Featured

फुलदेई : बसंत-पुजारी पहाड़ी बच्चों की आस का पर्व

बसंत पंचमी से प्रारम्भ बसंत मैदानी क्षेत्र में होली के साथ विदा ले लेता है पर पहाड़ में ये बैसाखी तक अपने पूरे ठाठ में देखा जा सकता है. मैदानी बसंत के प्रतीक-पुष्प टेसू, ढाक, कचनार, सरसों पहाड़ में भी खूब होते हैं पर यहां बसंत-उपमान बन कर लोकगीतों में इठलाने के लिए ये सदैव तरसते ही रहे हैं. आखिर हो भी क्यों नहीं, फ्यूंली, बुरांस और साकिनी जैसे पुष्प जब अपने शबाब में जल्वा-अफ़रोज़ हों तो नज़र भला किसी और पर टिकेगी भी क्यूं कर. यहां के लोक ने कदाचित् इसीलिए एक पर्व ही फूलों के नाम कर दिया है. Phooldei Uttarakhand Festival

चैत-संक्रांति को मनाए जाने वाले इस पर्व फुलदेई के आयोजन, व्यवस्थापन और प्रसादग्रहण का सर्वाधिकार लोक ने समझदारी से, फूल से प्यारे नन्हें बच्चों को ही दिया है. प्रात: ही देहरी-देहरी ताजे फूल बिखेर कर बच्चे यही संदेश देते हैं कि फूलों का सम्मान और संरक्षण करें तो ही सम्पन्नता मिलेगी. आगाह भी करना चाहते हैं कि फूलों से सजी इन वादियों को आग  और  हथियार से बचाना तुम बड़ों का काम है.

जिन्हें बचपन में इस खूबसूरत पर्व फुलदेई का हिस्सा बनने का अवसर मिला हो वो इन पंक्तियों को बेहतर समझ सकते हैं पर जिन्हें नहीं भी मिला वे भी लोकगीत, लोकगाथाओं में इस पर्व का संदेश और खूबसूरती महसूस कर सकते हैं. और हां, अगर आपके दरवाजे पर आज भी फूल बिखेरने बच्चे आएं तो उन्हें सिर्फ बच्चे न समझें, वे संस्कृति के मासूम संवाहक हैं और पर्यावरण के मौन सचेतक.

पहली फुलदेई बच्चों के लिए प्रकृत्ति का पहला साक्षात्कार भी होती है और पर्यावरण का पहला फील्ड सर्वे भी. ये नन्हीं आँखों से दुनिया को समझने का पहला प्रयास भी है और प्रकृत्ति का पहला सबक भी. इतने महत्व के लोकपर्व वाले समाज का हिस्सा होने पर मुझे गर्व है. Phooldei Uttarakhand Festival

बालपर्व फुलदेई (फुलसंग्रांद और फुल-फुल माई भी) बचपन की सबसे मधुर यादों में से एक है. उसी मधुर स्मृति की डोर पर लिखे एक फुलारी गीत के दो पद –

बसंत मा हिटीक लोग भैर आमा
फुलारि डेळि-डेळि मा ने लगाणा
उठा देखा डेळ्यूं तक मौळ्यार ऐग्ये
पौलू जु उठलू ख्वोलू जु स्येग्ये
स्यैते-रवैते  न सब कुछ हारी.
फूल-बसंत ढोलण ऐग्या फुलारी..

डाळ्यूं मा जु बौड़िक लांद मौळ्यार
हरि-हरि राखी ये गौं कि  सार
गात भी सुपिन्या भी सबका मौळ्ये दे
खैरी को ह्यूंद जीवन को खळ्ये दे
आस को त्योहार हम बसंत पुजारी.
फूल-बसंत ढोलण ऐग्या फुलारी..

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

पहाड़ों में मत्स्य आखेट

गर्मियों का सीजन शुरू होते ही पहाड़ के गाड़-गधेरों में मछुआरें अक्सर दिखने शुरू हो…

17 hours ago

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जिंदगानी के सफर में हम भी तेरे हमसफ़र हैं

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : दिशाएं देखो रंग भरी, चमक भरी उमंग भरी हम…

20 hours ago

स्वयं प्रकाश की कहानी: बलि

घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…

2 days ago

सुदर्शन शाह बाड़ाहाट यानि उतरकाशी को बनाना चाहते थे राजधानी

-रामचन्द्र नौटियाल अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा…

2 days ago

उत्तराखण्ड : धधकते जंगल, सुलगते सवाल

-अशोक पाण्डे पहाड़ों में आग धधकी हुई है. अकेले कुमाऊँ में पांच सौ से अधिक…

3 days ago

अब्बू खाँ की बकरी : डॉ. जाकिर हुसैन

हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे.…

3 days ago