1954 में उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद में जन्मे अष्टभुजा शुक्ल (Ashtbhuja Shukla) वर्तमान हिन्दी कविता के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में शामिल हैं. चुटीली भाषा और समाज पर पैनी निगाह उनके काव्य की पहचान है. उनकी कविताओं का व्याकरण बहुत ही अभिनव है जिसने उन्हें कविता प्रेमियों के बीच अच्छी शोहरत दिलाई है. उनके तीन कविता संग्रह छपे हैं – पद-कुपद, चैत के बादल और दुःस्वप्न भी आते हैं. उन्हें उनके रचना कर्म के लिए अनेक सम्मान मिल चुके हैं जिनमें प्रमुख हैं – केदार सम्मान (2009) और श्रीलाल शुक्ल इफको स्मृति सम्मान (2016). प्रस्तुत कविता शुरू में एक बने बनाए पैटर्न पर चलती दिखाई देती है और जब उसमें कवि का खिलंदड़ रूप प्रविष्ट होता है आप हतप्रभ रह जाते हैं!
सतयुग, कविता और एक रुपया
– अष्टभुजा शुक्ल
जैसे कि एक रुपये माने चूतियापा यानी कि कुछ भी नहीं
वैसे ही एक रुपये माने बल्ले-बल्ले यानी कि बहुत कुछ
और कभी-कभी सब कुछ
निन्यानबे पैसे सिर्फ बाटा वालों के लिए अब भी एक क़ीमत है
हक़ीक़त यह है कि एक रुपया
एक कौर या सल्फास की गोली से भी कम क़ीमत का है
एक रुपये का एक पहलू एक रुपये से भी कम है
तो दूसरा पहलू अशोक-स्तम्भ यानि कि समूचा भारत
और भारतीयता की क़ीमत बाटा के तलवों से भी नीचे है
उसके नीचे नंगी इच्छाएँ कफ़न के लिए सिसक रही हैं
आधा भारत एक रुपये से शुरू होकर सिर्फ़ धकधकाता है
और भिवानी की तरह सिकुड़कर एक रुपये तक सिमट जाता है
गर्मियों में इतनी ठंडी किसी कोने में रख देने की चीज़ है
जैसे बेइमानियाँ बहुत जतन से रखी जाती हैं
वहीं पर अब एक रुपये क़बूल करने में गोल्लक मुँह बिचकाता है
और बिजली नहीं रहती तो जनरेटर से फ़ोटो कॉपी करने वाले
एक का तीन वसूलते हैं
एक रुपये तेल का दाम बढऩे से दस मिनट लेट से निकलते हैं
लोग घर से कि इतनी तेज़ उडऩे लगेंगी सवारी गाडिय़ाँ
कि दुर्घटनाओं की ख़बरों से पटे मिलेंगे सुबह के अख़बार
न एक रुपये में अगरबत्ती न नहाने धोने का सर्फ़ साबुन
न आत्मा की मैल छुड़ाने वाला कोई अध्यात्म
उखड़ी हुई कैची का रिपिट लगाने में भी एक रुपया नाकाफ़ी
एक पन्ने पर एक रुपया एक रूपया लिखकर भर डालने के लिए भी
कोई एक रुपये का मेहनताना लेने के लिए तैयार नहीं होगा
बल्कि मुफ़्त में वह काम करके अपमानित कर देगा
एक रुपये को जैसे इसे केन्द्र में रखकर लिखी गई
यह कविता नामक चीज़ जिससे पटा हुआ बाज़ार
ऐसी कविताएँ यदि मर जाएँ बिना किसी बीमारी के
तो दो घंटे भी ज़्यादा होंगे कुछ आलोचना को रोने के लिए
इससे सिर्फ़ इतना भर नुकसान होगा कि
विलुप्त हो जाएगी कवियों की नस्ल और तब खाद्यान्न का संकट
कुछ कम झेलना पड़ेगा इस महादेश की शासन व्यवस्था को
ऐसी कविताओं की एक खासियत ये आलोचनाहंता है
दूसरी यह हो सकती है कि किसी प्रकार की उम्मीद की
जुंबिश से भी ये समाज को काफ़ी दूर रखती हैं
जैसे हमारे समय का कवि ख़ुद को काफ़ी दूर रखता है अपने समाज से
आने वाला समय शायद साहित्य के इतिहास को कुछ इस
तरह रेखांकित करेगा कि हमारा समय एक कविता-शून्य समय था
इसीलिए यह कविता के लिए सबसे बेचैन रहने वाले समय के रूप में
जाना जाएगा और विख्यात होगा उतना ही जितना कि
अपने तमाम अवमूल्यन के लिए कुख्यात हो चुकी है एक रुपये की मुद्रा
फिर भी अरबों की संख्या भी नहीं काट सकती एक विषम संख्या को
क्योंकि एक– एक आधारभूत विषम संख्या है
वैसे ही जब मर जाएगी एक रूपये की मुद्रा तो उसकी अन्त्येष्टि में
माचिस की एक तीली भी ख़र्च नहीं करनी पड़ेगी लेकिन
तबाही मचेगी वह कि रहने वाले देखेंगे तांडव
और मन ही मन मनाएँगे कि हे प्रभु
कि क़ीमतें चीज़ों की या कवियों की
किसी भी विधि से, अनुष्ठान से या किसी अनियम से भी
घट जाती एक रुपये तो वापस आ जाता बल्ले-बल्ले
वापस आ जाती हमारी बिकी हुई कस्तूरी, केवड़ा
और जितनी भी महकने वाली चीज़ें, हमारी दुनिया से ग़ायब हो चुकी हैं
वैसे ज़्यादा से ज़्यादा सच बोलने के इन दिनों में
झूठ क्या बोला जाय पाप बढ़ाने के लिए
क्योंकि अपराध तो वैसे ही आदतन इतना बढ़ चुका है
कि घटते घटाते कम से कम हाथी जितना बचेगा ही
इसलिए कहना पड़ता है कहकुओं को कि
एक रुपये के मर जाने से दुनिया किसी
संकट में नहीं फँसेगी
क्योंकि उसके विकल्प के रूप में अब चलाई जा सकती है
हत्या, बेरोज़गारी, बलात्कार और आत्महत्या में से कोई भी एक चीज़
और समाज की जगह थाना, एन०जी०ओ०, कैफ़े साइबर, बार
या कोई राजनीतिक पार्टी इत्यादि
लेकिन उखड़ी उखड़ी बातों के झुंड से
अगर निकल आए काम की एक कोई पिद्दी-सी बात भी
तो मानना पड़ेगा कि कविता की धुकधुकी अभी चल रही है
और अगर एक रुपये क़ीमतें घट जाएँ किसी भी अर्थशास्त्र से
तो फिर वापस आ जाएगा सतयुग
वानर सबके कपड़े प्रेस करके आलमारियों में रख देंगे
शेर आएगा और कविता लिखते कवियों को बिना डिस्टर्ब किए
साष्टांग करके गुफ़ा में वापस लौट जाएगा
सफाईकर्मियों को शिमला टूर पर भेजकर
राजनीति के कार्यकर्ता गलियों में झाडू लगाएँगे
पुलिस की गाड़ियाँ प्रेमियों को समुद्रतट पर छोड़ आएँगी
पागुर करते पशु धरती पर छोटे-छोटे बताशे छानेंगे
बादल कहेंगे हे फसलों तुम्हें कितने पानी की दरकार है
और वह साला सतयुग राम नाम का जाप करने
या रामराज्य पर कविता लिखने वाले महा-महाकवियों की वाणी से नहीं
बल्कि चीज़ों की क़ीमतें एक रुपये घट जाने से आएगा…
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