अपना मित्र और पूर्व में सहकर्मी रहा शमशेर नेगी एक बड़ी मजेदार बात कहा करता है- “जिसने नहीं खाया पहाड़ी नूण, उसमें नहीं पहाड़ी खून.” बंदे की बात में दम तो है. कोई परिवार चाहे पहाड़ में ही रहता हो या फिर पहाड़ से दूर किसी नगर-महानगर में, उसकी पहाड़ी होने की पहचान उसकी रसोई में किसी शीशी या डिबिया में रखे पहाड़ी नूण से ही स्थापित होती है. अगर आप उनके घर गए और आपके सामने प्लेट में कटे अमरूद और उनके साथ एक कटोरी में पहाड़ी नूण परोसा जाए तो आंख मूंद कर भरोसा कर लीजिए कि ये परिवार पहाड़ी ही है और अभी भी पहाड़ के रहन-सहन और खान-पान से बावास्ता है. अपना शमशेर खुद भी पहाड़ी नूण बनाने का माहिर है. वो तो इधर उसे पेट संबंधी कुछ दिक्कत के कारण ब्रेक लगा गया, वरना पहले कई मौकों पर उसने अपने हाथों से बने पहाड़ी नूण में सान कर भूने हुए बकरे की कचमोली/ पंचोली खूब खिलाई है. एक संध्या तो पहाड़ी नूण के साथ बनाई उसकी कचमोली का चटखारा कुछ ऐसा था कि मैंने “जलपान” की बजाय खानपान पर ध्यान अधिक केंद्रित कर दिया और पहाड़ी नूण की वाह-वाह करते हुए आधा किलो से अधिक माल अकेला ही धसका गया. बाकी मित्रों ने बाद में शायद स्नैक्स नामक पूरक आहार की पूर्ति हल्दीराम की नमकीन के पैकेट से की. पहाड़ी नूण के मामले में शमशेर जैसे हुनरमंदों की पहाड़ में कोई कमी नहीं. महिलाओं के हाथ में तो खैर जादू है ही, पर कई पुरुष भी ये कीमियागीरी खूब जानते हैं.
दरअसल पहाड़ के महिला-पुरुषों में इस हुनर का राज यहां के खान-पान में बसा है. अब दो-चार दिन की बात और है. इसके बाद आपको पहाड़ के गांवों की क्यारी-बाड़ियों में लकड़ी के ठंगरों के सहारे अपने यौवन को चढ़ती काखड़ी की लताएं और उन पर लटकी काखड़ियां नजर आने लगेंगी. सावन-भादो से लेकर कार्तिक-मंगसीर तक पहाड़ के गांव इन काखड़ियों से लकदक नजर आएंगे. अब इन काखड़ियों का मजा लेना है तो पहाड़ी नूण जरूरी हुआ. सफेद नमक, काले नमक में काखड़ी खाई तो क्या खाई. काखड़ी के साथ सादे नमक की संगत … ये तो वैसी ही हुई जैसे तेज ध्वनि वाले पाश्चात्य संगीत में सितार और संतूर जैसे वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल किया जाए. काखड़ी का मजा लेना है तो लाल, हरी मिर्च, लहसुन, हरे धनिया से तैयार किए गए चटपटे पहाड़ी नूण की ही संगत चाहिए. छिलके समेत लम्बवत कटी हुई काखड़ियों में इस नूण का लेप हो. घपाघप काखड़ी खाई जाए. काखड़ी के रस के साथ घुलकर ये नूण बहता हुआ आपकी आंतों में पहुंचे और आपकी जठराग्नि को शांत करता चले.
इधर काखड़ी का सीजन खत्म होते ही पहाड़ के घरों के आंगन के आगे लगे नींबू के पेड़ पीले रंग के बड़े-बड़े नींबुओं से लदने लगेंगे. गूंड़ी-बांदरों की भी पौ-बारह हो जाएगी और रसोइयां भी इनके स्वाद से तरबतर हो जाएंगी. इन नींबुओं को स्वाद बदलने के लिए दाल में निचोड़ा जाएगा. ऑफ सीजन में इस्तेमाल के लिए इनका चूख तैयार किया जाएगा. अचार बनाकर रख लिया जाएगा.
लेकिन पूरे उत्तराखंड में इन सबसे बढ़कर इन नींबुओं का कोई उपयोग है तो वो है इनका सन्ना बनाना. पिथौरागढ़ से लेकर उत्तरकाशी तक कोई जिला ऐसा नहीं है, जहां सर्दियों की गुनगुनी धूप में गांव-गांव नींबू सानने का यह नारी पर्व आयोजित न होता हो. चूंकि अब पूरा पहाड़ ही देहरादून और हल्द्वानी में उतर आया है तो आपको इन नारी पर्वों का आयोजन इन नगरों के घरों के बरामदों, दालानों में भी होता दिख जाएगा. उत्तराखंड के अलावा मैंने पूरे देश में सन्ना रूपी नींबू का यह अद्भुत प्रयोग हिमाचल के कुछ स्थानों को छोड़कर अन्यत्र कहीं और होते नहीं देखा.
सर्दी के गुनगुनी धूप वाले किसी दिन परिवार व आसपड़ोस की चार-छह महिलाएं इकट्ठा हो गई. नींबू, मूली, हरा धनिया, दही, गुड़-चीनी वगैरह जरूरी सामग्री जमा कर ली गई. लेकिन मुख्य घटक तो अभी रह ही गया और यह घटक द्रव्य है पहाड़ी पिसी नूण. पहाड़ी नूण में नींबू को सानने की क्रिया ही उसे सन्ना बनाती है. सन्ना उत्सव में उस अनुभवी महिला को पहाड़ी पिसी नूण तैयार करने की जिम्मेदारी दी जाती है, जिसे इसके घटक द्रव्यों की मात्रा और अनुपात की सटीक जानकारी हो. जिसका नूण जितना बढ़िया, उसके सन्ने का स्वाद उतना चटखारेदार और उसकी तारीफों का पुल भी उतना ही लंबा. सन्ना बनाने में नूण के इस्तेमाल को लेकर गढ़वाल व कुमाऊं मंडल में थोड़ा अंतर है. जहां गढ़वाल मंडल में इसे धनिया, लहसुन के पत्ते, मोरिया और हरी मिर्च के नमक में साना जाता है, वहीं कुमाऊं मंडल के लोग भांग के नमक में तैयार सन्ना अधिक पसंद करते हैं.
ये तो थे पहाड़ी पिसी नूण के बहुप्रचलित उपयोग. लेकिन इसकी उपयोगिता यहीं तक सीमित नहीं है. हल्का खट्टापन लिए उत्तराखंडी सेब खाना हो या नाशपाती, इनका साथ निभाने के लिए भी पहाड़ी पिसी नूण तैयार है. भट्ट के डुबके बने हों और इसमें अंत में नमक डालना हो तो पहाड़ी पिसी नूण हाजिर. आलू के गुटकों का कुछ अलहदा स्वाद लेना हो तो आलुओं को जम्बू में तड़का लीजिए, ऊपर से बस थोड़ी सी हल्दी और सुखाकर रखा गया पहाड़ी पिसी नूण डालिए. ऐसे संतुलित और स्वाद से भरपूर गुटके बनेंगे कि आप बाजारू मसालों में तैयार गरमपानी के गुटकों को भूल जाएंगे.
घर में कोई बुजुर्ग बीमार है और डॉक्टर ने उन्हें मिर्च-मसाले खाने से इन्कार किया है, जबकि बाकी लोगों की जीभ चटपटा खाने के लिए लपलपाती है तो इस दुविधा का समाधान भी पहाड़ी पिसी नूण में ही छिपा है. बुजुर्ग के लिए सादी दाल सब्जी बना दी और मिर्च मसालेदार खाने वालों के लिए ऊपर से घर में पहले से ही तैयार डिबिया में रखा पहाड़ी नूण बुरक दिया. इधर, हल्द्वानी में तो मैंने इस नूण का एक अभिनव प्रयोग होता देखा. शहर में दो गोलगप्पे, टिक्की बेचने वाले एक दुकान पर बिकने वाले पहाड़ी पिसी नूण को खरीद कर ले जाते हैं. जब ग्राहक दुकान पर टिक्की या दही पापड़ी की मांग करते हैं तो दूसरी चीजों के साथ वे चुपके से उसमें थोड़ा सा ये नूण भी इस्तेमाल कर देते हैं और इस नुस्खे को किसी को बताते नहीं. इस नूण को भी डालने से उनकी दही पापड़ी, टिक्की का स्वाद लाजवाब हो जाता है और ग्राहक दुकान का मुरीद.
पहाड़ी नूण का ही चमत्कार है कि इसका इस्तेमाल शुरू करने के बाद इन दुकानों में ग्राहकों की संख्या दोगुनी से भी अधिक हो गई है. इस नूण की बहुआयामी उपयोगिता के कारण ही यह हर पहाड़ी परिवार की रसोई की जरूरत है. माता-बहनें इसे पीस कर इसका कुछ न कुछ स्टॉक अपनी रसोई में जरूर रखे रहती हैं. मजे की बात तो यह है कि पहाड़ी पिसी नूण स्वाद और खुशबू की किसी सीमा से बंधा नहीं है. अनेकानेक खुशबुएं और स्वाद का अनंत विस्तार. लहसुन-मिर्च का नमक, लहसुन में भी कलियों का नमक अलग और हरे धनिया के साथ मिलाकर लहसुन की पत्तियों का नमक अलग, भांग का नमक, भंगीर का नमक, मोरिया का नमक, राई का नमक, तिल का नमक, अलसी का नमक, तिमूर का नमक आदि-आदि.
नमक के साथ इतने अभिनव प्रयोग भारत के प्रांत तो छोड़िए शायद दुनिया के किसी भी मुल्क में होते हों. शेष दुनिया के लिए नमक तीन ही होते हैं- साधारण समुद्री नमक, काला नमक और सेंधा नमक. इसलिए अपने अभिनव नमक ज्ञान की बिनाह पर हर उत्तराखंडी दुनिया के सामने फख्र से कह सकता है कि उसे नमकोलॉजी में पीएच.डी हासिल है.
इधर, पिछले दो दशक में पहाड़ों से पलायन की रफ्तार में तेजी आई है. लोग गांव छोड़कर नगरों-महानगरों में जा बसे हैं. नूण बनाने वाला सिल-बट्टा तो गांव में ही छूट गया, पर पिसी नूण के स्वाद और खुशबू से जुड़ा यादों का संसार शहरों तक साथ खिंचा आया. सिलबट्टा रहा नहीं, शहर की आपाधापी में वक्त मिलता नहीं पर जीभ कहती है-पहाड़ी पिसी नूण हो जाए. निराश न हों, पहाड़ी पिसी नूण के ऐसे शौकीनों के लिए अब ये भी बाजार में उपलब्ध है. शहरों में बसे पहाड़ के लोगों के इस स्वाद की मांग को देखते हुए पिछले कुछ वर्षों में पहाड़ी नूण का एक अच्छा-खासा बाजार आकार ग्रहण कर चुका है. हल्द्वानी, देहरादून के हिमान्या मार्ट में छोटे-छोटे महिला समूहों का तैयार किया पहाड़ी नूण सदैव बिक्री के लिए उपलब्ध है. हल्द्वानी, बरेली, लखनऊ, गाजियाबाद, मुंबई, जयपुर आदि में लगने वाले उत्तरायणी मेलों व पहाड़ी कौथिगों में कई समूह बिक्री के लिए अपना तैयार नूण लेकर पहुंचते हैं. इन समूहों की बिक्री तो मेले-स्टालों तक ही सीमित हैं, लेकिन काकड़ीघाट की दीपा देवी और हल्द्वानी की उषा बेंजवाल ने दो कदम और आगे बढ़कर इनका स्थायी बाजार खड़ा कर दिया है. क्रमशः हिमालयन फ्लेवर और बूढ़ी आमा ब्रांड नेम से इनके पहाड़ी पिसी नूण काक़ड़ीघाट और हल्द्वानी की दुकानों में साल भर उपलब्ध हैं. यह नियमित उपलब्धता पहाड़ी पिसी नूण के भविष्य के लिए शुभ संकेत भी है और इसके शौकीनों के लिए सुखद भी.
बाजार से भले ही खरीदिए, पर कभी घर पर भी इस पर हाथ आजमाइए. बाजार में उपलब्ध पहाड़ी पिसी नूण और खुद बनाए में इतना ही फर्क है जितना होटल के खाने और घर के खाने में. होटल के खाने में पैसों की खनक है और घर के बने में मेहनत की खुशबू.
अगर आप घर पर ही पहाड़ी पिसी नूण बनाने की तैयारी कर रहे हैं तो पेश-ए-खिदमत है भांग का नूण बनाने की विधि. भांग का नूण तैयार करना दूसरे फ्लेवर को तैयार करने की तुलना में थोड़ा कठिन तो है, लेकिन भूनने के बाद भांग बीजों की धुंयेली खूशबू इस नूण को एक अलग ही श्रेणी में खड़ा कर देती है और अंदर से आवाज निकलती है, खाता रहे मेरा दिल …
साधारण नमक- 50 ग्राम, भांग बीज- 50 ग्राम, लहसुन- 10 ग्राम, साबुत लाल मिर्च-5 ग्राम, गंधरायण-एक-दो ग्राम (यदि चाहें तो)
भांग के बीजों को भून लीजिए और तब तक भूनिए, जब तक ये तड़तड़ाने न लगें. ध्यान रहे कि न तो बीज कच्चे रहें और न ही जलने पाएं. भांग का नमक बनाने की कला और विज्ञान भांग बीजों को भूनने पर ही टिके हैं. अगर बीज जल गए तो नमक स्वादहीन व कड़वा हो जाएगा और कच्चे रह गए तो कुछ दिन बाद नमक में तैलीय बदबू आने लगती है. इन भूने हुए बीजों को सिलबट्टे या ग्राइंडर में बिल्कुल महीन पीस लें. पीसने के बाद इसे किसी छलनी में भली-भांति छानकर छिलकों को अलग कर लें अन्यथा ये छिलके खाते वक्त आपके दातों में चुभकर आपका मजा किरकिरा करेंगे. अब इस पाउडर को नमक, लहसुन व मिर्च के साथ मिलाकर सिल पर पीस लें. पीसने के बाद नमक को दो-तीन दिन किसी खुले बरतन में ही रहने दें ताकि लहसुन का गीलापन उड़ जाए. भली-भांति सूख जाने के बाद इसे किसी कांच के या चीनी मिट्टी के जार में सहेज कर रख लें और जब मन चाहे इसका इस्तेमाल करते रहें.
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चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखते हैं.
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