अंग्रेजों के आधिपत्य के बाद ई. गर्डिन को 8 मई 1815 को कुमाऊं मण्डल के आयुक्त के रूप में नियुक्त किया गया. 1817 में कुमायूं के दूसरे आयुक्त जी.जे. ट्रेल ने कुमायूं के दूसरे राजस्व निपटान का संचालन किया था. ट्रेल नैनीताल की यात्रा करने वाले पहले यूरोपीय थे, लेकिन उन्होंने इस जगह की धार्मिक पवित्रता को देखते हुए अपनी यात्रा को ज्यादा प्रचारित नहीं किया.
सन् 1839 ई. में एक अंग्रेज व्यापारी पी. बैरन था जो रोजा, जिला शाहजहाँपुर में चीनी का व्यापार करता था. पी. बैरन को पर्वतीय अंचल में घूमने का खूब शौक था. केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा करने के बाद वह कुमाऊँ की ओर बढ़ चला. खैरना नाम की जगह पर वह अपने दोस्त कैप्टन ठेलर के साथ ठहरा हुआ था. पी. बैरन ने एक स्थानीय आदमी से जब ‘शेर का डाण्डा’ इलाके की जानकारी ली तो उसे बताया गया कि सामने जो पर्वत है उसको ‘शेर का डाण्डा’ कहते हैं और वहीं पहाड़ के पीछे एक सुन्दर ताल भी है. बैरन ने उस आदमी से ताल तक पहुँचने का रास्ता पूछा लेकिन घनघोर जंगल होने के कारण और जंगली पशुओं के डर से वह आदमी तैयार न हुआ. लेकिन बैरन पीछे हटने वाला आदमी नहीं था. गाँव के कुछ लोगों की मदद से पी. बैरन ने ‘शेर का डाण्डा’ (2360 मी.) को पार कर नैनीताल की झील तक पहुँचने का सफल प्रयास किया. यहाँ की सुन्दरता देखकर पी. बैरन मंत्रमुग्ध हो गया. उसने उसी दिन तय कर ड़ाला कि वे अब रोजा, शाहजहाँपुर की गर्मी को छोड़कर नैनीताल की इन आबादियों को ही आबाद करेंगे.
पी. बैरन ‘पिलग्रिम’ के नाम से अपने यात्रा – विवरण अनेक अखबारों को भेजता रहता था. सन् 1841 की 24 नवम्बर को, कलकत्ता के ‘इंगलिश मैन’ नामक अखबार में पहली बार नैनीताल के ताल की खोज खबर छपी थी. बाद में आगरा अखबार में भी इस बारे में पूरी जानकारी दी गयी. सन् 1844 में किताब के रुप में इस स्थान का विवरण पहली बार प्रकाश में आया. बैरन नैनीताल के इस अंचल के सौन्दर्य से इतना प्रभावित हुआ कि उसने सारे इलाके को खरीदने का निर्णय लिया. पी बैरन ने उस इलाके के थोकदार से खुद बातचीत की कि वह इस सारे इलाके को उसे बेच दे.
पहले तो थोकदार नर सिंह तैयार हो गया था लेकिन बाद में उन्होंने इस क्षेत्र को बेचने से मना कर दिया. बैरन इस अंचल से इतना प्रभावित था कि वह हर कीमत पर नैनीताल के इस सारे इलाके को अपने कब्जे में करना चाहता था. जब थोकदार नरसिंह इस इलाके को बेचने से मना करने लगा तो एक दिन बैरन अपनी किश्ती में बिठाकर नरसिंह को नैनीताल के ताल में घुमाने के लिए ले गया और बीच ताल में ले जाकर उसने नरसिंह से कहा कि तुम इस सारे क्षेत्र को बेचने के लिए जितना रू़पया चाहो, ले लो, परन्तु यदि तुमने इस क्षेत्र को बेचने से मना कर दिया तो मैं तुमको इसी ताल में डूबो दूँगा. बैरन खुद अपने विवरण में लिखता है कि डूबने के भय से नरसिंह ने स्टाम्प पेपर पर दस्तखत कर दिये.
सन् 1842 ई. में सबसे पहले मजिस्ट्रेट बेटल से बैरन ने आग्रह किया था कि उन्हें किसी ठेकेदार से परिचय करा दें ताकि वे इसी वर्ष 12 बंगले नैनीताल में बनवा सकें. सन् 1842 में बैरन ने सबसे पहले पिरग्रिम नाम के कॉटेज को बनवाया था. बाद में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस सारे क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया. सन 1842 ई. के बाद से ही सम्पूर्ण देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इसकी सुन्दरता की धाक जम गयी.
( नैनीताल जिले की वेबासाइट के आधार पर )
आज आपको दिखाते हैं अमित साह के खींचे नैनीताल के कुछ और ज़बरदस्त फोटोग्राफ:
फोटोग्राफर अमित साह ने बीते कुछ वर्षों में अपने लिए एक अलग जगह बनाई है. नैनीताल के ही सीआरएसटी इंटर कॉलेज और उसके बाद डीएसबी कैंपस से अपनी पढ़ाई पूरी करते हुए अमित ने बी. कॉम. और एम.ए. की डिग्रियां हासिल कीं. फोटोग्राफी करते हुए उन्हें अभी कोई पांच साल ही बीते हैं.
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