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उत्तराखण्ड का इतिहास भाग- 3

आद्यऐतिहासिक काल-

ऐतिहासिक काल से पूर्व चतुर्थ-तृतीय सहस्त्राब्दी पूर्व तक आद्यऐतिहासिक काल माना जाता है. उत्तराखण्ड में इस काल के प्रमुख स्त्रोत धार्मिक ग्रन्थ होने के कारण इसे पौराणिक काल भी कहा जाता है. इस काल वास्तविक सभ्यता की शुरुआत हुई. आद्यऐतिहासिक काल प्रागैतिहासिक युग और ऐतिहासिक युग के मध्य का संक्रमण काल है. जिसकी कुछ सामाग्री का कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है. इस युग की जानकारी के दो प्रमुख स्त्रोत पुरात्वीय अवशेष और आदि साहित्य साम्राग्री हैं.

साहित्य सामग्री में वैदिक साहित्य और पुराण सुरक्षित हैं. उत्तराखण्ड का पहला उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है. ऋग्वेद संहिता विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है. इस क्षेत्र को इसमें देवभूमि एवं मनीषियों की पूर्ण भूमि कहा गया है.

उत्तर वैदिक काल में आर्यों ने जिस दक्षिण-कुरु एवं दक्षिण सरस्वती की कल्पना की है वह प्रदेश मध्य हिमालय या उसके आस-पड़ोस का ही हिस्सा है. महाभारत काल में वर्तमान में स्थित उत्तराखण्ड क्षेत्र को ही उत्तरकुरु कहा गया. महाभारत के वन पर्व के अनुसार उस समय यह क्षेत्र कुणीन्द एवं किरात जातियों के अधीन था. कुणीन्दो के लिये प्रयुक्त पुलिन्द के राजा सुबाहु ने पांडवों की ओर से युद्ध लड़ा था. सुबाहु के बाद विराट का उल्लेख आता है जिसकी राजधानी जौनसार के पास विराटगढ़ी में थी. इसी की पुत्री से अभिमन्यु का जन्म हुआ. युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ऊत्तरकुरु देश से गंगाजल, पुष्प, बलसंपन्न औषधियाँ, पिपीलिका-स्वर्ण के भार तथा मधु भेंट में आया था. इस संदर्भ में यहाँ जागुड, रामठ, खश, तड़ग्णादि जातियों के नाम मिलते हैं.

उद्योगपर्व में वर्णित भारत युद्ध में दुर्योधन के पक्षधर ‘पर्वातीयाः’ ऋग्वैदिक ‘पारावत’ जन ही थे. जिन्हें आज भी उत्तरकाशी जनपद में ‘पर्वती’ कहा जाता है. इसी प्रकार वनवासकल से लौटते समय पांडव एक रात्रि ‘सुबाहुपुर’ में रुके थे सुबाहुपुर की पहचान गढ़वाल में श्रीनगर के रूप में की गयी है. इसीकाल में श्रीकृष्ण के समकालीन बाणासुर का भी उल्लेख मिलता है. उसकी राजधानी शोणितपुर की स्थिति अनेक प्रमाणों में गढ़वाल हिमालय में बामूस स्थिर होती है.

इस काल की पुरात्विक साम्राग्री में सबसे महत्वपूर्ण महापाषाणकालीन कप-मार्क्स, चित्रित धुसित मृदभांड आदि हैं. विशाल पत्थर के टुकड़ो या चट्टानों पर बने उखल आकार के गोल गड्ढे पुरातत्वविज्ञान में कप-मार्क्स कहे जाते हैं सबसे पहले 1856 में हेनवुड ने चम्पावत के देवीधुरा स्थान पर ऐसी ओखलियों की खोज की. देवीधुरा में उत्तराखण्ड में पहली बार पुरातत्विक खोज प्राप्त हुई. रिवेट-कारनक को अल्मोड़ा के द्वाराहाट में चंद्रेश्वर मंदिर के पास महाश्म संस्कृति ( Megalithic Culture ) से संबंधित विभिन्न आकारों के दो सौ कप-मार्क्स बारह समानांतर पंक्तियों में मिले. उसी के समान पं. रामगंगा घाटी में स्थित नौला गाँव में स्थित देवीमंदिर परिसर में यशोधर मठपाल ने कप-मार्क्स खोजे. उन्हें अल्मोड़ा के नौगाँव, मुनिया-कीढाई तथा जोयों गाँव के समीप भी ऐसी ओखलियां खोजी हैं. यशवंत सिंह कठोच ने गोपेश्वर के पास मण्डल और पं. न्यार घाटी में ग्वाड आदि जगह की चट्टानों पर ऐसी ओखलियाँ खोजी हैं. अभी तक इस काल में मानव ने इस प्रकार के कप-मार्क्स का निर्माण किस कार्य के लिए किया होगा का पता नहीं है.

मलारी के मिट्टी के बर्तन

ताम्र संस्कृति में उपरी गंगा बेसिन को प्राचीनतम संस्कृति माना जाता है. 1951 में हरिद्वार में ही बहादराबाद में नहर खोदते समय भाल्लाग्र ( spear-head ), वासियों ( celts) और कड़ों ( rings ) के रूप में ताम्र उपकरण मिले. यहां से प्राप्त पाँटरी नर्मदा और गोदावरी घाटियों से प्राप्त पाँटरी के समान है. यहीं से लाल मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुये हैं. जिसे पुराविदों ने किसी ताम्रयुगीन या उत्तर पाषाणकालीन सभ्यता के अवशेष माना है. इसके अतिरिक्त 1956 में अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ में भी ताम्र उपकरण मिले. अल्मोड़ा में एक और पिथौरागढ़ के बनकोट में एक समान आठ ताम्र-उपकरण प्राप्त हुये. इसकाल में गढ़वाल व् कुमाऊँ में रहने वाले ताम्र निर्माता धनपुर, पोखरी, डांडा, तम्बखानी, अस्कोट की ताम्र खानों पर निर्भर थे.

1956 में गढ़वाल हिमालय में मलारी नामाकर स्थान पर कुछ शवाधन खोजे गये. शिव प्रसाद डबराल के अनुसार किनौर में लिप्पा की समाधियों के समान ही मलारी के शवाधान मंडलाकार गर्तों जैसे थे. जिनमें मानव, अश्व एवं मेढ़ो के कंकालों के साथ, सिर के पास विभिन्न आकार के टोंटी एवं हत्ठेयुक्त कुतुप मिले हैं. 15 इंच  के कुतुप प्रायः चमकदार पालिशिंग है जिनके हत्थे पर आकर्षक मोनाल बना हुआ है. शवों को घुटने मोड़कर औन्धा लेटाया गया था. इसप्रकार की प्रथा 200 ई.पू. सियाल्क, अफगानिस्तान, मध्य एशिया आदि देशों में देखने को मिलती थी.

इन शवाधानों की समानता स्वात-घाटी की गांधार शवागृह से भी की जाती है. कुछ पुराविदों ने इसे आर्यों से भी जोड़ा है. 1995-96 में गढ़वाल विश्वविद्यालय द्वारा किये गये उत्खनन से रामगंगा घाटी में ही महापाषाणकालीन सभ्यता के अनेक शवाधान खोजे गये. सानणा- बसेड़ी से प्राप्त शवाधनों में मिटटी के बर्तन सिर के समीप रखे मिले हैं जिनमें तश्तरियां, कटोरे, घट, चषक, पेंदेयुक्त तथा पेंदेराहित कटोरे हैं. पिन, कील और दात्र के रूप में लोहे के उपकरण भी शवागारों से मिले हैं.

 

डॉ यशवंत सिंह कठोच की पुस्तक उत्तराखण्ड का नवीन इतिहास के आधार पर.

पिछली कड़ी उत्तराखंड का इतिहास – भाग 2 

 

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Girish Lohani

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