटे रहते थे. सभी का कहना क्या, आरोप था कि काकी के व्यवहार में वैसे तो पहले से ही तेजी थी, पर चाचा के जाने के बाद उनके स्वभाव में जो परिवर्तन आया, उसके कारण उनकी किसी से पट नहीं पाई. तब झगड़ों में उनकी ओर यह बाण हमेशा फेंका जाता रहा कि अगर यही अच्छी होती तो आदमी क्यों भागता? पड़े वक्त में भी अकड़ी रहती है. काकी ने न कभी इन बातों की परवाह की, न जिम्मेदारियों और कठिनाइयों के लिए किसी सहारे की तलाश में अपने को झुकाया. अपने बूते पर, स्वाभिमान को बनाए रखकर, अपना और अपनी बेटियों का निर्वाह किया. दो-तीन भैंसें थीं उनका सहारा, जो पीढ़ी-पीढ़ी उनके परिवार को संबल देती थीं. थोड़े-बहुत जो खेत थे, उनकी बुवाई-जुताई का भुगतान घी बेचकर होता था. उसी के दम पर दोनों बेटियों को यथासंभव आठ-दस तक पढ़ाया भी और शादियाँ भी की.
(Prtiksha Story by Kshitij Sharma)

और आज पूरी जिंदगी ढह जाने के बाद यानी जब न बेटियों को बाप की जरूरत रही और न काकी को पति की, चाचा की खोज में उनका भटकना मेरे लिए परेशानी का कारण था ही.

काकी का यह रूप मेरे लिए एकदम असहज और अविश्वसनीय था. आज तक मैंने उनके अंदर या तो वात्सल्य भाव देखा है या स्वाभिमानता की अकड़ में तना भव्य चेहरा.

. पूरी रात मैं सो नहीं सका. बचपन से लेकर अब तक काकी से जुड़े सारे प्रसंग दिमाग में घूमते रहे . क्या चाचा का जिक्र न करना या उनका प्रसंग आने पर कड़वाहट उगलना, कहीं काकी का अपने मन के चोर को छिपाना ही तो नहीं था? हो सकता है चाचा के प्रति उनके मन में अथाह अनुराग रहा हो. कहीं वह प्रकट न जाए, और लोग हँसी न उड़ाएँ, इससे बचने और अपने को टूटने से बचाने के लिए उनका क्रोध नाटक मात्र तो नहीं था! पर यदि ऐसा था भी, तो, कभी तो, वे किसी को तो कहतीं-उनकी खबर देना या उन्हें लौटा लाना. जैसे वे आज आई हैं, वैसे पहले भी आ सकती थीं. तब एक जस्टीफिकेशन तो बनता था. आज तो “कुछ समझ में नहीं आया. मैं उलझता रहा रात-भर.

पूरी रात करवटें बदलने के बाद जब सवेरे उठा तो देखा, काकी धोती से आँखें मल रही थीं. उनके चेहरे से ही लग रहा था, पूरी रात वे भी नहीं सोई हैं. नाश्ता करने के बाद दफ्तर जाने को हुआ तो काकी ने याद दिला दिया, “दिन में जरा कोशिश करना च्यला. अगर मिल जाएँ और तेरी बात न मानें तो मुझे लिवा ले जाना.” उनकी आँखों में जो आतुरता और विनय-भाव था, उसे मैं अधिक नहीं देख सका. ब्रीफकेश उठाया, चल दिया. रजनी टा-टा करती रह गई. उसकी ओर देखने को भी मन नहीं हुआ.

शाम को काकी की नजरों में जो सवाल देखा, उसे मैं पहचानता था. इसलिए उनके पूछने से पहले ही कह दिया, “कोशिश कर रहा हूँ, काकी. वैसे तो बहुत मुश्किल है. इतने बड़े शहर में एक आदमी को बिना पते के ढूँढ़ना आसान नहीं है. पर फिर भी भगवान् ने चाहा तो जल्दी ही कहीं-न-कहीं पता लग ही जाएगा.”

काकी चुप रहीं. कुछ आशा बँधी उनमें या बुझ-सी गईं वे, मैंने जानने की कोशिश नहीं की. कपड़े बदलने को अंदर चला गया. बाकी समय बच्चों के होमवर्क में उलझने का नाटक करता रहा. खाने पर बैठते ही मैंने प्रसंग बदल दिया. रजनी से कहा, “काकी इतनी दूर से आई हैं. थोड़ा इन्हें घुमा-फिरा दो. बुढ़ापे में आकर अब कहीं इनका दिल्ली आना हो पाया है. फिर शायद ही कभी आ पाएँ.”

“ना च्यला, ना, कहीं नहीं घूमना है मुझे. कहीं ले जाने की जरूरत नहीं. तेरे घर से ही इतना सारा दिख जाता है. खाली परेशानी से क्या फायदा. बस, तू जरा उन्हें ढूँढ़ दे तो मैं जल्दी से अपने घर पहुँच जाऊँ. जब तक पराण है, तब तक का जंजाल तो ठहरा ही. खेती का काम भी अब शुरू होने को होगा. हलिए का मिलना भी मुश्किल है. अब एक भैंस है बाखड़ी. क्या दूध देगी, क्या घी बनेगा. ऊपर से सग्यान (त्योहार) भी आने को हैं. मैं न रही घर पर, तो नंदी भी उदास हो जाएगी. तू तो सब समझता ही है.”
(Prtiksha Story by Kshitij Sharma)

हफ्ते-भर तक काकी उम्मीद लगाए रहीं कि आज नहीं तो कल, मैं चाचा को ढूँढ़ ही लाऊँगा. सुबह और शाम उनकी आतुर आँखें जो सवाल कह देती थीं, उनकी आर्द्रता अंदर तक बेध जाती थी.

ऐसी बात नहीं कि मैंने कोशिश नहीं की. अपने गाँव-पड़ोस के जितने लोगों से मेरा संपर्क था और जितनों को मैं जानता था, मैंने फोन पर या नजदीक के लोगों से व्यक्तिगत रूप से संपर्क किया. पर एक आदमी को जिसे लोग लगभग भूल गए हैं, एकाएक खोज पाना सभी को कठिन लगा. फिर ऐसे झंझट के कामों की जिम्मेदारी कौन मोल लेता है.

मेरी पीढ़ी के अधिकांश लोगों ने तो उन्हें देखा भी नहीं या मेरी जैसी हालत में धुंधली-सी याद जता देते थे. कुछ थोड़ा बुजुर्ग लोगों से पूछा तो एक उपेक्षित भाव ही नजर आया. उनमें से ही एक से हल्का-सा सूत्र मिला भी कि वे किसी वकील के पास वर्षों पहले नौकरी करते थे. सालों पहले उन्होंने देखा था. लेकिन उस सूत्र से भी कुछ हासिल नहीं हुआ.

और अंततः काकी ने और नहीं रुक पाने की असमर्थता बता दी, “अब मेरा यहाँ रुकना कठिन है. अगर उनका कुछ पता चल जाता तो एक-आध दिन और रुक जाती. किसी तरह मनाकर उन्हें घर ले ही जाती.”

मुझे भी लगा कि उनका छूटा घर और चाचा की कोई खबर नहीं मिलना, उनकी बेचैनी को बढ़ा रहा है. उन्हें जरूर एक कैद का अहसास हो रहा होगा.

आखिर उन्होंने अपने जाने का निर्णय सुना दिया कि वे कल वापस जाना चाहती हैं. उनको रामनगर की बस में बैठा दो तो वे चली जाएँगी. रामनगर से. किसी से भी पूछकर आगे की बस पकड़ सकती हैं.

“कुछ दिन और रुक जाती तो ठीक ही था. अब आ ही गई हो, छब्बीस जनवरी देखती जाओ. वैसे तो तुम्हारा आना कभी हो नहीं पाएगा.” मैंने और रजनी ने करीब साथ ही यह औपचारिकता निभाई.

“ना, अब नहीं. सब देखा हुआ ही समझ. जिस काम से आई थी, वही पूरा नहीं हुआ तो. पर च्यला, तू कोशिश बराबर रखना. तेरी बात न मानें तो मुझे चिट्ठी लिख देना. मैं आकर मना लूंगी.” थोड़ी देर चुप रहीं वे. फिर बोलीं, “खाना-पीना, रहना तो जैसा किस्मत में है, वही होगा. भाग्य तो कोई मिटा नहीं सकता. पर अपना दुःख-सुख एक-दूसरे से बोल-चाल कर तो बाँट लेंगे. सच कहती हूँ, जब चारों तरफ से ये आया वो आया होता है तो छत के पाथर भी हिलते नजर आते हैं. खेती-बाड़ी में भी अकेले जाने को मन नहीं करता.”

“ठीक है काकी, मैं कोशिश बराबर करता रहूँगा. अगर मिल गए तो खबर कर दूंगा. हो सका तो गाँव तक पहुँचा भी दूंगा. अगर ना मिले तो भी. उम्रभर तो उन्होंने कभी तुम्हारा साथ नहीं दिया.” खामोश हो गईं वे. लगा, मेरी बात उन्हें अच्छी नहीं लगी.

मैंने अपनी बात को सँभाला, “मेरा मतलब है अपनी कोशिश तो हम करेंगे ही. फिर भी अगर.”

“नहीं च्यला, ये बात नहीं. जो हुआ सो हुआ, आखिर वे मेरे आदमी हैं. अब न ज्यादा उम्र रही है ना सामर्थ . नंदी और गोपुली के ससुराल चले जाने के बाद अकेला घर काट खाने को आता है. घर में दो हों, एक-दूसरे का सहारा बना रहता है. तीरथ-बरत जाने को भी मन करता है. अकेले जाने का क्या सत! आखिर चरेऊ (मंगलसूत्र) का भी कोई मतलब होता है.”
(Prtiksha Story by Kshitij Sharma)

उनके जाने से पहले मौन ही छाया रहा. रजनी ने रास्ते के लिए पराँठे बना दिए थे. बीच में अचार रख दिया था. नंदी के बच्चे के लिए कुछ टॉफियाँबिस्कुट अलग से बाँध दिए थे. अपने कुछ पुराने कपड़े भी उनकी पोटली में रख दिए.

घर से बाहर निकलने से पहले उन्होंने उसी तरह मेरी, रजनी और बच्चों की बलाइयाँ लीं और रुधियाये गले से एक बार फिर कह गईं, “तू उनसे कहना, कोई फिकर नहीं. निःसंकोच अपने घर चले आएँ. शरम काहे की! घर तो आखिर उन्हीं का है. बुढ़ापे के आखिरी दिन काटने के लिए बहुत है मेरे पास. एक भैंस है. जब तक कर सकूँगी, दोनों का खर्चा निकाल लूंगी. हाथ-पाँव थक गए तो बेच देंगे. चाँदी की हाँसुली-धागुली भी सँभाल रखे हैं, ऐसे ही दिनों के लिए. फिर पुरखों की जोड़ी दो-चार हाथ जमीन भी है. उनकी बिकरी से भी हमारी साँसों तक का पूरा हो ही जाएगा. तू समझा दियो अच्छी तरह से. तू समझदार है. तुझे क्या समझाना. जैसे भी हो, एक बार तू उन्हें .’ फिर रोने को हो आईं वे.

उन्हें बस में बैठाकर लौट आया हूँ. जब तक गाड़ी चली नहीं इनकी आँखों की व्याकुलता और असुरक्षा का बोध डॅसता रहा मुझे. कह नहीं सकता, वे अपने साथ कोई उम्मीद लेकर गई हैं या आशा की अंतिम डोर भी यहीं छोड़ गई पर मेरे लिए पैर जमाकर सीधे चलना मुश्किल हो गया है. इस महानगर की भीड़ में अपने को अकेला महसूसता एक अप्रत्याशित भय से ग्रस्त हूँ. काकी के लिए कुछ न कर पाने की ग्लानि अपराध-बोध से गला रही है.

सोचता हूँ, अगर चाचा मिल जाते, चाहे किसी भी कीमत पर, तो एक बार उन्हें पकड़कर काकी के सामने खड़ा कर देता, कि देखो, खुद अपनी आँखों से देखो. सोचो जरा, कितने जन्मों का पुण्य-प्रताप रहा होगा तुम्हारे साथ जो आज भी यानी छत्तीस-सैंतीस साल बाद भी तुम्हें अपनाने के लिए व्याकुलता से तुम्हारा इंतजार हो रहा है. वह भी उसके द्वारा जिसकी हत्या तुम हजार बार कर चुके हो.
(Prtiksha Story by Kshitij Sharma)

क्षितिज शर्मा

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15 मार्च 1950 को अल्मोड़ा के मानिला गाँव में जन्मे क्षितिज शर्मा की कहानी ‘किसी को तो रहना है यहाँ’ उनकी किताब ‘उत्तरांचल की कहानियां‘ से ली गयी है. भवानी के गाँव का बाघ, ताला बंद है, उकाव, समय कम है, पामू का घर, क्षितिज शर्मा की कुछ अन्य कृतियां हैं.

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