यायावरी-घुमक्कड़ी का शौक़ कई लोगों को होता है और लेखन प्रतिभा सम्पन्न भी असंख्य होते हैं किंतु इन दोनों का सामंजस्य विरलों में ही देखने को मिलता है. सौभाग्य से उत्तराखण्ड को एक ऐसा सपूत मिला था – प्रकाश पुरोहित जयदीप, जिसमें न केवल जान हथेली पर रखकर घुमक्कड़ी करने की प्रवृत्ति थी बल्कि अद्भुत लेखन और चित्रांकन प्रतिभा भी थी. प्रकृति के मनोरम चित्रात्मक दृश्यों को काव्यमय भाषा में ढालना और कविता-सदृश दृश्यों को सुंदर रेखाचित्रों में अनूदित करना तो जैसे उसकी सहज प्रवृत्ति ही बन चुकी थी. पहाड़ों में रह कर पहाड़ों से प्रेम अधिकांश पढ़े-लिखे पहाड़ियों को भले ही फितूर लगता हो किंतु जयदीप के लिए ये ही पहाड़ किसी तिलिस्म से कम न थे. पहाड़-पर्वत-ताल-ग्लेशियर-बुग्याल के हर तिलिस्म पर जब तक वह अपने पदचिह्नों की मोहर न लगा देता, उसे चैन न रहता था. अपनी एक डायरी में जयदीप ने अपना विवरण कुछ इस तरह दर्ज़ किया था – (Prakash Purohit “jaideep”)
ऑफिस-समाज, दूरभाष-नदी-नाले, निर्झर, भंवरे, टेलेक्स-बरसते बादल, फैक्स-झील का पानी, आवास-गिरि कन्दरा, बुग्याल और पर्वत, दूरभाष नं.-संख्या से परे, पासपोर्ट नं.- जरूरत नहीं, क्रेडिट कार्ड नं.- फिज़ूल, ड्राइविंग लाइसेंस नं.- पाँव सलामत हैं, उँचाई-मेघछाया, वेस्ट-बाग बगीचे, चेस्ट-वन प्रांतर, हिप्स-जादुई टीले, काॅलर-फूलों लदा झालर, शूज़-वनस्पतियां, दुर्घटना होने पर संपर्क करें- इस चरम और परम आनन्द की अनुभूति में पगा मन कभी दुर्घटनग्रस्त नहीं हो सकता.
प्रसिद्ध तीर्थ बदरीनाथ धाम में, प्रकाश पुरोहित जयदीप का जन्म 1962 की बैसाखी को हुआ था. पैतृक गाँव जनपद चमोली में नंदप्रयाग के समीप सकण्ड था. प्रारम्भिक शिक्षा जखोली में हुई थी. जखोली ब्लॉक में वो कक्षा-5 की परीक्षा में टॉपर भी रहे थे. पिता उदयराम पुरोहित लघुउद्यमी थी और माता कमला एक कुशल गृहणी. प्रतिभा के धनी जयदीप ने 11 साल की अवस्था में ही मधुवाही और मधुरिमा नाम से दो नोटबुक स्वरचित कविताएँ लिख कर भर दी थी. 17 साल की अवस्था तक वो सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, काका कालेलकर, विष्णु प्रभाकर, बनारसी दास चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, सोहनलाल द्विवेदी जैसे दिग्गज साहित्यकारों से पत्रव्यवहार करने लगे थे.
एम.ए. हिंदी में गोल्ड मेडलिस्ट जयदीप ने पत्रकारिता, गाइडिंग और आर्ट में डिप्लोमा भी प्राप्त किया किंतु कैरियर के रूप में पत्रकारिता को चुना. नवभारत टाइम्स, अमर उजाला, हिमालय दर्पण सहित दर्जनों क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं के साथ संवाददाता के रूप में जुड़े रहे. कादम्बिनी, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, नवनीत, गृहशोभा, सरिता, मनोरमा, वामा, नंदन, पराग जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में जयदीप के सैकड़ों आलेख, फीचर, यात्रा-संस्मरण प्रकाशित होते थे जिन्हें पाठक खूब पसंद करते थे. कहानी, कविता जैसी विधाओं में भी लेखन किया. प्रख्यात कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ने जयदीप के पत्र के जवाब में लिखा था कि आपके पत्र को पढते समय मुझे ऐसा लगा कि मैं भविष्य के प्रसाद और पंत को पढ़ रहा हूँ. (Prakash Purohit “jaideep”)
अमर उजाला में ही तत्समय मेरठ में कार्यरत, पत्रकार शंकर सिंह भाटिया जयदीप के बारे में लिखते हैं कि वे अपनी बात रखने में जितने प्रखर थे उतनी ही सुघड़ उनकी लिखावट तथा साजसज्जा होती थी. जैसे कि हस्तलिखित रूप में ही उन्हें प्रकाशित किया जाना हो. ये भी जानना जरूरी है कि जयदीप का प्रेरणास्रोत कौन था. उसके ही शब्दों में – मेरी प्रेरणा पहाड़ की घसेरियां हैं. एक घसेरी रात की बची बासी रोटियां खाकर मीलों दूर खड़खड़ी चट्टानों पर दिन भर घास बीनती फिरती है. और साँझ ढले जब वापस घर लौटती है तो क्या पुरस्कार पाती है? सास के ताने, काले ओबरे में सुलगती लकड़ियों का धुआं और दोपहर का बचा बासी भात… लिखने वाले भी यही सब पाते हैं. घसेरी को जो भी अपनी प्रेरणा बनायेगा, बासी रोटियों में भी पूड़ियों का स्वाद पायेगा.
उत्तराखण्ड के लगभग सभी ट्रैकिंग रूट्स जयदीप ने अकेले या साथियों के साथ किए थे और अपने आत्मीय, रोचक लेखन से यादगार आलेख, संस्मरण उनके बारे में लिख कर प्रकाशित भी कराये थे. प्रो. प्रभात उप्रेती जयदीप के लेखन को विश्लेषित करते हुए लिखते हैं कि प्रकाश का लेखन, उत्तराखण्ड के भूगोल, सामाजिक जीवन तथा संस्कृति में रुचि रखने वाले लोगों के लिए जानकारी के नए आयाम देता है. जिन आयामों को सरकारी या शोधीय लेखन छू भी नहीं पाया है. प्रकाश को अक्सर पहाड़ का राहुल सांकृत्यायन कहा जाता है पर वह राहुल की तरह उलझाव लिए शास्त्रीय बुद्धि वाला नहीं था. वह तो अपने में प्रकाश था जिसके लेखन में कविता बोलते हुए भी गद्य के यथार्थ को नहीं भूलती. जहाँ कल्पनाएं भी दिखती हैं पर वो फैंटेसी नहीं है. उसका लेखन अत्यंत मौलिक है जिसमें जानकारी के साथ-साथ एक गहरी संवेदना भी चलती है.
मंझोले कद, घुँघराले बाल वाला जयदीप के नाम से लोकप्रिय गौरवर्णी सुदर्शन युवक प्रकाश पुरोहित पहाड़ के प्रति समेटा अपना अनुराग और पीड़ा को अपने काव्यमय लेखों में इस तरह वर्णित करता था कि लगता था जैसे पाठक को अंगुली पकड़ कर एक ऐसे संसार में ले जाना चाहता हो जहाँ न राग-द्वैष है न कूड़ा-कचरा भरा प्रदूषण. है, तो सिर्फ निश्छल प्रकति का अनंत विस्तार. ऐसे अनदेखे-अनछुए प्राकृतिक सुषमा वाले स्थलों से मिलने और पाठकों को मिलाने के लिए वो सदैव लालायित रहता था और सक्रिय भी.
जयदीप के लेखन में ग्लेशियरों, बुग्यालों, तालों और फूलों की ही बात नहीं है, इन सबके खत्म होने के खतरे तथा संवरने की संभावनाओं की भी बातें हैं. यूज़ एण्ड थ्रो वाली डिस्पोजल-कल्चर को देखकर उसका मन व्यथित होता था और इसे रोकने, नियंत्रित करने के प्रति जागरूकता लाने के लिए वो अपने लेखों, चि़त्रों में भरपूर प्रयास भी करता था. जयदीप, उत्तराखण्ड में ईको-टूरिज्म का पहला स्वप्नद्रष्टा भी था. प्रख्यात इतिहासकार और हिमालयी-ज्ञान के विशेषज्ञ शेखर पाठक जयदीप के बारे में लिखते हैं कि वह मुझे पहली ही मुलाकात में ही मृगछौना-सा लगा था – निश्छल और दुर्लभ. सर्वाधिक महत्वपूर्ण उसका दूरस्थ-दुर्गम इलाकों में मौजूद रमणीक स्थलों तक निरंतर जाने का सिलसिला था. अनेक अचर्चित, और अपरिचित झीलों, ग्लेशियरों, दर्रों, गाँवों तक वह अकेला और सदल जाता रहा. Prakash Purohit “jaideep”
बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न जयदीप का दुर्भाग्य ये रहा कि आयु उनके हिस्से में कम आयी. मात्र 36 साल की अवस्था में जयदीप का वर्ष 1998 में, होली के दिन चोपता के समीप घने-निर्जन जंगल में एक कार-दुर्घटना में निधन हो गया था. जीवन का हर क्षण यात्रा में, यात्रा की योजना बनाने और फिर यात्रा-अनुभव को लिपिबद्ध करने में बिताने वाला जयदीप अपनी पत्नी से कहा करता था – वास्तव में उत्तराखण्ड को घूमने के लिए सात जन्म लेने पडेंगे. इस एक जन्म में तो इन्सान यहाँ की पूरी प्रकृति को आत्मसात नहीं कर सकता है. किरन पुरोहित, जयदीप की अर्द्धांगिनी हैं और अपने गैर सरकारी संगठन के जरिए जयदीप की सोच को व्यवहारिक धरातल पर साकार करने में सफलतापूर्वक सक्रिय हैं. कुछ वर्षों तक प्रकाश जयदीप नाम से एक मासिक पत्रिका का भी संपादन-प्रकाशन किया गया. जयदीप के नाम से उत्तराखण्ड में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान देने वाली विभूतियों को जयदीप-सम्मान भी दिया जाता है. रागिनी और शिवानी उनकी पुत्रियां हैं जो चिकित्सक के रूप में अपना योगदान दे रही हैं.
ये भी विडंबना रही कि जयदीप ने सैकड़ों आलेख लिखे, सैकड़ों ट्रैक किए, सैकड़ों रंगीन व श्वेत-श्याम स्केच-पेंटिंग-पोस्टर बनाए, दर्जनों विशिष्ट यात्रा-अभियानों में सम्मिलित रहा और हजारों अद्भुत फोटोग्राफ्स भी लिए पर जीवनकाल में अपनी कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं कर सके. क्योंकि ये उनकी प्राथमिकता भी नहीं थी और न ही इतनी फुर्सत ही उनके पास थी. जयदीप के निधन के बाद उनके लेखों का संग्रह – जिंदा रहेंगी यात्राएँ, नाम से प्रतिष्ठित पहाड़ प्रकाशन द्वारा 1999 में प्रकाशित हुई.
वर्ष 2001 में उत्तरांचल: स्वप्निल पर्वत प्रदेश नाम से एक और पुस्तक प्रकाशित हुई. दूसरी पुस्तक का संपादन इन पंक्तियों के लेखक के द्वारा किया गया जबकि पहली का लेखक ने प्रो. प्रभात उप्रेती और चित्रकार सुरेश वर्मा के साथ संयुक्त संपादन किया है. मैं और पहाड़, विरासत और हिमालय की चेतावनी जयदीप के आलेखों की अन्य संपादित कृतियां हैं जिनका संपादन क्रमशः जे.पी.मैठाणी व सुरेश वर्मा द्वारा किया गया है. (Prakash Purohit “jaideep”)
उत्तराखण्ड को पर्यटकों के ड्रीम-डेस्टिनेशन्स की अपार संभावनाओं वाले क्षेत्र के रूप में पहचान दिलाने वाले यायावर यात्री-लेखक-चित्रकार-पत्रकार का संपूर्ण व्यक्तित्व उसकी रचनाओं-यात्रावृतांतों-चित्रों को देख-परख कर ही समझा जा सकता है फिर भी मैं कहना चाहूंगा –
उसने पैरों से पढ़ा था भूगोल
और आँखों से अर्जित किया सौंदर्य
वो स्वयं को कविता बनाता रहा
सारी दुनिया को सुनाता रहा.
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.
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