बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है. उत्तराखण्ड के पहाड़ की तलहटी पर कुछ बसावटें कस्बे के सांचे में ढल रही थी. ये कस्बे तिजारत के अड्डों से ज्यादा कुछ नहीं थे. इनमें ज्यादातर पहाड़ी लोग ही आ बसे थे. जिनकी कोई सरकारी नौकरी नहीं लग पाती थी वे यहाँ आकर छोटा-मोटा कारोबार जमाते या मेहनत-मजदूरी से कुछ पैसा कम लेते. तब ये अपने ही राज्य (तब उत्तर प्रदेश) में अप्रवासी थे. यही इनकी मानसिकता भी हुआ करती थी. मतलब शरीर तराई के मैदानों में और आत्मा पहाड़ में, बस जरूरतें यहाँ घसीट लायी थीं.
जिस तरह पहाड़ की आबो-हवा में पनपने वाले कुछ पौधे गमलों में रोप दिए जाते हैं या बोनसाई बनाकर ड्राइंग रूम में सजाये जाते हैं, कुछ इस तरह ही थे इन कस्बों में बसने वाले; अपने ही प्रदेश में अप्रवासी पहाड़ी. तब सभी उत्तराखंडी त्यौहार इन कस्बों में मनाये जाते थे. न त्यौहारों में पहाड़ को नीचे ढलानों पर उतार लाने की पुरजोर कोशिश हुआ करती थी. घुघुतिया, बसंत पंचमी, फूलदेई, हरेला, वट सावित्री आदि पूरे पहाड़ीपन के साथ मनाये जाते थे. आज इनमें से ज्यादातर त्यौहार विलुप्त होने की कगार पर हैं. फुलदेई की फुल्यारी बसंत के रंग
इन सभी त्यौहारों का सांस्कृतिक रंग समुदाय, धर्म समेत इसके सभी रूपों पर हावी रहा करता था. फूलदेई पर सभी बच्चों को उनके अभिभावक तैयार करते थे. मुझे याद है, हम सभी पहाड़ी बच्चे उस सुबह अपने पास की बंजर जमीनों, बगीचों से फूल चुनकर लाया करते थे. फिर सिखाया गया गीत, फूलदेई-फूलदेई, छम्मा देई, छम्मा देई, देणि द्वार, भर भकार, ते देलि स बारम्बार नमस्कार, गाकर घर-घर जाकर भेंट इकट्ठा करते थे. तय समय पर भेंट की मदद से पकवान बनाकर खाया करते थे. पकवान बनाने में भी यही घर के बड़े हमारी मदद किया करते थे. बच्चों के लिए यह एक दिलचस्प खेल जैसा हुआ करता था. खेल-खेल में वे अपनी संस्कृति का ककहरा पढ़ रहे होते थे.
आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो इस ट्रेनिंग ने मेरा प्रकृति से पहला परिचय करवाया. मैं आसपास मौजूद फूलों के जरिये उन पौधों से भी परिचित हो पाया जो आम तौर से जंगली और बेगैरत मालूम होने के बावजूद बसंत में बेहद दिलकश फूलों को पनाह देते थे. सबसे बढ़कर ये अभ्यास मुझे उत्तराखण्ड की संस्कृति से कहीं गहरे जोड़ रहे थे.
खैर, वक़्त बदला तिजारत के केंद्र ये शहर शिक्षा-स्वास्थ्य के भी बड़े बाजार बनने लगे. पहाड़ आधुनिक सुविधाओं और आधारभूत ढांचे का अभाव झेलते रहे. आज भी ‘विकास’ की दौड़ में कहीं पीछे छूट चुके हमारे गाँवों के लोगों को इलाज, बच्चों की शिक्षा के लिए शहरों-कस्बों के अपने इष्ट-मित्रों की की छत्र-छाया में जाना पड़ जाता है. प्रदेश के बाहर-भीतर रहने वाले कस्बाई-शहरी कब हर मामले में आदर्श बना दिए गए पता ही नहीं चला.
वैश्वीकरण के सांस्कृतिक हमले ने सामुदायिकता को तो ख़त्म किया ही, विभिन्न माध्यमों से हमारे दिमागों में घुसपैठ कर हमारा ‘देसीकरण’ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और हम होते भी चले गए. राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भले ही अपने माल की एक-एक पाई अच्छे मुनाफे के साथ वसूलती हों लेकिन कुसंस्कृति वह मुफ्त में बांटती हैं, वह भी हमारे बैडरूम में घुसकर. हम किन्हीं भी सांस्कृतिक हमलों के सामने इतने कमजोर कैसे पड़ गए यह अलग सवाल है.
पहाड़ के ख़त्म होते चले जाने की विभिन्न वजहों से असंतोष पैदा हुआ. नया राज्य बना. अब यही कस्बे-शहर सत्ता के भी केंद्र हो चले, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य वस्तुओं के बाजार तो ये पहले से ही थे. बुनियादी सुविधाओं, आधारभूत ढांचे का पहिया कभी देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर से बाहर के सफर पर नहीं निकला. उत्तराखण्ड के पहाड़ दरकते रहे और भीतर का ‘देस’ और ज्यादा मजबूत होता चला गया.
शहरों-कस्बों के तीज-त्यौहारों, उत्सवों से संस्कृति और पहाड़ीपन का और रंग उतरता गया. उस पर धर्म और धर्म के ऊपर बाजार हावी होता चला गया. शहरों-कस्बों में पली-बढ़ी नयी पीढ़ी पहाड़ीपन को हिकारत की नजर से देखती रही. नरेंद्र सिंह नेगी ने इसे एक गीत में बहुत अच्छी अभिव्यक्ति भी दी ‘मेरे को पहाड़ी मत बोलो में देहरादून वाला हूँ…’ बसंत के इस्तकबाल का त्यौहार फूलदेई
कब हरेला कान या सिर पर टिकाना शर्म का विषय हो गया हमें पता ही नहीं चला. कुमाऊनी, गढ़वाली गाने न समझना और कान में हैडफोन ठूंसकर घटिया पंजाबी रीमिक्स और रैप सुनना हमें भाता चला गया.
बाजार की ताकतों ने हमारे भगवान तक बदल डाले. घटिया फ़िल्मी गीतों की पैरोडी परोसने वाले जगराते तमाम तरह के विसर्जन और सरकारी मेले बड़े होते चले गए और स्थानीय त्यौहार, मेले, धार्मिक अनुष्ठान कोनों-खुदरों में सिमटते चले गए. जो बचे भी हैं वहां कुछ बड़े-बुजुर्ग एक अंधियारे कोने में संस्कृति की अलख जगाने में अपना गला खर्च करते हैं और नयी पीढ़ी मुख्य मंच पर चौथे दर्जे के फ़िल्मी और स्थानीय कलाकारों और अय्याश नेताओं के पीछे मतवाली हुई दिखाई देती है.
इन शहरों-कस्बों में घुघुती, बसंत पंचमी, फूलदेई, हरेला, जैसे त्यौहारों का अंतिम संस्कार कबका कर दिया गया है.
आज फूलदेई है. कुछ दशक पहले तक इस मौके पर उत्तराखण्ड के शहरों-कस्बों चहकने वाले बच्चे आज कम ही दिखाई देते हैं. बसंत हमेशा की तरह आता है बस बच्चे उसका स्वागत नहीं करते, अब यह उनके घरेलू पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं रहा. ऐसा ही घुघुती में भी दिखाई देता है. या उन सभी त्यौहारों पर जो सिर्फ हमारी ही पहचान का हिस्सा रहे हैं. हाँ इस बीच एक चीज जरूर हुई है— इन्हीं शहरों-कस्बों में लुप्त होती सांस्कृतिक पहचान का रोना रोने वाले लोगों का भी एक वर्ग पैदा हो चुका है. इन मौकों पर सोशल मीडिया में इस प्रवृत्ति पर खूब छाती पीटी जाती है बहुत हुआ तो सेमीनार-गोष्ठी कर ली. कोई एक गाना बना लिया और नोस्टेल्जिया का लुत्फ़ उठाते रहे. इन त्यौहारों को बचाने का जिम्मा भी तबाही और बर्बादी की मार झेलते पहाड़ों के हिस्से डाल दिया गया है. अनेक कथाएँ जुड़ी हैं घुघुतिया त्यौहार से
-सुधीर कुमार
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