फोटो : भगवान घिमिरे की फेसबुक वाल से साभार
कल अर्थात 13 सिंतबर को भाद्रपद महीने की पूर्णिमा है. इस मास के समाप्त होने पर आश्विन मास की शुरुआत होती है. परम्परा है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में पितृ पक्ष मनाया जाए और श्राद्ध-तर्पण इत्यादि से उनकी स्मृति का सम्मान किया जाए.
इस श्राद्ध पक्ष में हर तिथि की अपनी अपनी विशेषता है और दिन के हिसाब से अलग-अलग श्राद्ध के नियम नियत हैं. अपने पितरों को याद करने की इस परम्परा का उत्तराखंड में बहुत महत्त्व है और इस अवधि में खान-पान और रहन-सहन में अनेक तरह के नियंत्रण रखना अनिवार्य माना जाता है.
पितृ पक्ष की शुरुआत के दिन अर्थात 13 सितम्बर को उन पितरों का श्राद्ध किया जाना होता है जिनका देहावसान पूर्णिमा के दिन हुआ हो. अगले दिन अर्थात प्रतिपदा की तिथि को किसी भी महीने के कृष्ण और शुक्ल पक्षों की इस तिथि को मृतक हुए लोगों का श्राद्ध किया जाता है.
इसी तरह द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी और पंचमी के दिन दिवंगत हो गए लोगों का श्राद्ध तिथि के हिसाब से किया जाता है. अविवाहित लोगों का श्राद्ध भी इस दिन किये जाने का प्रावधान है.
यही बात षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी और दशमी पर भी लागू होती है. अलबत्ता यदि किसी महिला की मृत्यु की तिथि पता न हो तो उसका श्राद्ध भी नवमी को ही किया जाता है.
एकादशी का दिन तिथि के हिसाब से मृतक हुए लोगों के अलावा सन्यासियों के श्राद्ध के लिए तय होता है.
द्वादशी औत त्रयोदशी पर भी तिथि के हिसाब से श्राद्ध होते हैं और इसके अलावा बच्चे का श्राद्ध त्रयोदशी को किया जाता है.
दुर्घटना में मारे गयों के लिए चतुर्दशी का दिन नियत है जबकि अमावस्या के दिन जिसे सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या कहते हैं, सभी पितरों को सामूहिक रूप से श्राद्ध अर्पित किया जाता है.
इसी परम्परा के तहत बात अगर ‘हवीक’ की करें, तो ये एक ऐसी पितृ क्रिया है, जिसमें श्राद्ध के पिछले दिन प्रातः तर्पण के उपरान्त पूरे दिन निराहार रहकर, सूरज डूबने से पहले गाय, कौऐ तथा कुत्ते को भोजन निकालकर ’हवीक’ करने वाला स्वयं केवल एक बार ही भोजन करता है.
-काफल ट्री डेस्क
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