महज एक टूरिस्ट डेस्टिीनेशन नहीं है नैनीताल. कुदरत ने तो इसे तराशने में संजीदगी बरती ही है, लेकिन शहर की और सारी खूबसूरतियां भी हैं जो इसे दूसरे शहरों से अलहदा करती हैं. यही कारण है कि जो नैनीताल आया यहीं का होकर रह गया. कभी चन्द दिनों के लिए बाहर गया भी तो नैनीताल की नराई बरबस उसे अपनी ओर खींच लेती है. Almora and Nainital
टूरिस्ट की पसन्द यहां की खूबसूरत झील, नौकायन तथा हिल स्टेशन के तौर पर हो सकती है लेकिन लोकल को नैनीताल की बहुरंगी छवि भूलते नहीं बनती. यहां संस्कृतियों का संगम है, भाषाओं की विविधता है, टेलेन्ट के लिए एक्सपोजर है, मनोरंजन के लिए मेले हैं, खेल कूद प्रतियोगिताओं के आयोजन हैं, लोकोत्सव हैं, शिक्षा का हब है, फैशनपरस्ती है, साम्प्रदायिक सद्भाव के तौर पर मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे एवं चर्च से निकलती प्रार्थनाओं के समवेत स्वर हैं, सांस्कृतिक आयोजन हैं, प्रदूषण मुक्त शुद्ध आबोहवा है, पर्यटक नगरी होने के कारण छोटे-मोटे धन्धे करने के अवसर हैं और इन सबसे बढ़कर एक आत्मीय माहौल है जो एक दूसरे को करीब लाता है और दूसरे शहरों से इसे अलग करता है.
ये तो रही नैनीताल शहर की खासियत लेकिन प्रत्येक शहर की अपनी एक तहजीब भी होती है जो दिखती तो नहीं केवल महसूस की जा सकती है. जैसे लखनऊ की तहजीब पहले आप से रूबरू कराती है तो नैनीताल के वाशिंदों की अपनी ठसक निराली है. ब्रितानियों द्वारा बसाये गये नैनीताल के लोगों में आज भी अंग्रेजियत की ठसक यदि बरकरार है तो हैरानी की बात नहीं होनी चाहिये. यह ठसक उनके बोलचाल, रहन-सहन, खान-पान और वेशभूषा कहीं भी देखी जा सकती है.
बाजार में बात करती जा रही महिलाओं के संवाद – ब्येली बटी मौसम त क्लाउडी क्लाउडी हई रौछी, आज स्नोफॉल ज्यादैई चिली है गो, स्टूडेन्टान कैं लैक वैकेशन छन, स्नो फॉलक खूब इन्जॉय कर नयीं, सुनकर गांव से आये कोइ अपनढ़-गंवार ठेठ कुमाउनी की तो बात सिर के ऊपर से निकल जायेगी लेकिन उन्हें कौन समझाये की ये नैनतालियों कुमाउनी का ठसक वाला तर्जुमा है. उसकी समझ में न आये, ये बात अलहदा है, लेकिन इस ठसक वाली कुमाउनी में जो लालित्य व मिठास है उसका कोई सानी नहीं. वैसे भी भाषा के सवाल पर इसे देशज शब्दों की सीमाओं में बांधे रखना कौन सी बुद्धिमानी है.
भाषा ही क्या भूषा में भी नैनतालियों की ठसक का जवाब नहीं. वालीवुड का हर नया फैशन सीधे नैनीताल में ही फटक मारता है. घर की आर्थिक तंगी ने कभी यहां फैशन को पांव पसारने से रोका नहीं. फैशन परस्ती के लिए मॉलरोड का लम्बा-चैड़ा रैम्प है न. जिसे शाम के टाइम इसी शो के लिए वाहनों की आवाजाही तक बन्द कर दी जाती है.
समाजवाद की जीती-जागती तस्वीर देखनी हो तो नैनीताल की मालरोड पर चहलकदमी कीजिए. आपको उसकी वेशभूषा से उसकी मालीय हालत का अन्दाजा लगाना नामुमकिन होगा. दिहाड़ी पर काम करने वाला लोकल नैनताली भी पांच बजे बाद मालरोड पर कॉलर उठाकर और परफ्यूम की खुशबू बिखेरते हुए जब आपके पास से सरकता है तो हम किसी से कम नहीं का अहसास कराने से नहीं चूकता. लेक राउन्ड अथवा मॉलरोड राउन्ड के बाद नैनादेवी मन्दिर को कदम न बढ़े, तो कैसा नैनताली.
यों समयाभाव में दूर से हैलो हनु के लिए दर्शनघर का इन्तजाम भी लोगों के लिए किया गया है. अब सूटेड-बूटेड हैं तो घर का स्टैंडर्ड भी तो कुछ मैन्टेन करना पड़ेगा. भले खान-पान में कटौती करनी पड़े. ठसक तो ठसक है भाई, उसमें अमीरी-गरीबी क्या वास्ता?
नैनीताल की आरंभिक बसासत अंग्रेजों के बाद साह परिवारों की बतायी जाती है. सच कहें तो साह परिवारों ने अपनी संस्कृति का परचम जिस हद तक थामा है, उसमें अन्य लोग बहुत पीछे हैं. साह परिवारों में अपनी भाषा, भूषा, खान-पान, रहन-सहन और रीतिरिवाजों के प्रति जो आस्था है, काबिले तारीफ है.
कई भाषाओं का ज्ञाता होने के बावजूद भी साह परिवार के लोग परस्पर कुमाउनी में ही संवाद करते पाये जायेंगे. तीज-त्योहार और लोकोत्सवों को मनाने का उनका अपना अलग ही उत्साह और अन्दाज है. फिर चाहे वह दीपावली पर घुईयां की परम्परा हो अथवा श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर ककड़ी के भीतर भगवान कृष्ण का विग्रह स्थापित कर ठीक आधी रात को ककड़ी के अन्दर से विग्रह बाहर कर जन्मोत्सव मनाने की परम्परा. त्योहारों पर बनाये जाने वाले सिंगल और रस-भात (ठठवाणी) का तो समझो पेटेन्ट साह परिवारों के पास ही है. रीति-रिवाजों व परम्पराओं में ये ब्राह्मण परिवारों के समकक्ष तथा कहीं-कहीं उनसे भी आगे निकल जाते हैं. Almora and Nainital
कुदरत ने कुछ अनोखी शख्सियतें भी बख्शी है नैनीताल को, जिनकी कुछ अलग ही ठसकें हैं. जिसमें मनोरंजन भी है, हास्य भी और गम्भीर चिन्तन के लिए विवशता भी, जिनका जिक्र में अपने पूर्व में दिये गये लेख ‘कभी न भूलने वाली नैनीताल शहर की कुछ अद्वितीय शख्सियतें’ में कर चुका हूं.
नैनतालिये स्वयं में मस्त रहने की प्रजाति है. दूसरी की जिन्दगी में ताक-झांक करना इनकी फितरत में शुमार नहीं है. दूसरे कस्बों की तरह राह चलते राहगीर पर दुकानों में बैठे लोगों द्वारा टिप्पणियां करना इन्हें नहीं भाता. उन्हें तो अपनी ही ठसक दिखाने से फुर्सत कहां? उनके तार तो सीधे दिल्ली-देहरादून से जुड़े जो ठहरे. फिर वीआईपी लोगों से यदा-कदा रूबरू होने का रूआब भी ठसक में इजाफा ही करने वाला हुआ.
आइये अब अल्मोड़ा का रूख करें. 1960 से पहले कुमाऊॅ के दो ही जिले हुआ करते थे- नैनीताल और अल्मोड़ा. नैनतालियों की ठसक की तरह अल्मोड़ियों की फसक का भी कोई जवाब नहीं.
चवन्नीक दई मंगाछ, मणि खट्ट बणाछ, मणि मीट्ठ बणांछ, मणि जमुण डालि, बाकि ढड़ू खै गो
चवन्नी का दही मंगाया, कुछ मीठा बनाया, कुछ खट्टा बनाया, कुछ जामुन डाली बाकी बिल्ला खा गया
अब इसे आप अल्मोड़ियों की कंजूसी से जोड़ें या कोरी फसक ये आप खुद निर्णय कर लीजिए. वैसे अल्मोड़ियों की कंजूसी से जुड़ा ये किस्सा भी चर्चित रहा है – हमारा वां आला के ल्याला और तुमार वां ऊलौ के खवाला
हमारे वहां आओगे तो क्या लाओगे और तुम्हारे वहां आयेंगे तो क्या खिलाओगे.
बहरहाल सारे अल्मोड़िये यही सोच रखते हों, मैं ये तो नहीं मान सकता, लेकिन जो लेबल एक बार चेप दिया गया है, वह हटना भी इतना आसान नहीं.
अल्मोड़ा रत्नगर्भा रही है, बुद्धिजीवियों की नगरी है, संस्कृति व दार्शनिकों का शहर है. नृत्य सम्राट उदयशंकर, कविगुरू रवीन्द्र नाथ टैगोर, स्वामी विवेकानन्द की कर्मभूमि और भारत रत्न पं. गोबिन्द बल्लभ पन्त, प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त, कुमाऊॅ केशरी पं. बद्रीदत्त पाण्डे, बी.डी.सनवाल, हरगोबिन्द पन्त आदि की धरती पर कमोवेश उनके संस्कार पड़ना स्वाभाविक है.
कभी-कभी ज्यादा दार्शनिकता की बारीक सी दीवार ढह गयी तो हम विक्षिप्तता के आंगन में खुद को खड़ा पा सकते हैं. इसे अति दार्शनिकता की परिणति कहा जाय अथवा फसकों की पराकाष्ठा की परिणति कि यहां अच्छे पढ़े लिखे लोग ही विक्षिप्त अवस्था में नजर आते हैं.
अतीत में कभी चन्द राजाओं की राजधानी का गौरव थामे अल्मोड़ियों की सोच में भी राजनीति की जड़ें बहुत गहरी धंसी हैं. बल्कि इसे राजनीति से ज्यादा कूटनीति कहना प्रासंगिक होगा. किसी को भी आसमान से जमीन और जमीन से आसमान पहुंचाने की कला में अल्मोड़ियों का तोड़ नहीं. आप स्वस्थ हैं, तन्दुरस्त हैं लेकिन बार-बार कोई आपसे कहे कि आप तो काफी कमजोर हो गये हैं तो एक दिन मनोवैज्ञानिक स्तर से आप स्वयं को कमजोर महसूस करने लगेंगे. इसे साइक्लोजिकल अत्याचार कहें या कुछ और ऐसी चाल चलना अल्मोड़ियों की फितरत का हिस्सा ठहरा.
गैर अल्मोड़िया बेशक यहां शौक से रह सकता है लेकिन अगर रूतबा दिखाने का शौक है, तो जरा संभल जाइये. अच्छे से अच्छा राजनेता व अफसर बिना अल्मोड़िया बने अपनी जड़ें इतनी आसान से नहीं जमा सकता. ऊपर से हरा भरा दिखने वाला पेड़, लेकिन अन्दर ही अन्दर जड़ कटकर कब जमींदोज हो जाये, पूर्वाभास होना मुश्किल है. जिसने ब्रिटिश काल में अंग्रेजी शांसन की चूलें हिला दी और बागेश्वर से उपजे कुली बेगार प्रथा की अलख जगाने वाला अल्मोड़ा जिले का ही हिस्सा हुआ करता था और यहीं से निकलने वाले उत्तराखण्ड के सबसे पुराने अल्मोड़ा अखबार ने आजादी का बिकुल फूका था. इसलिए अल्मोड़ियों का कमतर आंकने की भूल कभी मत कीजिएगा. Almora and Nainital
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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