फागुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन शिव-पार्वती विवाह के पर्व रूप में मनाई जाती है शिव रात्रि. मान्यता है कि इसी दिन शिव की उत्पत्ति हुई, रुद्र ने अवतार ले डमरू बजाया जिसकी ध्वनि से संसार भर में झंकार हुई, नित नवीन नूतन ज्ञान की स्वरलहरियां मानव को नटराज की लीला से अर्पित हुईं.शिव की असीम सत्ता की इस पावन भूमि का आकर्षण बढ़ता गया. पूजा अर्चना के कर्म कांड के साथ शिवरात्रि के दिन व्रत रख रात को जागरण का विधान बना. पशुपतिनाथ जी में मुख्य व विशिष्ट पर्व के रूप में शिव रात्रि अपूर्व भक्तिभाव व हर्ष उल्लास से मनाए जाने की परम्परा सदियों से चली आई.
(Pashupatinath Temple Shivratri)
लिच्छवि राजाओं द्वारा प्रारंभिक स्वरूप दिए इस प्राचीन पशुपतिनाथ मंदिर की शिखर शैली, विक्रमी संवत 936 साल में राघव देव द्वारा परिणत की गई. इसके “तामा को छाना” या ताँबे के पत्रक विक्रमी संवत 1183 साल मशिवदेव द्वारा अलंकृत किये गए. इसके तीन ओर से प्रवेश द्वार या “छाना” हैं जिन्हें शिव सिंह मल्ल की रानी गंगा रानी ने विक्रमी संवत 1739 साल में बनाया. तदुपरान्त चौदह वर्ष के बाद वि. सं.1753 में ऋद्धि लक्ष्मी ने पशुपति नाथ मंदिर का पुर्ननिर्माण करवाया. आज जिस स्वरूप के मंदिर में पूजा- अर्चना व दर्शन का पुण्य लाभ भक्तजन प्राप्त करते है वह मूलतः वि. सं.1753 में ही निर्मित हुआ जिसमें वि. सं.1870 के दशक में चांदी के “पाताले” या पत्र लगाए गए.
पशुपतिनाथ का मंदिर “शिवपांच्यायन पद्धति” से निर्मित है जिसके मध्य में पशुपतिनाथ का शिवलिंग विराजमान है, यहाँ चारों ओर देवी, विष्णु, सूर्य व गणेशजी की प्रतिमा -शालिग्राम विद्यमान हैं. शिवलिंग का ऊपरी या माथे का “माथलो” भाग शिव का तथा “तल्लो” पीठ का भाग शक्ति का प्रतीक माना जाता है. इस तल्लो भाग जिसमें शिवलिंग अडया कर रखा जाता है, वह भाग पीठ या जलहरी है. शिव लिंग पीठ सदैव उत्तर दिशा की ओर “फरकाई” या रखी जाती है. शिव जी का वास स्थान “उत्तरतिर” या उत्तर अर्थात हिमालय की ओर होता है इसलिए जलहरी उत्तर की ओर रहती है. पशुपतिनाथ मंदिर का पश्चिमी “ढोका” या भाग प्रायः खुला रहता है जहां के आगे के भाग में नंदी की प्रतिमा है. पूर्व की ओर मुक्ति मंडप है इसके दक्षिणी भाग में धर्मशिला व उत्तरी भाग में बड़ा त्रिशूल विद्यमान है.
पांच देवी-देवता एक स्थान में रख सामूहिक रूप से उनकी पूजा की पद्धति पांचायन कही जाती है इस पद्धति की शुरुवात शँकराचार्य द्वारा की गयी. जिसमें शिव, विष्णु, देवी, गणेश व सूर्य मुख्य हुए. पशुपतिनाथ मंदिर के गर्भगृह के मध्य में शिव व चारों ओर विष्णु, देवी, गणेश व सूर्य प्रतिष्ठित किये गए हैं.पशुपतिनाथ ऐसे देवता हुए जिनका दर्शन -पूजन इनके अन्य पार्श्व देवी देवता की पूजा करने के बाद करने की परम्परा रही है. शिव जी के भक्त और अनुचर, उनके आण-बाण, भूत-पिशाच सबमें शिव का वास माना जाता रहा, जिनकी माया निराली बनी और जो हर प्रकार से रक्षा में सबल व समर्थ माने गए. पशुपतिनाथ मंदिर के प्रांगण में वासुकी नाथ, कीर्तिमुख, उन्मत्त भैरव, रुद्रागारेश्वर, कोटिलिंगेश्वर, विनायक, हनुमान सहित आसपास के समस्त देवताओं की आराधना के उपरांत पशुपतिनाथ के दर्शन किये जाने की परंपरा बनी.
पशुपतिनाथ के भक्त उनके नियमित दर्शन तो करते ही हैं साथ में उनकी विशेष पूजा के विधान हैं जिनमें पंचामृत पूजा, पूर्णभोग सहित पंचामृत पूजा, बालभोग सहित पंचामृत पूजा, रुद्राभिषेक, लघुरुद्राभिषेक, अति रुद्री, महारुद्री व सवा लाख बत्तीबाट सहित आरती इत्यादि की व्यवस्था है जो निश्चित शुल्क प्रदान कर की जाती है. मंदिर के बाहर के विशाल प्रांगण में समस्त पूजा पर्याप्त विधि विधान से संपन्न की जातीं हैं. पूजन हेतु बैंक में नियत राशि जमा कर रसीद प्राप्त होती है जिससे प्रांगण में जजमान की प्रतीक्षा में उपस्थित पंडित का चुनाव कर वह पूजा संपन्न कराते हैं. जिसके बाद गर्भगृह में प्रवेश कर ज्योतिर्लिङ्ग में विनियोग किया जाता है.
पशुपतिनाथ के पुजारी दक्षिण के भट्ट ब्राह्मण हुए जिनके केरल के श्रृंगेरी मठ से दीक्षित होने की परम्परा रही है. इस प्रकार पशुपतिनाथ के पुजारी शैव योगी हुए. विक्रमी संवत 1159 से शँकराचार्य के नैपाल आने के पश्चात् पशुपतिनाथ में दक्षिण के ब्राह्मणों द्वारा पूजा संपन्न किये जाने के नियम बने. बाद में विक्रमी संवत 1539 से 1577 की अवधि में मल्ल राजा रत्न मल्ल के आदेश पर पशुपति के पुजारी सन्यासी नियत किये गए. भाषा वंशावली के अनुसार मध्यदेश से सोमेश्वरानन्द नामक सन्यासी को राजा रत्नमल्ल ने पशुपति का सन्यासी पुजारी नियुक्त किया. वि.सँ.1577 के उपरांत वि. सं 1803 से आगे जयप्रकाश मल्ल के समय में पशुपतिनाथ की पूजाआजा दक्षिण के ब्राह्मणों द्वारा ही होती रही. राजा विक्रम शाह ने वि. सं.1870 को चार मुख वाले पशुपति नाथ की पूजा करने के लिए चार भट्ट ब्राह्मण नियुक्त किये जिनमें ईशान मुख की पूजा करने वाला पुजारी मुख्य पुजारी नियुक्त हुआ. वासुकी मंदिर की अभ्यर्थना भी दक्षिण के पुजारियों द्वारा करने की रीत रही. श्रद्धालुओं के लिए पशुपतिनाथ का मुख्य मंदिर भोर में पांच बजे खुल जाता है जिससे पूर्व परिचरों द्वारा साफ-सफाई व अन्य औपचारिकताओं की पूर्ति कर ली जाती है.
शिवरात्रि महापर्व हुआ. समूचे दिन विधि-विधान से पूजा होती है. धूप-दीप, नैवैद्य, ताम्बूल, सुपारी, गन्ध पुष्प चढ़ाये जाते हैं. अर्घ्य से जल की धार, आचमनी से आचमन होता है. डम डम डमरू बजते हैं. तीन शाख के बिल्व पत्र के साथ धतूरे के गोल कन्टीले दाने और इसके श्वेत, नील व पीत वरणीय पुष्प भी अर्पित होते हैं. पशुपतिनाथ में स्थित शिवलिंग को दूध, दही, शहद, शक्कर व घी युक्त पंचामृत से स्नान कराया जाता है.
शिवजी को चढ़ाए गए फल, फूल, अक्षत, जल व अन्य वस्तु शिव निर्माल्य तथा शिव नैवैद्य कहलाते हैं. शिवजी को अर्पित रुपया-पैसा, “लुगाफाटा”, “सुन” या सोना, चांदी, गहना, “जमिन” या भूमि, रत्न व “तामालाई छाडेर पत्र” अर्थात ताँबे के पत्र इत्यादि बहुमूल्य पदार्थों के साथ पुष्प, फल व जल अग्राह्य है, क्योंकि इन सब पर चंडेश्वर का अधिकार है. अतः उसका भाग अर्पित कर ही शिवजी का नैवैद्य प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है.चंडेश्वर शिवजी का भूत-प्रेत,पिशाच गण का प्रमुख हुआ. शिवलिंग में चढ़ाए प्रसाद के पहले भाग को चंडेश्वर को अर्पित कर शेष शिव निर्माल्य को ग्रहण किये जाने की रीत है जिसके लिए अर्पित पदार्थ शालीग्राम शिला से स्पर्श कराये जाते हैं.
(Pashupatinath Temple Shivratri)
शंकराचार्य द्वारा दक्षिणात्य वैदिक विधि से मंदिर की ओर आते रास्ते पर ईशान कोण में श्रीयंत्र स्थापित कर शिव लिंग के शिर भाग में पशुपतिनाथ की पूजा का चलन किया. दक्षिण के चार भट्ट ब्राह्मणों द्वारा देवता की नित्य पूजा का आरम्भ मंदिर के चार मुख्य द्वार बन्द कर गोप्य रूप में की जाती है. नित्य पूजा के क्रम में भगवान को बाल भोग लगाने व पार्श्वदेवता की पूजा की परंपरा है. मंदिर के द्वार खुलने पर भक्त जन दर्शन- पूजन करते हैं.सांझ पड़ते मंदिर की आरती का क्रम चलता है. रुई की बत्तियों को बंट कर उनकी गिनती कर, उन्हें घी से सिक्त कर, हज़ारों -हजार बत्तियों के ढेर समूचे प्रांगण में दर्शनीय होते हैं. सांझ में मुख्य गर्भ गृह में पशुपति नाथ की कपूर आरती का चलन है. आरती के लिए पंच बत्ती का प्रयोग होता है. गर्भ गृह के बाहर भक्त अन्य चार द्वारों में आरती करते हैं. आरती के बाद देवता को प्रसाद चढ़ता है.पशुपति की आरती के बाद वागमती की आरती संपन्न की जाती है.
पशुपतिनाथ में होने वाले महा स्नान व महाभोग की कथा ही निराली है. बागमती की बहती धारा तन के साथ मन की भी शुद्धि कर देती है. पशुपतिनाथ जी को जल से स्नान कराने की बड़ी पुरानी परम्परा रही. कहा गया कि समुद्र मंथन में निकले गरल का सेवन कर शिव शम्भू ने उसका घातक रौद्र ताप शांत करने को गुसाईं कुंड में अविरल जल की धार से ही शीतलता प्राप्त कीथी.इसकी पौराणिक कथा के चलते शिव लिंग के जलाभिषेक व उस पर अविरल जल की धार चढ़ाने की रीत पड़ी.पशुपतिनाथ जी ने उन्तिस घड़े जल से शुद्धि की इसलिए प्रत्येक पूर्णिमा के दिन विशेष उत्सव के साथ स्नान की विशेष पूजा का चलन हुआ. पूजा के बाद अनेक प्रकार के व्यंजन उन्हें अर्पित किये गए इसलिए महा स्नान के साथ महाभोग व महाबलि की रीत पड़ी.
पशुपतिनाथ में महा स्नान, महाभोग के साथ अनेक प्रकार के “दुभिक्षिबाट” की रीत रही.ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि राजा रण बहादुर शाह के आदेश पर पशुपतिनाथ का महा स्नान नियमित रूप से होने लगा. सबसे पहले विक्रमी संवत 1312 में राजा अभय मल्ल द्वारा महा स्नान कराने का उल्लेख मिलता है जब अनेक प्राकृतिक आपदाओं व प्रकोपों से जन- जन कष्ट भोगने को विवश थे.बताते हैं कि तब शिव की शरण में आ उनकी पूजा अर्चना के विधान का पालन कर इस प्रकोप के निवारण की शुरुवात पशुपतिनाथ के महा स्नान व महाबलि से हुई. प्रजा के कष्ट दूर हुए तो परम्परा बनी.
पुराणों में शिव की महिमा का वर्णन है. शिव को रुद्र, महादेव, भोलेनाथ, शम्भू व पशुपतिनाथ के नाम से जाना जाता है. वह सभी जीवों के मालिक हैं, जीव अज्ञानी है वह पशु की भांति व्यवहार करता है. इसी पशु का मालिक या उसके ईश्वर कानाम पशुपतिनाथ हुआ. पशुपतिनाथ की कृपा पा मानस या जीव को ज्ञान की प्राप्ति होती है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है. शिव सबकी रक्षा करते हैं. सारे जीवों के मालिक हैं, सभी पशुओं के मालिक हैं इसी लिए पशुपति कहे गए. सभी चराचर, जीव, मनुष्य, देवता सबकी रक्षा करने के कारण उन्हें पशुपतिनाथ की संज्ञा मिली. उनकी शक्ति का नाम उमा है जिनको पार्वती, शिवा, सति देवी, वागेश्वरी, वत्सला, वागमती नाम से भी जाना जाता है. भगवान पशुपतिनाथ का मंदिर काठमांडू में वागमती नदी के किनारे के भाग में देवपत्तन स्थल पर स्थित है.
पशुपतिनाथ नाम का उल्लेख ऋग्वेद में भी है जो यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, भिल्ल के देवता के रूप में परिचित रहे. ये एकांत में रहे, शम्शान में बसे, बाघ की छाल पर विराजे. इनके नित नवीन स्वरूप जो कभी ध्यान की अवस्था में दिखें, पार्वती के संग सानंद विराजें, अपने आण -बाण अपने गणहरू के साथ चलेँ, नृत्य की मुद्रा-लय-गति चाल से गतिमान रहें. इनके विविध स्वरूपों के चित्र-प्रतिमा बनाने की रीत रही तो इन्हें लिंग रूप में पूजा का विधान रहा जो पशुपतिनाथ मंदिर में भी रहा. कथा है कि पूर्व में शिव यहां मृग का रूप धारण कर बसे तो इस स्वरूप में उनकी पूजा हुई. बागमती नदी के किनारे विचरण करने वाले “मृगेश्वर” या “हरिणेश्वर” कहे गए पशुपति, तो इसी रूप में उनकी मूर्ति की पूजा हुई. फिर इस स्थल में मानव रूप में लाई मूर्ति की पूजा हुई. विरुपाक्ष के मंदिर में इसी रूप में किरात व कालतिर शिव का स्वरूप रहा तो फिर पशुपतिनाथ में शिव लिंग के रूप में पूजने का चलन हुआ. एकमुख शिव लिंग स्थापित हुआ. विक्रमी संवत 936 में यहां राघवदेव ने विशाल यज्ञ किया और पंचमुख लिंग की स्थापना की.
विक्रमी संवत 1406 मंशीर में बंगाल के सुल्तान समसुद्दीन ने पशुपतिनाथ के मंदिर पर आक्रमण कर दिया व यहाँ स्थापित मूर्तियों को खंडित कर गया. उसके बाद विक्रमी संवत 1417 में महामंत्री जयसिंह राम वर्धन ने पुनः पशुपतिनाथ में लिंग की प्रतिष्ठा की. यहां का पुराना शिवलिंग शंकराचार्य मंदिर में स्थापित हुआ व “दाजु पशुपति” के नाम से जाना गया. पशुपतिनाथ के नाम से जाने गए नए ज्योतिर्लिंग को मंदिर के गर्भ गृह में विधि विधान से स्थापित किया गया.यह स्वयं उत्पत्ति वाला लिंग ज्योतिर्लिङ्ग कहा जाता है. शिव लिंग में सधे मुखलिंग दो प्रकार के होते हैं.इनमें पहला शिवलिंग सादा है तो दूसरा चतुमुखी, जिसमें जो मुख निकले होते हैं उनके मुखलिंग चार ओर से निकले दिखते हैं. इससे आगे यहाँ तो पंचमुखी शिवलिंग है.पंचमुखी शिवलिंग के नाम हैं:तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर व ईशान. इनमें चार तरफ चार ओर से मुख विद्यमान होते हैं और इनके माथे की तरफ थापे गए भाग वाला मुख ईशान मुख कहा जाता है. इनका संयोग पंचमुखी शिव लिंग की संज्ञा पाता है. इस शिवलिंग के तलतिर के मुख में कालाग्नि रुद्र का वास हुआ जो छह मुखी शिव लिंग की श्रेणी में हुआ.
(Pashupatinath Temple Shivratri)
शिव लिंग का कोटि विभाजन अनेक प्रकार का हुआ जिनमें हिरण्यलिंग, भावलिंग, प्राणलिंग, सुवर्णलिंग, उर्ध्वलिंग व दिव्यलिंग जैसे विभिन्न भेद हैं. मुख्य रूप से शिवलिंग के दो रूप हुए जिनमें पहला क्षणिक लिंग व दूसरा ज्योतिर्लिङ्ग. किसी निश्चित उद्देश्य से मिट्टी, गोबर, बालू, आटे इत्यादि से हाथ से बनाए गए अस्थायी शिवलिंग को क्षणिक लिंग कहा जाता है जिनकी पूजा अर्चना कर विधि पूर्वक इन्हें जल में प्रवाहित कर दिया जाता है. स्वयं प्रकट हुए लिंग जो भक्त जनों की आराधना का केंद्र बने वह ज्योतिर्लिङ्ग कहे गए. भारत भूमि में बारह विभिन्न स्थानों में ऐसे बारह ज्योतिर्लिङ्ग विद्यमान हैं. शिव के यह मुख्य वास स्थान हैं -रामेश्वर, नागेश्वर, घुश्मेश्वर, त्रयम्बकेश्वर, वैद्यनाथ, सोमनाथ, महाकालेश्वर, परमेश्वर, मल्लिकार्जुन, केदारनाथ, भीमशंकर व विश्वेश्वर. भारत भूमि के विभिन्न भागों में बारह स्थानों के यह ज्योतिर्लिङ्ग विभिन्न युगों में उत्पन्न हुए. मान्यता स्थापित हुई कि पशुपतिनाथ में आद्य ज्योतिर्लिङ्ग है.
पशुपतिनाथ के पहले या आद्य ज्योतिर्लिंग के बारे में विस्तार से हिमवतखण्ड पुराण व महाशिवपुराण में वर्णन है. एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य विवाद हुआ. तब तत्काल ही पृथ्वी में सृष्टि के निर्माण, जीव-जंतुओं के होने के प्रश्न थे. इसी बेला में ब्रह्मा व विष्णु के मध्य असमायोजन को दूर करने को एक ज्योतिर्मय प्रकाश पुंज की उत्पत्ति हुई. आकाशवाणी हुई कि इसके ओर-छोर का ब्रह्मा व विष्णु सन्धान करें. इस लिंग रूपी ज्योतिर्लिंग का पता लगाने ब्रह्मा ऊपर आकाश की ओर व विष्णु नीचे पाताल की ओर चले. युग-युग बीत गए पर इस दिव्य ज्योति के रहस्य को भेदा न जा सका. अंत में दोनों के धैर्य की पराकाष्ठा में ज्योति लिंग के मध्य से शिवजी प्रकट हुए व उन्होंने ब्रह्मा व विष्णु को उपदेश दे एकमत किया. तत्काल ही वह दिव्य ज्योति पुंज जमीन में धंस गया. इसे पशुपतिनाथ का ज्योतिर्लिंग रूप कहा गया जिसने आद्य या पहले स्वरूप में काठमांडू वास स्थान प्राप्त किया.
यहीं,कई वर्षों के बाद विक्रमी संवत 1735, वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन राजा नृपेंद्र मल्ल ने महा स्नान, महाभीग व महा बलि के साथ ब्राह्मणों को गाय, घोड़ा व वस्त्रादि का दान दिया व हर पूर्णिमा के दिन पशुपतिनाथ में महास्नान की परम्परा डाली जबकि पहले विक्रमी संवत 1629 से राजा लक्ष्मी नर सिंह मल्ल ने अक्षय तृतीया के दिन महा स्नान की रीत चलाई थी.
तदन्तर राजा रणबहादुर शाह की रानी ने नियमित रूप से महास्नान हो-महा बलि हो की रीत डाली.रानी के आदेश से विक्रमी संवत 1856 से करीब “बाइस सौ रोपणी” खेत में रख दिए. तब से नित्य ही प्रथा चली कि पशुपतिनाथ में महास्नान हो, गुह्येश्वरी, कीर्तिमुख व उनमत्त भैरव में महा बलि हो. इन सारी तैयारियो में हनुमान ढोका, कुमारी घरबाट आदि में चुने हुए लोगों का सहयोग प्राप्त होता है.
महास्नान के अवसर पर पशुपतिनाथ जी पोशाक धारण करते हैं. उनके मुख के लिए चांदी का “चार बटा” बनता है तो नयनों के लिए तीन -तीन तोले के स्वर्ण आभूषण. महाभोग में शाल के चावल से बना भात व अनेक प्रकार के मीठे व्यंजन उनकी शिला में अर्पित करने की रीत है. महाभोग के लिए छ मुट्ठी चावल व अठारह प्रकार की दाल पकाई जाती है. भोग के पकने में सभी कार्यों के संपन्न होने में ग्यारह ब्राह्मणों की उपस्थिति अनिवार्य है. कहते हैं भोग में भात होने का चलन तब आया जब राजा रण बहादुर को कन्या प्राप्ति हुई तो उनके मैथिल ब्राह्मण ने महाभोग के लिए भात चढ़ाने की अनुशंसा की, तब महास्नान पर पशुपतिनाथ को एक सौ बीस घड़ों में तैयार पंचामृत से स्नान कराया गया.
पशुपतिनाथ का महाभोग मंदिर की दक्षिणी शिला में करने व विधि विधान से भात-दाल, पूरी, तरकारी बनने का क्रम निरन्तर चला आ रहा है. मंदिर में प्रत्येक पूर्णिमा पर हुआ यह आयोजन वर्ष भर में पड़ी तेरह पूर्णिमाओं को होता है. इस आयोजन में मंदिर प्रांगण में महादीप जलाये जाते हैं. रुई की बनी अनगिनत बत्तियों के मुट्ठे शुद्ध घी में डुबा प्रज्वलित किये जाते हैं. पशुपतिनाथ मंदिर के प्रांगण में कीर्तिमुख, गृहेश्वरी, उन्मत्त भैरव के साथ अन्य गणों की पूजा संपन्न होती है.
शिवरात्रि के दिन पूजा अर्चना करने आए श्रद्धालु, भक्त जन, तीर्थ यात्री, जोगी – सन्यासी मंदिर के प्रांगण से नीचे अविरल बहती बागमती नदी में स्नान करते हैं. दर्शन हेतु मंदिर में लम्बी लाइन लगती है. कुछ फिट की दूरी से ही शिव लिंग के दर्शन हो पाते हैं. दर्शन के बाद भक्त भंडारे में प्रसाद ग्रहण करते हैं. इस क्षेत्र में अनेक स्थानों पर विद्वान् जन भक्त जन सत्संग करते हैं. गायन व नृत्य के आयोजन होते हैं. शिव के अनन्य स्वरूपों, अनगिनत आख्यानों पर चर्चा होती है. पशुपतिनाथ मेले पर बाहर से आए साधु संतो की हर संभव सहायता प्रशासन द्वारा की जाती है.
शिवरात्रि के अवसर पर तीर्थ यात्रियों के लिए अनेक सुविधाएँ हैं जिसमें पहले से चली आ रही ‘डोली-दवा ‘की व्यवस्था भी नियमित है. पर्यटन व चिकित्सा सुविधा में आमूलचूल परिवर्तन हो जाने के बाद भी यह नाम प्रचलित रहा है. शिवरात्रि पर पशुपतिनाथ आने वाले यात्रियों के लिए यातायात व्यय में आधी छूट भी दी जाती रही. जोगी,सन्यासी, हिन्दू तीर्थ यात्री ही मंदिर के मुख्य प्रांगण में प्रवेश कर सकते हैं अन्य विदेशी बाहर के प्रांगण में सीमित रहते हैं. शिवरात्रि पर्व के पूरे विधान व कर्मकांड को समझने के भक्त एक सप्ताह या बारह दिन पूर्व ही डेरा डाल लेते हैं.
(Pashupatinath Temple Shivratri)
शिव रात्रि के पावन पर्व पर पशुपतिनाथ में नेपाल राज्य की ओर से सौगात प्रदान करने का प्राविधान रहा. भारत की रियासतों के राजा महाराजा शिव लीला की प्राकृतिक सुषमा से रम्य इस सुरम्यस्थली से अभिभूत रहे. विक्रमी संवत 1945,1950व 1952 साल में काशी के नरेश हरिराज सिंह दर्शन को आए. विक्रमी संवत 1980 में नासिक के राजा, विक्रमी संवत 1981 में बड़ोदा के महाराज, विक्रमी संवत 1983 में बरेली के राजा,1984 में सुरसंन्द्र की रानी व विक्रमी संवत 1985 में बलरामपुर रियासत की महारानी ने यहां दर्शन लाभ किया. अन्य राजा महाराजाओं के आगमन व पूजा अर्चना संपन्न होती रही. भारत से आए भक्त पशुपतिनाथ के विशेष अनुरागी हैं. शिवरात्रि में भक्तों का आगमन सबसे अधिक रहता हैतो वर्ष भर पर्यटक यहां के नयनाभिराम सौंदर्य के साथ शिव के प्रति अपनी श्रद्धा व अनुराग प्रकट करते हैं.
स्कन्दपुराण के हिमवत्स खण्ड में नैपाल में पशुपतिनाथ की महिमा का वर्णन है जिसके अनुसार यहां शिवजी व मृगस्थली एक दूसरे से अंतरसम्बंधित रहे हैं. इसकी एक कथा के अनुसार शिव यहाँ के घने वनों में मृग रूप में स्वच्छँद विचरण करते थे इसी से उनके किरातेश्वर रूप की छवि बनी. महाभारत में अर्जुन के साथ हिमालय जाते हुए किरात के रूप में उनके साथ हुए युद्ध का वर्णन है जिसने इस स्थल के पौराणिक महत्त्व को रेखांकित किया है. पशुपतिनाथ के पथ पर लिंग यात्रा, उपलिंग यात्रा व वागमती यात्रा का चलन यहाँ सम्पूर्ण हिमालय उपत्यका की आस्था व भक्ति से परिपूर्ण यात्रा की प्रतीक बनीं हैं.
वागमती यात्रा कटवाल के बाट या रास्ते से आरम्भ हो चौंसठ लिंग के दर्शन कराती है जिस पर चलते पूर्व में दुम्जा व फटकशिला, उत्तर में सिंधुपाल्लचोक, पश्चिम में गोरखा और दक्षिण में मकवानपुर चलते यह लिंग यात्रा व उपलिंग यात्रा देश दर्शन या देश यात्रा की प्रतीक बन जाती है.
पशुपतिनाथ का क्षेत्र काफी विशाल है जिसमें चार सौ मंदिर, व सौ धर्मशाला, पाटी और सत्तल हैं. पशुपतिनाथ मंदिर के प्रांगण में सबसे पुराना ब्रम्हा जी का मंदिर है. पूरे क्षेत्र में हज़ारों मूर्तियां हैं जो विभिन्न युगों में निर्मित हुईं व अतिक्रमण से त्रस्त भी रहीं. युनेस्को ने पशुपतिनाथ की विविधता, सौंदर्य व यहां के प्रति भक्तों के असीम अनुराग को देखते इसे विश्व सम्पदा की सूची में स्थान दिया है. शिवरात्रि के पर्व में तो पशुपतिनाथ शिव लीला के सम्मोहनकारी स्वरूप के दर्शन कराने में समर्थ हो उसकी अनगिनत लीला सम्मुख रख देता है.
(Pashupatinath Temple Shivratri)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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