अकेलेपन का दर्द बूढ़े होकर ही जानेंगे हम

सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

सबसे पहले तो हमें यह जान लेना चाहिए कि वह चेतना, जो कि हमें अपने जीवित होने की अनुभूति देती है, उम्र के हिसाब से कम या ज्यादा नहीं होती. चेतना के स्तर पर एक बच्चे और एक बूढ़े में कोई फर्क नहीं किया जा सकता. दोनों के भीतर एक बराबर प्राण हैं यानी एक बराबर चेतना. इसीलिए यह न समझ लिया जाए कि कोई व्यक्ति बूढ़ा हो गया है, तो उसकी मानसिक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक जरूरतें भी कम हो गई हैं. नहीं. उन्हें भी पसंदीदा खाना अच्छा लगता है. उन्हें भी दोस्तों के बीच गप्पें मारते हुए हंसना-हंसाना अच्छा लगता है. उन्हें भी मनोरंजन की जरूरत होती है. उनके लिए भी ध्यान, व्यायाम और योग आदि उतना ही जरूरी है, जितना आप अपने लिए समझते हैं.

बूढ़ों की बात मैं इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि सोशल मीडिया में एक तस्वीर बहुत वायरल हो रही है. यह 2007 की तस्वीर है, जिसमें स्कूल यूनिफॉर्म में एक लड़की एक बूढ़ी औरत की ओर देखते हुए रो रही है. यह बूढ़ी असल में उसकी दादी है, जो कि वृद्धाश्रम में रहती है. लड़की का चेहरा ध्यान से देखोगे, तो लगता है कि जैसे वह दादी को शिकायत कर रही है कि तुम यहां क्यों रह रही हो. दादी के चेहरे को देखोगे, तो प्रतीत होता है कि जैसे वह बहुत बेबस है. कहानी यह है कि लड़की को उसके माता-पिता ने बताया हुआ था कि दादी अपनी मर्जी से कहीं और रहती हैं. संयोग से स्कूल वाले अपने विद्यार्थियों को वृद्धाश्रम दिखाने ले जाते हैं, तो यह लड़की दादी को वहां पाकर फूट-फूटकर रोने लगती है. बताने की जरूरत नहीं कि दादियों और पोतियों के बीच कितना प्यार होता है. हालांकि अब तस्वीर वाली लड़की बड़ी हो गई है और दुनियादार भी. अब उसका कहना है कि उसकी दादी उसके माता-पिता के कहने पर नहीं, बल्कि अपनी मर्जी से वृद्धाश्रम रह रही थीं. जाहिर है कि वह अपने माता-पिता पर कोई लांछन नहीं चाहती.

मगर ऐसा अगर मान भी लिया जाए कि दादी अपनी ही मर्जी से वृद्धाश्रम रह रही थी, क्या यह गलत नहीं है. कौन दादी होगी जो पूरा खयाल रखने वाले बेटे, बहू और इतनी भावुक प्यारी पोती के बीच घर के ऐशो-आराम को छोड़कर वृद्धाश्रम जाकर रहे. और अगर दादी ने ऐसा चाह भी लिया था, तो क्या बेटे को जिद करके उसे रोकना नहीं था. क्या उसे यह याद दिलाए जाने की जरूरत है कि जब वह छोटा था, तो उसने न जाने कितनी बार कितनी-कितनी जिद करके इसी मां से कैसी-कैसी बातें मनवाईं थीं. अब वह मां बूढ़ी हो गई है. बूढ़े लोग बच्चों जैसे हो जाते हैं. आदर्श तो यह है कि एक बेटे को अपनी बूढ़ी मां का पिता की तरह और बेटी को मां की तरह खयाल रखना चाहिए. ऐसा न किया जा सके, तो कुछ बुनियादी बातों का खयाल तो रखा ही जाना चाहिए. मां ने कैसी भी जिद की हो, बेटा उससे ज्यादा जिद करके उसे जाने से रोक ही सकता था.

हम रोजमर्रा के जीवन में बूढ़ों को बहुत उदासीन नजरों से देखते हैं, जैसे कि उनका कोई अस्तित्व ही न हो. और बूढ़े हैं कि कहीं हमारा पीछा नहीं छोड़ते. रेल के डिब्बे में, हवाई जहाज में, पार्क में, थिएटर में, सिनेमा हॉल में, सड़क पर, घर पर. आप कभी उनके सामने थोड़ी देर रुककर उनके चेहरे की झुर्रियां हटाकर तो देखिए, आपको उनके युवतर चेहरे तक पहुंचने में ज्यादा देर नहीं लगेगी और आप पाएंगे कि इनमें से कितनों के भीतर तो आपसे भी गहरी जिजीविषा है. आप पाएंगे कि इन झुर्रियों के पीछे के सारे चेहरे बेहद मासूम हैं.

हालांकि बेतहाशा भागता ट्रैफिक उन्हें हाशिए पर धकेलने की पुरजोर कोशिश करता है, वे अपनी पूरी ताकत से जिंदगी के हाइवे में बने हुए हैं और एकदम दुरुस्त गाड़ी चला रहे हैं. हम उन्हें इस तरह देखते हैं कि जैसे वे हमसे पूरी तरह अलग हैं और उनकी हमारे जीवन में कोई भूमिका ही बाकी नहीं रही. हमारे दिमाग में यह बात ही नहीं आती कि देर-सबेर हम भी उनकी स्थिति में पहुंच ही जाएंगे और शायद तब जानेंगे कि हाशिए पर धकेल दिए जाने की क्या पीड़ा होती है. अभी भी समय है. स्थितियों को बदला जा सकता है. कृपया आपके घर में और आसपास आप जितने भी वृद्धजनों को जानते हैं, उनसे पूरे अदब और बराबरी के साथ पेश आना शुरू करें, ताकि आपके बच्चों की भी आपके प्रति संवेदना बनी रहे.

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