अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों के दौरान मेरे गाँव के लोग स्थायी गाँव से दूर खेड़े (मंजरों) में जमीन कमाने जाते थे. गाँव के अन्य बच्चों की तरह मैं भी अपने परिवार वालों के संग हो लेता. वहीं खेल कूद हो जाता और खेत में काम कर रहे लोगों को पानी पिलाने जैसे छोटे-मोटे काम भी कर लेता. मुझे याद है जब खेतों के आस पास चारा पत्ती के पालतू पेड़ों पर गाँव के लोगों द्वारा दिन के भोजन हेतु साथ लायी गई रोटियाँ, जो खाल या कपड़े के थैलों मे बंधी होती और पानी के लिए इस्तेमाल होने वाले तुम्बे, जो एक किस्म के प्राकृतिक थर्मस का काम करते, जगह-जगह टंगे दिखाई पड़ते. तुम्बा लौकी की ही एक प्रजाति है. आदि काल से तुम्बे मध्य भारत एवं हिमालय के इन नदी घाटी क्षेत्रों में पानी एवं घरेलू इस्तेमाल में काम आने वाले अन्य तरल पदार्थों को रखने एवं लाने ले जाने के काम में लाये जाते रहें हैं. मजबूती में यह मिट्टी के बर्तन के समकक्ष ही होता है. किफ़ायत से रखने पर यह सालों साल चल जाता है. और यदि टूट जाय तो यह मिट्टी में उर्वरक के रुप में बहुत आसानी विलीन हो जाता.
सड़क मार्गों के स्थायी गाँवों से पहले जुड़ने के कारण यह खेड़े मंजरे अब स्थायी गाँवों के रूप में आबाद हो चुके है. लोग अब भी यहाँ खेती-बाड़ी ही करते हैं, फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि पारम्परिक फ़सलों की जगह अब नकदी फ़सलों ने ले ली है जो कि समय की माँग है लेकिन पारम्परिक खाल के थैलों और तुम्बों की जगह अब प्लास्टिक एवं पालिथीन की थैलियों और प्लास्टिक की इस्तेमाल हो चुकी बोतलों ने ले ली है. हल्की-फ़ुल्की और मजबूत. टूटने-फ़ूटने का डर नहीं, खो जाये तो गम नहीं. मैं बचपन की स्मृतियों में जाकर खूब याद करने की कोशिश करता हूँ लेकिन तब प्लास्टिक या इससे बनी किसी भी वस्तु जो रोजमर्रा इस्तेमाल मे लायी जाती हो, लेकिन याद नहीं आता. आज प्लास्टिक पहाड़ के हर व्यक्ति के जीवन में शामिल मिलता है. उपभोक्तावाद की पराकाष्ठा यह है कि लगभग हर बिकाऊ चीज के साथ प्लास्टिक सामानांतर हो चला है. हमारी आधुनिकता पूरी तरह से प्लास्टिक पर निर्भर है. जहाँ मैदानी क्षेत्र के शहरों के लोग इस धीमे जहर से पारिस्थितिकी को होने वाले दुष्परिणामों से दो-चार होकर सजगता दिखा रहे हैं वहीं पहाड़ के शहर, कस्बे एवं गाँव का समाज और स्थानीय प्रशासन आँखें मूँदे विकास की अलग परिभाषा गढ़ रहा है.
इसका परिणाम यह है कि पर्यटन के लिए प्रसिद्ध उत्तराखण्ड के पर्यटन स्थल प्लास्टिक के कचरे से भरे पड़े हैं. हवा के साथ यह प्लास्टिक का कचरा इनसे लगे जंगलों में काफ़ी अन्दर तक पहुँच गया है. जो हर साल दावानल के लिए ईंधन का काम करता है. इन पर्वतीय स्थलों की खूबसूरती को चार चाँद लगाते देवदार, बाँज एवं अन्य पेड़ तने-तने तक कचरे से पटे पड़े होते हैं जिसमे प्लास्टिक का कचरा मुख्यत् होता है. उपर से विकास के नाम पर लापरवाह ईंजीनियरों एवं अर्द्ध शिक्षित ठेकेदारों द्वारा बनाया गया छ्दम् ड्रेनेज सिस्टम, जो केवल सरकारी पैसे को ठिकाने लगाने का अभेद अस्त्र है, कोढ़ में खाज के जैसा है. छोटे कस्बों एवं गाँव के बाजारों में रुके हुए पानी और प्लास्टिक के कचरे से बजबजाती खुली नालियां आपको हर जगह विद्यमान मिलेगी. कमोवेश यही हाल अन्य पहाड़ी शहरों का भी है. तेजी से पनपते उपभोक्तावाद के चलते उगते बाजार इस प्लास्टिक कचरे का मुख्य स्रोत है. सरकार की तरफ़ से पहाड़ के किसी भी गाँव या कस्बे मे साफ़ सफ़ाई से संबंधित कोई व्यव्स्था है ही नहीं. राज्य सरकार और पहाड़, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिए कागजों पर समर्पित गैर सरकारी संगठनों का स्वच्छ्ता अभियान होटलों के सभागारों तक ही सीमित रहता है, जहाँ सरकारी धन की आहुति अनवरत रूप से जारी है.
क्योंकि प्लास्टिक के कचरे के त्वरित दुष्परिणाम दिखाई नहीं देते इसलिए पहाड़ के अधिकतर स्थानीय निवासी इसके दुष्परिणामों को लेकर चिंतित नहीं दिखाई देते. इस बात का अन्दाजा यहाँ से लगाया जा सकता है कि पहाड़ के स्थानीय दुकानदारों द्वारा प्लास्टिक के कचरे को रोज सुबह जलाते हुए देखा जा सकता हैं और इस प्रक्रम के दौरान पैदा होने वाला विषैला धुआँ पर्यावरण के लिये क्या समस्याएं पैदा कर सकता है वे इस बात से अनभिज्ञं होते हैं. खेत में काम करता किसान बीज का पैकेट फ़ाड़कर बीज को बो देता है लेकिन प्लास्टिक का खाली रेपर वहीं फेंक देता है. कीटनाशकों एवं खेती बाड़ी मे इस्तेमाल होने वाले अन्य रासायनिकों की खाली प्लास्टिक की बोतलें बगीचों एवं खेतों में यहाँ वहाँ कुछ-कुछ दूरी बाद ही नजर आने लगती है. पालिथीन बाजार से घरों में रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाले सामान के साथ आता है और मतलब पूरा होते ही घरों के बाहार हवा के हवाले हो जाता है. शीतल पेय की खाली हो चुकी प्लास्टिक की बोतलें, जो लंबे समय तक इस्तेमाल होती है, फ़ेंकने के बाद उसके अन्दर पानी सड़ता रहता है और वह अपने क्षेत्रफ़ल के बराबर जमीन को बाँझ कर देती है. साबुन गुड़ एवं तथा अन्य खाद्य पदार्थों के लिए इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के बोरे, पालिथीन में फ़ेंका गया घर का कूड़ा, जिसमे भोज्य पदार्थों के अवशिष्ठ भी रहते हैं, पालतू जानवरों को आकृषित करतें है और परिणाम स्वरुप बहुत से पशु बे-मौत मारे जाते है. विकास की कवायद के तहत अंधाधुंध बनती सड़कों, बाँधों और कंकरीट के उगते म्यांदी जंगल वैसे ही हर साल तबाही लाते रहते है उपर से जल, मृदा एवं वायु प्रदुषण के मुख्य स्रोत इस प्लास्टिक से होने वाले दुष्परिणामों से यदि समय रहते सचेत न हुआ गया तो कुछ एक वर्षों बाद पारिस्थितिक़ी संतुलन गड़बडाना शुरु हो जाएगा. जिसके परिणाम यह होंगे की भंगुर और भुरभुरे हिमालय के पहाड़ दरकने शुरु हो जायेंगे.
पहाड़ी क्षेत्रों को लेकर प्लास्टिक जनित प्रदूषण को रोकने के लिए केंद्र सरकार सहित विभिन्न राज्य सरकारों के कानून और अधिनियम का धरातल से कोई वास्ता नहीं दीख पड़ता. यहाँ प्लास्टिक पर प्रतिबंध कागजी नजर आता है. सरकार को चाहिए कि लोगों को जागरुक करने के लिए सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर स्वेच्छा से काम करने वाले लोगों को प्रशिक्षण दे कर उन्हे प्रोहत्साहित करें ताकि वो गाँव-गाँव जाकर लोगों को प्लास्टिक के कचरे के निपटान और इससे होने वाले किसी भी स्तर के नुकसान से अवगत करवा सके. इसके अलावा सरकार को साथ के साथ ही प्लास्टिक के स्थान पर पर्यावरण के अनुकूल स्थानीय पारम्परिक विकल्पों का अध्य्यन कर उन्हें भी प्रोहत्साहित करना चाहिए. नकद व्यवसाय से जुड़े लोग जो निजी स्वार्थ के लिए प्लास्टिक का इस्तेमाल करते हैं और पर्यावरण से संबंधित समस्याओं को हाशिए पर रखे हुए हैं, पॉलीथीन व प्लास्टिक की थैलियों को खरीद फ़रोख्त में इस्तेमाल करने वालों से सख्ती से निपटने के लिए सरकार और स्थानीय प्रशासन को जमीनी स्तर पर हरकत में रहना चाहिए क्योंकि हमारे देश में कानूनों की तो कमी नहीं है, कमी है तो बस उन्हें सख्ती से लागू करने की.
स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…
View Comments
सुभाष तराण जी को मेरा नमस्ते सर आप लिखते रहे बहुत अच्छा लगता ह ये सब पड़ कर, ऐसा लगता है मानो आज आधुनिक ओर तकनीक से समय मे जैसे सब कुछ ही बदल दिया हो जैसा कि अपने बताया है कि प्लास्टिक एक ऐसा जहरीला जहर है जो हर मनुष्य इसको पीता जा रहा है ओर वो दिन दूर नही जब यह प्लास्टिक ही मनुष्य को एक दुलभ संकट में डाल देगा ।