पहली मुलाक़ात में ही मैंने महसूस किया था कि हम दोनों के बीच कई चीजें समान होते हुए भी वह मुझसे बड़े हैं. हमारा सरनेम एक था, जन्म वर्ष एक था, मेरी तरह वह भी कहानी लिखते थे; पारिवारिक पृष्ठभूमि भी हम दोनों की करीब-करीब एक जैसी थी, मगर उस वक़्त अनायास महसूस हुआ था कि मैं उनकी ऊँचाई को नहीं छू सकूँगा. ऊँचाई से मेरा मतलब शायद उनके कद से ही रहा होगा, क्योंकि कोई ऐसा तरीका ईजाद नहीं किया जा सकता था कि मैं पांच फुट चार इंच के अपने कद को तीन-चार इंच बढ़ा कर उनके बराबर ले आता. इसके बावजूद मैं अपनी इच्छा को लगाम नहीं लगा सकता था. दिमाग में जाने कब से साहित्य का कीड़ा घुसा हुआ था, जिससे इस ग़लतफ़हमी को हौसला मिलता था कि चाहो तो इस दुनिया में क्या संभव नहीं है. हो सकता है, इस अहसास के पीछे हम दोनों के बीच की वो समानताएँ हों, जिनका जिक्र ऊपर किया गया है, मगर साहित्यिक हौसलों से ज़िंदगी तो नहीं चलती. लिहाजा मैंने इस बात पर समझौता कर ही लिया कि उनका कद मुझसे ऊंचा है. Pankaj Bisht
उनकी ज्यादातर कहानियों की पृष्ठभूमि पहाड़ की नहीं थी, इसके बावजूद मुझे उनकी कथन शैली अपनी ही सांस्कृतिक परम्परा के समानांतर लगती थी और महसूस होता था कि वह अपने बीच के ही आदमी हैं. कहानियों में वो अपनी बोली-भाषा और लहजे का भी प्रयोग करते नहीं दिखाई देते थे, जैसा कि सभी पहाड़ी कथाकारों में शैलेश मटियानी की किसी-न-किसी रूप में छाप दिखाई देती थी, मगर कोई चीज जरूर थी जो उन्हें शैलेश मटियानी से भी जोड़ती थी. उनका जन्म मुंबई में हुआ था, हालाँकि बचपन का एक आत्मीय टुकड़ा पहाड़ी कसबे भवाली में बीता था. मेरी जानकारी में वह पहाड़ी गाँवों में कभी नहीं रहे, मगर पहाड़ का ठेठ मिज़ाज उनकी रचनाओं और व्यक्तित्व में साफ महकता था. ‘हल’ जैसी एक अचर्चित कहानी को छोड़ दें तो पहाड़ का सांस्कृतिक मिज़ाज पहली बार उनके बहुचर्चित उपन्यास ‘लेकिन दरवाजा’ के अंत में दिल्ली में घरेलू नौकरी करने वाले पहाड़ी चरित्र देवेन्द्र सिंह भंडारी के माध्यम से उभरा है.
यह बात उनके लेखन में विचित्र विडंबना की तरह उभरती है कि पहाड़ी जीवन की अन्तरंग सांस्कृतिक संवेदना से जुड़े भौतिक परिवेश के साथ सीधा संपर्क न होते हुए भी उस जीवन की प्राणदायी धड़कन उनके लेखन में पूरी प्रामाणिकता के साथ सुनाई देती है; ठीक मनोहरश्याम जोशी की तरह. खास बात यह है कि जोशी जी का जन्म भी पहाड़ में नहीं हुआ और उनका संपर्क तो पहाड़ों के साथ उतना भी नहीं रहा जितना कि पंकज बिष्ट का. इसके बावजूद अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘कसप’ में जोशीजी ने ‘कुमाऊनी हिंदी’ शीर्षक से पहली बार अपनी भाषा का व्याकरण रचा. प्रसंगवश, पंकज बिष्ट ने भी अपने समाज का व्याकरण अपने दूसरे उपन्यास में ‘उस चिड़िया का नाम’ शीर्षक से पहली बार रचा.
जिस पहाड़ के भौतिक परिवेश की परम्परा में से पंकज बिष्ट उपजे थे, उसके पहले सितारे इलाचंद्र जोशी (1902) थे जिन्हें हिंदी का पहला मनोवैज्ञानिक कथाकार माना जाता है, हालाँकि पहाड़ी परिवेश को लेकर उन्होंने अपना उपन्यास ‘ऋतुचक्र’ बहुत बाद में, 1966 में लिखा. उनके समकालीन रानीखेत निवासी गोविंदबल्लभ पन्त (1898) ने भी उपन्यास लिखे, मगर उनका भी कोई ऐसा उपन्यास नहीं है जिसे उनके मातृ-परिवेश के सन्दर्भ में याद किया जा सके. उसके करीब तीन दशक बाद जन्मे शैलेश मटियानी (1931) अपने सामाजिक परिवेश की जीवन्तता के साथ सामने आए; देखा जाए तो पहाड़ी आंचलिकता का प्रस्थान-बिंदु शैलेश जी को ही माना जाता है. मनोहरश्याम जोशी (1933) का मुख्य लेखन बहुत बाद में सामने आया, इस बीच उस आंचलिक परिवेश में से अनेक उल्लेखनीय कथाकार उभरे, मगर शैलेश मटियानी का कद केवल मनोहरश्याम जोशी ही छू पाए. जैसा कि पहले संकेत किया, बाद की पीढ़ी में इन दोनों कथाकारों का कद सिर्फ पंकज बिष्ट (1946) ही छू पाए; जाहिर है, उनका रचनात्मक कद. Pankaj Bisht
पंकज बिष्ट के साहित्य का परिचय या विश्लेषण करना मेरा उद्देश्य नहीं है. मनोहरश्याम जोशी का जिक्र भी प्रसंगवश आ गया. साहित्य का मूल्यांकन करना उसके मर्मज्ञों और विद्वानों का काम है, जिसे वे लोग आज भी पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं. मैं तो दरअसल, अपने इलाके के इस अलग तरह के लेखक पंकज बिष्ट के साथ हुई अपनी पहली मुलाकात के बाद मन में बनी छवि के बारे में बताना चाहता था. मुझसे चार इंच ऊँचे उनके कद का मैंने जिक्र कर दिया है, अब उनकी बौद्धिक क्षमता का भी लगे हाथों जिक्र कर लिया जाय.
मैंने सुना था कि पंकज बिष्ट घनघोर पढ़ाकू व्यक्ति हैं, हिंदी और अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार है, बढ़िया अनुवाद करते हैं, आकाशवाणी और दूरदर्शन में समाचार संपादक रहने के कारण राजनीतिक और सामाजिक विषयों के निष्पक्ष विवेचक हैं, कई नामी-गिरामी लोगों के चर्चित इंटरव्यू ले चुके हैं… सोचता था, इतने सारे काम करते रहते हुए बहुत व्यस्त रहते होंगे और उनके साथ सम्पर्क मुश्किल रहता होगा; हर वक़्त तनाव में रहते होंगे, जैसे कि अंग्रेजी पढ़े हुए हिंदी के लेखक रहते हैं… बात-बात में पश्चिम के लेखकों-दार्शनिकों का उल्लेख करते हुए आतंक का माहौल फैला देते होंगे;
मगर मुलाकात के बाद ऐसी कोई बात देखने को नहीं मिली. जिन दिनों मैं पहली बार उनके कार्यस्थल में मिला, वो भारत सरकार की मशहूर हिंदी मासिक पत्रिका ‘आजकल’ के संपादक थे. हिंदी के झोला छाप लेखकों से उलट वह जीन्स-शर्ट पहनते थे और दारू-पान से दूर रहते थे. उनकी साहित्यिक मित्र-मंडली में भी गुरु-गंभीर मुद्रा वाले बोहेमियन किस्म के लेखक नहीं थे, विष्णु प्रभाकर, भीष्म साहनी जैसे बौद्धिक और शारीरिक दृष्टि से निरापद लेखक थे. उनके कार्यालय के रैक में साहित्य की अपेक्षा संस्कृति और समाज-विज्ञान से जुड़ी किताबें रखी हुई थीं. अलबत्ता अपनी घुमंतू कुर्सी के दोनों तरफ ‘आजकल’ के हर महीने के अंक की फाइल कुछ अस्त-व्यस्त अंदाज में पड़ी हुई थी. Pankaj Bisht
प्रसंगवश बता दूं, ‘आजकल’ का मैं वर्षों पुराना पाठक रहा हूँ, यदा-कदा उसमें लिखता भी था और एक सरकारी पत्रिका की तरह उसे जानता था. उनके द्वारा ‘आजकल’ का संपादन-भार सँभालने के बाद मैंने ही महसूस नहीं किया था, हिंदी का प्रबुद्ध पाठक-वर्ग इसे स्वीकार कर चुका था कि उन्होंने अपनी सम्पादकीय अंतर्दृष्टि के जरिये इस पत्रिका का कायाकल्प कर दिया था.
हिंदी में कलात्मक पत्रिकाओं की कमी नहीं है. साज-सज्जा की दृष्टि से ‘आजकल’ से बेहतर नहीं तो वैसी पत्रिकाएं बहुतेरी थीं, मगर ऐसी पत्रिकाएं या तो व्यावसायिक थीं, या निजी प्रयासों से सीमित संख्या में छपने वाली पत्रिकाएं. ऐसी पत्रिकाएं निश्चित घरानों से जुड़ी रहती थीं, जिनका सीमित पाठक वर्ग होता है और जिस संपादक/लेखक को फोकस करने के लिए इनका जन्म होता है, उसकी छवि धूमिल होने के साथ ही पत्रिका भी अतीत बन जाती थी.
‘आजकल’ एक सरकारी पत्रिका थी, जाहिर है कि उसकी कठोर नीतिगत अपेक्षाएं भी रही होंगी. संभव है वह अस्सी के दशक का दौर था, और भारतीय समाज में राजनीति का वह चरित्र सामने आ चुका था जिसमें सत्ताएं मीडिया और कला-माध्यमों का इस्तेमाल अपनी छवि के निर्माण के लिए करने लगी थीं. पंकज बिष्ट ने ऐसे में अपने स्टैंड को बनाये रखकर किस तरह अपने, पाठकों और सत्तावर्ग की अपेक्षाओं के बीच संतुलन बनाये रखा होगा, उनके लिए यह कोई छोटी चुनौती नहीं रही होगी. Pankaj Bisht
हिंदी में ऐसे रचनाकार-संपादकों की लम्बी परंपरा रही है जिन्होंने सत्तासीन और प्रभावशाली लोगों के सामने आसानी से घुटने नहीं टेके हैं. ऐसे संपादकों ने विशाल हिंदी समाज की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए अपने पाठकों के विशाल वर्ग की अपेक्षाओं के निर्माण और विन्यास में बड़ी भूमिका निभाई है. धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय और मनोहरश्याम जोशी द्वारा सम्पादित क्रमशः ‘धर्मयुग’, ‘दिनमान’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ इसके प्रमाण हैं. ‘आजकल’ के सामने दूसरे प्रकार की, अपेक्षाकृत अधिक जटिल चुनौतियाँ थीं, जिनका जिक्र किया जा चुका है. पंकज बिष्ट ने अपने दौर की कला, साहित्य और संस्कृति की परम्पराओं पर आधारित ‘आजकल’ के अनेक विशेषांक निकाले जो न सिर्फ उस पत्रिका के आगामी संपादकों के लिए, अनेक दूसरी शिष्ट अभिरुचि की लोकप्रिय पत्रिकाओं के लिए मार्ग-दर्शक बने. सबसे खास बात यह कि उन्होंने अपने चारों ओर खुद के लिए अथवा किसी रचनात्मक आन्दोलन के पक्ष में लेखकों-पाठकों का आभा-मंडल तैयार नहीं किया. अलबत्ता, हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता में एक शालीन कलात्मक अभिरुचि की परंपरा का मानक पेश किया.
चुनौती की बात यहाँ इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हिंदी पत्रकारिता का रूप शुरू से ही साहित्यिक और सामाजिक दो अलग-अलग, एक-दूसरे की विरोधी-सी परम्पराओं के रूप में विकसित हुआ है. हिंदी पत्रकारिता अपने साहित्य की तरह, शुद्धतावादी राष्ट्रवादी धारा के समानांतर उभरी है. इस बात के विस्तार में जाने का अभी समय नहीं है, मगर इसका जन्म हिंदी गद्य के आरंभिक चरण में भारतेंदु, सितारेहिंद और राजा लक्ष्मण सिंह के बीच चली बहस में देखा जा सकता है. दुर्भाग्य से इस बहस के बाद हिंदी के जातीय चरित्र को लेकर चली जो बहसें सामने आयीं वे हिंदी को औपनिवेशिक शासकों द्वारा निर्धारित वर्नाकुलर भाषा के रूप में रेखांकित करती हैं और हिंदी को लेकर आज तक वही अंग्रेजियत का ठप्पा चला आ रहा है. हिंदी भाषा के संघर्ष की कहानी इतनी लम्बी और जटिल है कि उसमें से वास्तविक हिंदी वालों के स्वर को पकड़ पाना बहुत मुश्किल है. उन दिनों आजादी की लड़ाई और भाषाई-अस्मिता की लड़ाई एक साथ चल रही थी इसलिए हिंदी का पक्षधर स्वर रह-रह कर सांप्रदायिक रूप में उभरने लगता था. आजादी के दो-तीन दशकों के बाद जब अपनी पहली भाषा अंग्रेजी के साथ युवा पीढ़ी उभरी, उनके लिए हिंदी के उस संघर्ष की कल्पना कर पाना संभव ही नहीं था; दूसरे, उनके लिए अंग्रेजी भाषा में दिए गए विवरण के आधार पर अपनी स्थापनाएं देना विवशता थी. बाद में डिजिटल युग में आए गूगल ने तो वास्तविकता और छद्म का अंतर सिरे से ख़त्म कर दिया. यही कारण है कि आज हिंदी की पहचान या तो आरक्षण वाली सरकारी हिंदी के रूप में उभरी है या अंग्रेजी के पीछे-पीछे घिसटने वाली परजीवी लता के रूप में. लगता नहीं कि भविष्य में कभी हिंदी के संघर्ष-कर्ताओं के पक्ष को समझा जायेगा.
भाषा के इस सवाल पर पंकज बिष्ट ने अपने सम्पादकीयों और स्वतंत्र लेखों के रूप में काफी लिखा है, उनसे पहले सैकड़ों लेखकों ने अपने-अपने तरीके से हिंदी के मूल चरित्र के अंतर्विरोधों को पकड़ने की कोशिश की है, मगर जैसा कि संकेत किया, या तो उसके शुद्धतावादी रूप की हिमायत की गई है या वर्नाकुलर रूप की. अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों के द्वारा हिंदी भाषा के पक्ष में दिए गए तर्कों के समानांतर मजबूत तर्क अभी तक सामने नहीं आ पाए, ‘समयांतर’ के लाख प्रयत्नों के बावजूद.
‘समयांतर’ (मासिक) के पुनर्प्रकाशन पर पंकज बिष्ट ने हिंदी पत्रकारिता के सन्दर्भ में अपने उस सपने का बार-बार जिक्र किया है कि उनकी इच्छा रही है, वह हिंदी में ‘ईपीडब्ल्यू’ जैसी प्रबुद्ध अंग्रेजी समाचार पत्रिका का प्रकाशन कर सकें. अंग्रेजी के ग्लैमर-आतंकित लेखक-पाठक वर्ग के लिए इस तर्क को समझ पाना मुश्किल है, इसीलिए हिंदी समाज के बीच इसे लेकर बहस सामने नहीं आ पाई है. पंकज जी ने पत्रिका की विषय-वस्तु, विश्लेषण, तेवर, गंभीरता और रोचकता को लेकर कोई समझौता किये बिना हर महीने दो-दो विशेष अंकों के साथ पत्रिका का प्रकाशन किया, यह कोई छोटी बात नहीं है. लेखकों-अनुवादकों की कोई पूर्व-निर्धारित टीम न होते हुए भी हर अंक में प्रत्येक प्रासंगिक और जरूरी विषय पर लेख संकलित करना और फिर उनका सटीक/रचनात्मक अनुवाद करना/करवाना कितनी व्यस्तता और परिश्रम की अपेक्षा करता है, इसे आसानी से समझा जा सकता है. कोई व्यवस्थित सम्पादकीय और व्यवस्थापकीय कार्यालय तथा आर्थिक आधार न होते हुए भी अपने खर्च पर हर महीने की 5-6 तारीख को उसे डाक द्वारा वितरित कर देना, आज के दौर में तिलिस्म से कम नहीं है. पत्रिका ने यह मर्यादा भी बनाये रखी है कि, जहाँ तक मुझे मालूम है, कोई भी अंक किसी लेखक/अधिकारी को मुफ्त नहीं भेजा जाता. रचनाकारों के लिए मानदेय की व्यवस्था नहीं है, फिर भी, संपादक के अनुसार, जरूरतमंद व्यक्ति के लिए, यह व्यवस्था की जा सकती है. विज्ञापन प्राप्त करने के लिए कोई स्वतंत्र विभाग नहीं है; ऐसी पत्रिकाओं में जैसा कि होता है, शुभचिंतक, मित्र तथा रचनाकार सहयोग करते हैं. यों भी, जिस पत्रिका का स्वर आदि से अंत तक व्यवस्था-विरोधी और आक्रामक हो, उसे कौन विज्ञापन देगा, इस बात का अंदाज़ लगाया जा सकता है. पंकज बिष्ट की राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धता के बारे में सब जानते हैं, और आज के कठिन समय में उनकी प्रतिबद्धता से जुड़ा मंच पूरी जीवंतता के साथ जिन्दा है, यही कम बड़ी बात नहीं है.
खास बात यह है कि सम्पादकीय और कार्यालयी सहयोग, जहाँ तक मुझे मालूम है, सक्षम मित्रों को मामूली मगर जरूरी पारिश्रमिक देकर संपन्न किया जाता है. आज के दौर में ही नहीं, हर दौर में तनाव का मुख्य कारण आर्थिक व्यवस्था का संयोजन रहा है. पंकज जी के द्वारा कुछ वर्षों से मित्रों से आर्थिक सहयोग की अपील भी की है, अनेक बार मैंने अपने द्वारा दिए जा सकने वाले सहयोग का जिक्र किया तो उन्होंने बताया कि रचनाकार का सबसे बड़ा सहयोग उसकी रचनाएँ होती हैं, उन्होंने शालीनता के साथ यह कहकर मना कर दिया था कि जरूरत पड़ने पर वह मंगा लेंगे.
जो लोग कथाकार भीष्म साहनी के संपर्क में रहे हैं, जानते हैं कि भीष्मजी घोषित वाम-पंथी थे, मगर अधिकांश लोग उनकी इस प्रतिबद्धता और तेवर से परिचित नहीं थे. अपने व्यवहार और लेखन के माध्यम से उनकी जो छवि बनती है, वह एक उदारवादी सरल-सहज सरोकारों वाले लेखक की बनती है. शायद ही, किसी भी मुद्दे पर किसी ने भीष्म जी को आवेश में या तनाव में देखा होगा. मेरा बहुत नजदीकी परिचय भीष्म जी के साथ नहीं था, मगर अपने लम्बे परिचय के बीच जब भी उन्हें कहानी पर संकलन तैयार करने की जरूरत पड़ी, वो हमेशा मुझसे मेरी सूची मंगाते थे. अंतिम सूची वह अपने विवेक से ही तैयार करते थे, मगर यह कोई छोटी बात नहीं थी कि वे मुझ जैसे नए और अचर्चित लेखक की राय का वह सम्मान करते थे.
इन अर्थों में मुझे पंकज बिष्ट भीष्म जी के निकट लगते हैं. पंकज भी प्रतिबद्ध वामपंथी हैं, दक्षिणपंथी विचारधाराओं पर वो अपनी हर वैचारिक अभिव्यक्ति में किस तरह आक्रामक प्रहार करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. वो हिंदी के उन थोड़े-से प्रतिबद्ध रचनाकारों में हैं, जो बिना आवेश में आए या ‘लाउड’ हुए अपनी सख्त उपस्थिति दर्ज करते हैं. और सबसे बड़ी बात, भीष्मजी की ही तरह दूसरी विचार धारा वाले लोगों के साथ संवाद का दरवाजा खुला रखते हैं. ‘समयांतर’ में अपनी स्थापनाओं की तीखी आलोचना करने वाली टिप्पणियाँ अमूमन पढ़ने को मिल जाती हैं. बिना ‘लाउड’ हुए उनका तार्किक जवाब भी वो प्रस्तुत करते हैं. देखा जाए तो उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता हिंदी में असहजता की हद तक तनाव पैदा करने वाली पत्रकारिता के सामने विश्वास और आस्था का संबल प्रदान करती है. ऐसे लोग निश्चय ही हिंदी में बहुत कम हैं जो प्रभावशाली लोगों के विश्वास का सम्मान करते हुए अपने विश्वास पर अडिग रहते हैं.
रही बात उनके कद की. मैंने कभी उनकी ऊँचाई को फीते से नहीं नापा. अब तो उसकी जरूरत भी नहीं है क्योंकि हम दोनों उम्र के ऐसे पड़ाव में हैं जहाँ इस बात का कोई मतलब नहीं रह जाता. कहते हैं, बुढ़ापे के साथ आदमी का कद सिकुड़ता है, मगर आदमी के पास प्रकृति की जो सबसे बड़ी नियामत है, उसकी रचनात्मकता, उसके कद के साथ क्या ऐसा होता है? क्या वह भी सिमटती या विस्फारित होती है? खुद के बारे में तो मैं कह नहीं सकता, शायद कोई नहीं कह सकता, मगर पंकज बिष्ट का रचनात्मक कद आज भी बढ़ता जा रहा है.
दरअसल, रचनात्मक कद की यह यात्रा आदमी की उम्र तक तो चलती नहीं, कहते हैं, एक लेखक की रचनात्मक उम्र का कद तो उसकी दैहिक उम्र के बाद ही बढ़ता है. इसलिए मैं इस मामले में अपना निष्कर्ष कैसे बता सकता हूँ! Pankaj Bisht
‘पंकज बिष्ट पचहत्तर’
‘बया’ (संपादक : गौरीनाथ) के विशेषांक में प्रकाशित संस्मरण
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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