Featured

वयस्क होने के साथ जर्जर होती काया का उत्तराखण्ड

9 नवंबर 2000 की तिथि, उत्तरांचल का पृथक राज्य के रूप में जन्म और साथ ही पहाड़ सी उम्मीदें और आशाओं से लबरेज हर निवासी.

तीस वर्षों से अधिक चले आंदोलन और 42 शहादतों की नींव पर बने राज्य से स्थानीय लोगों की उम्मीद लाजमी थी. उन्होंने उपेक्षा का एक लंबा दौर देखा था. अब ये उम्मीद की स्थानीय लोग शासन सत्ता देखेंगे तो नीतियाँ स्थानीय समस्या और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनेंगी. लेकिन पहाड़ का नाम जपते हुऐ लोग विधायक सांसद मुख्यमंत्री बनते गए और पहाड़ को सुविधानुसार इस्तेमाल कर दोहन करते रहे.

राज्य निर्माण के पश्चात धड़ाधड़ बदलते मुख्यमंत्री और हर बदलाव के साथ बदलते निजी हितों ने मूल स्थानीय समस्याओं का लगातार दरकिनार किया. पहाड़ को बचाने सँवारने की कोई कार्ययोजना न तब थी न अब है. हाँ पहाड़ के दोहन में राज्य निर्माण के पश्चात बेतहाशा इजाफा हुआ है.

पहाड़ी प्रदेश की अपनी स्थानीय समस्याएँ होती हैं जिनके समाधान के लिए ही अलग राज्य का सपना अस्तित्व में आया था. लेकिन बाजारवादी नीतियों ने ऐसा कुचक्र रचा कि स्थानीय लोग पलायन के लिए मजबूर हुए और गाँव के गाँव खाली होने लगे. प्राकृतिक खूबसूरती से समृद्ध प्रदेश में सरकारों ने रोजगार और दैनिक आवश्यकताओं की कमी का ऐसा कुचक्र रचा कि स्थानीय लोग रोजी-रोटी और सुलभ जीवन की आशा में यहाँ से पलायन पर मजबूर हुए . साथ ही साथ शुरुआत हुई धनकुबेरों को प्रदेश बेचने की क्रमिक योजना. स्थानीय जनता जिनका यहाँ के संसाधनों पर पहला हक होना चाहिए था, वो या तो इन लुटेरों के चौकीदार बन गए या पलायन कर गए.

सभी सरकारों का पहाड़ की समस्याओं के प्रति एक उपेक्षा का भाव रहा है. प्रदेश बनने के साथ ही आंदोलनकारियों की यह माँग थी कि प्रदेश की राजधानी गैरसैंण हो. यह प्रत्येक दृष्टि से स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप था, किंतु 18 साल के बाद भी यह सपना सपना ही है. पहाड़ के प्रति इन्ही उपेक्षाओं से लड़ते हुए श्री शमशेर सिंह बिष्ट ने अपना सारा जीवन लगा दिया लेकिन उनकी कीमत न राज्य ने समझी न जनता ने. मुझे हैरत होती है ये देखकर कि कैसे एक व्यक्ति अपना सारा जीवन पहाड़ की लड़ाई को समर्पित कर देता है और उसके संघर्ष की मूल भावना को समझते हुए भी सार्वजनिक रूप से उसके पक्ष में बस चंद लोग खड़े दिखाई देते हैं. ये कौन सा डर है? शायद ये पूंजी का डर है. किस तरह से जनता को राजनेताओं और पार्टियों ने एक मकड़जाल में जकड़ लिया है. ये समस्या भाजपा कांग्रेस से ऊपर एक जनता की लड़ाई में सामने आनी थी. पहाड़ को बचाना पहाड़ी की जरूरत थी, पार्टी के सदस्य तो हम उसके बाद थे.

विकास के नाम पर पहाड़ों की खरीद-फरोख्त कर सूबे के जिस्म को एक-एक कर नीलाम किया जा रहा है. जमीनों का हस्तांतरण बहुत तेजी से बाहरी लोगों को हो रहा है. इसके विरोध में आवाजें उठती हैं लेकिन उनको समर्थन न के बराबर है. हम सब कैदी हैं किसी ना किसी राजनैतिक संगठन के जो चाहते हुए भी पहाड़ की दुर्दशा पर आँख मूद लेते हैं. विकास के नाम पर पहाड़ों को चीरा जा रहा है, नदियों को कैद करने की कोशिशें जारी हैं और इन सब विनाशकारी कार्यों का नतीजा भुगत रहें हैं स्थानीय निवासी. पहाड़ी गाँवों के संरक्षण की कोशिश क्या किसी सरकार की प्राथमिकता रही? नहीं.

विशालकाय विद्युत परियोजनाओं के निर्माण द्वारा प्रदेश को विनाश के मुहाने पर खड़ा किया जा रहा है. सूबे की ऊर्जा जरूरतें छोटी छोटी परियोजनाओं से पूरी हो सकती हैं लेकिन दानवरूपी परियोजनाओं का निर्माण कर ऊर्जा उत्पादन और फिर अन्य राज्यों में भेजे जाने आम जनता को इतने बड़े संकट में क्यू डाला जाए? टिहरी के विस्थापित परिवारों के हालातों पर सोचने के लिए क्या किसी सरकार के पास वक्त है? इसी तर्ज पर पंचेश्वर बाँध की योजना एक और विनाशकारी कदम है जिससे हजारों लोग विस्थापित होगे. इस के निर्माण का विरोध हो रहा है किंतु लड़ाई इकाई के तौर पर जीती जाती है और पहाड़ के एक हिस्से का दूसरे की लड़ाई से अनभिज्ञ रहना ही सरकारों की ताकत है. जरूरत है एक इकाई के तौर पर विरोध करना अन्यथा सरकारों का कद अब हिमालय से भी ऊँचा हो गया है, उन्हे अब जमीन से चीखती पुकारती जनता की आवाज सुनाई हीं नहीं देती.

प्रदेश के विश्वविद्यालयों से निकला नेतृत्व राज्य आंदोलन की रीढ़ था, लेकिन क्रमशः सरकारों ने आंदोलनकारी और वैचारिक शक्तियों के इस स्रोत को लिंगदोह समिति की सिफारिशों के नाम पर लगभग खत्म कर दिया है. जनपक्षधर राजनीति के लिए उर्वर रही इस जमीन पर स्थानीय समस्याओं के लिए जागरूकता खत्म कर दी है. विमर्श सिर्फ उन्ही विषयों पर होता है जो सरकार करवाना चाहती है, हमारी हर मौलिकता पर अब राजनैतिक पार्टियों का कब्जा है.

पहाड़ को बचाने के लिए जरूरी है उसके गाँवों को बचाया जाए. स्कूल, कालेज, अस्पताल की सुविधा हमारा हक है सरकार की खैरात नहीं. हमें अपने पहाड़ को बचाना है. जल जंगल जमीन पर पहला हक वहाँ के लोगों का होना चाहिए. यही हमारी आदरणीय शमशेर सिंह बिष्ट को भी सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

एस. पी. यादव बैंककर्मी हैं. अल्मोड़ा से स्कूली व उच्चतर शिक्षा के दौरान करीब बारह वर्ष तक रहे. इसी दौरान अल्मोड़ा और पहाड़ से जो गहरा रिश्ता बना उसने दिल को उत्तराखंड से कभी दूर नही होने दिया. आज भी पहाड़ को और नजदीक से जानने के लिए घुमक्कड़ी जारी है.

वाट्सएप में पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

17 hours ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

18 hours ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

6 days ago

साधो ! देखो ये जग बौराना

पिछली कड़ी : उसके इशारे मुझको यहां ले आये मोहन निवास में अपने कागजातों के…

1 week ago

कफ़न चोर: धर्मवीर भारती की लघुकथा

सकीना की बुख़ार से जलती हुई पलकों पर एक आंसू चू पड़ा. (Kafan Chor Hindi Story…

1 week ago

कहानी : फर्क

राकेश ने बस स्टेशन पहुँच कर टिकट काउंटर से टिकट लिया, हालाँकि टिकट लेने में…

1 week ago