(बीते हुए कल और आज यानी 29 और 30 नवंबर को देश भर से किसान अपनी मांगों और समस्याओं को लेकर एक बार फिर से राजधानी दिल्ली में हैं. किसानों के नासिक-मुंबई मार्च में देश का हर तबका किसानों का साथ देने के लिए स्वत:स्फूर्त तरीके से उठ खड़ा हुआ था. जो मुंबई में थे, वे किसानों के पास आजाद मैदान में पहुंचे और जो बाहर थे, उन्होंने सोशल मीडिया पर किसानों का दर्द साझा किया. इसके बावजूद किसानों का दर्द न तो कम हुआ है और न ही उसके इलाज के लिए कोई गंभीर प्रयास शुरू हुए हैं. किसान अपने सवालों के साथ फिर से सड़क पर खड़े हैं. किसानों के सवालों पर राहुल पाण्डेय ने प्रसिद्ध पत्रकार पी साईनाथ से बात की.)
राहुल पांडेय: इस बार किसान आंदोलन की प्रमुख मांगें क्या हैं और कहां-कहां से किसान इसमें हिस्सा लेने के लिए आए हैं?
पी साईनाथ : इस बार दिल्ली पहुंचे किसान आंदोलन की यह अनोखी बात है कि इसमें मध्यम वर्ग के लोग मसलन- डॉक्टर्स फॉर फार्मर्स, लॉयर्स फॉर फार्मर्स, टेकीज फॉर फार्मर्स, नेशन फॉर फार्मर्स के बैनर तले हिस्सा ले रहे हैं. मध्यम वर्ग ने नेशन फॉर फार्मर्स के नाम से सॉलीडैरिटी फोरम बनाया है. ये आइडिया पिछले दिनों किसानों के मुंबई-नासिक मार्च से निकला है. मुंबई में किसानों का साथ देने के लिए मध्यम वर्ग के बहुत सारे लोग आजाद मैदान में अपने-आप ही आ गए. फिर किसानों के लिए देश भर में ऐसे कई सारे ग्रुप्स भी बने जैसे- नेशन फॉर फार्मर्स चेन्नई, नेशन फॉर फार्मर्स बंगलुरु, नेशन फॉर फार्मर्स मांडियार, नेशन फॉर फार्मर्स नागपुर. किसान आंदोलन में मध्यम वर्ग की सहानुभूति और जुड़ाव ऐसी ही चीजों से सुनिश्चित होगी. इस बार की रैली ऑल इंडिया किसान संघर्ष समिति (एआईकेएस) ने बुलाई है जिसमें सौ से दो सौ संगठन जुड़े हैं.
इन लोगों ने कर्जा मुक्ति बिल और एमएसपी का बिल ड्राफ्ट किया है, जिसे संसद में पास होना है. हमारी मांग है कि इसके लिए संसद का कम से कम तीन हफ्ते का स्पेशल सेशन होना चाहिए, जिसमें कृषि संकट और इसके मुद्दों पर बहस हो. दूसरी बात यह है कि कॉरपोरेट जगत के मुद्दे पर तो संसद में आधी रात को स्पेशल सेशन चलाया गया, लेकिन स्वामीनाथन रिपोर्ट (जो कि पहली बार सन 2004 में और आखिरी रिपोर्ट 2016 में संसद में पेश हुई) पर अभी तक एक भी घंटे का भी स्पेशल डिस्कशन नहीं हुआ है. संसद का जो विशेष सत्र चले, उसमें एआईकेएस के दोनों बिलों को पास होना है. फिर स्वामीनाथन आयोग पर बहस हो, जिसमें सिर्फ किसानों के कर्ज या फसल की कीमतों पर ही नहीं, बल्कि समूचे कृषि संकट पर बात होनी है. खेती में होने वाले पब्लिक इन्वेस्टमेंट और खेती के निजीकरण की वापसी पर बहस हो. मैं मानता हूं कि निजीकरण के खिलाफ खुला मोर्चा इस देश के किसानों, गरीबों और उदार लोगों का मोर्चा है. अगले तीस सालों के अंदर देश में कैसी खेती चाहिए? हमें कॉरपोरेट संचालित खेती चाहिए या सामुदायिक खेती?
राहुल पांडेय: कृषि संकट से निपटने के लिए किसान बीमा योजना लाई गई. इससे किसे फायदा है और किसे नुकसान?
पी साईनाथ: कैग ने इस स्कीम की बहुत आलोचना की है. कैग रिपोर्ट नंबर 7, सन् 2017 देखिए. यह स्कीम अपने आप में बहुत बड़ा घोटाला है. ये कॉरपोरेट को दसियों हजार करोड़ रुपयों के मुनाफे के लिए डिजाइन की गई है. इसमें किसान जब तक बीमा के कागजों पर साइन नहीं करते, उन्हें कर्ज नहीं मिलता. जब कर्ज दिया जाता है तो उसमें से बैंक बीमा का प्रीमियम काट लेता है. किसान को मुआवजा मिलता ही नहीं, और अगर मिल भी गया तो उसमें पहला शेयर बैंक का होता है, क्योंकि बैंक ने पहले लोन दिया. ये पूरी तरह से किसान विरोधी योजना है. आरटीआई के जरिए पता चला है कि पहले चौबीस महीने में लगभग 12-15 इंश्योरेंस कंपनियों ने 15795 करोड़ रुपये मुनाफा हासिल किया, जबकि इसी वक्त में फसलों का भारी नुकसान हुआ, लेकिन किसानों को इसका मुआवजा नहीं मिला.
राहुल पांडेय: सरकार कहती है कि वह फसल का दाम बढ़ा रही है. फिर भी किसान नाराज हैं. ऐसा क्यों?
पी साईनाथ: सरकार जो एमएसपी बोलती है, वह स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिशों के हिसाब से नहीं है. सरकार इसका हिसाब तीन तरीके से कर रही है. पहला ए-टू, दूसरा ए-टू और एफएल, और तीसरा सीओपी-टू. ए- टू मतलब सिर्फ लागत मूल्य. ए-टू और एफएल में लागत मूल्य में परिवार की मजदूरी जोड़ते हैं. तीसरे सीओपी-टू में कुल उत्पादन की लागत में पचास फीसद और जोड़ते हैं. ए-टू में सबसे सस्ते गेंहू की उत्पादन लागत पांच सौ रुपये लगाते हैं तो सीओपी-टू में यही 1200 रुपये हो जाती है. ऐसे में एक का एमएसपी होगा 750 रुपये क्विंटल तो दूसरे का होगा 1800 रुपये क्विंटल.
राहुल पांडेय: और ये तय कौन करेगा कि कौन सी चीज ए-टू में आएगी और कौन सी चीज सीओपी-टू में आएगी?
पी साईनाथ: ये सरकार डिसाइड करेगी. सरकार अब तक सारा काम ए-टू और ए-टू और एफएल पर कर रही है. ए-टू और एफएल में गेंहू का दाम आठ सौ रुपये होगा, यानी एमएसपी 1200 रुपये प्रति क्विंटल होगी. लेकिन जनता में सरकार कह रही है कि वह स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट की व्याख्या करेगी. असल में सरकार सिर्फ उत्पादन लागत के साथ खेल कर रही है. अगर सरकार सही एमएसपी दे रही है तो किसान सड़क पर क्यों हैं?
राहुल पांडेय: यह खेल तो फसलों के सरकारी क्रय केंद्रों पर भी है जिसमें स्थानीय बनिये भी शामिल होते हैं. ऐसे में किसान क्या करते हैं?
पी साईनाथ: नए डेवलपमेंट में छोटे बनिये बड़े कॉरपोरेशन के दलाल बन रहे हैं. बड़े-बड़े कॉरपोरेशन अब मंडी को कंट्रोल करते हैं. इसमें या एमएसपी में स्वामीनाथन आयोग की किसी भी अनुशंसा का पालन नहीं हो रहा है. सरकार ने पहले वादा किया कि 2014 में यह लागू होगा, फिर एक साल के अंदर एफीडेविट दे दिया कि ये नहीं हो सकता क्योंकि ये बाजार को अस्त-व्यस्त कर देगा. इसी साल यानी 2018 में जेटली साहब की बजट स्पीच के पैरा 13 और पैरा 14 में कहा गया है कि उन्होंने स्वामीनाथन आयोग द्वारा अनुशंसित एमएसपी पूरी तरह से लागू कर दी. उन्होंने झूठ बोला. सरकार बड़ी मुश्किल से इसे खींच-खांचकर ए-टू और एफएल वाले फार्मूले पर ही एमएसपी तय कर रही है. किसान सारा खेल जानते हैं. वे जब मंडी में जाते हैं तो उन्हें सारा खेल अपने सामने दिखाई देता है.
राहुल पांडेय: केंद्र में जब कांग्रेस की सरकार थी, तब किसान आत्महत्या की काफी खबरें आती थीं, जो अब नहीं आतीं. क्या प्रॉब्लम की हैप्पी एंडिंग हो गई?
पी साईनाथ: मोदी सरकार ने पिछले दो साल में एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) का डेटा देना बंद कर दिया है. सन 2016-17 का डेटा अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है. संसद में टूटा-फूटा डेटा दिया जाता है, लेकिन वो सब कच्चा डेटा है न कि फाइनल डेटा. 2017 में एनसीआरबी को भी बंद कर दिया और उस विभाग को ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट में मर्ज कर दिया. फिर उसमें भी नुकसान हुआ तो इस साल अप्रैल में उसको डीमर्ज कर दिया. आजाद भारत के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक बड़ा डिपार्टमेंट दस महीने के अंदर बंद करके मर्ज करके फिर से डीमर्ज हुआ. इसके बावजूद अभी तक डेटा पब्लिश नहीं किया गया है. मेरे ख्याल से लोकसभा चुनाव 2019 के पहले तक सरकार पूरी तरह से बोगस डेटा पब्लिश करेगी. मैं एनसीआरबी नहीं, सरकार को दोष दे रहा हूं.
राहुल पांडेय: खेती के इस संकट से होने वाली मुसीबत को क्या सिर्फ किसान उठा रहे हैं या और भी लोग हैं?
पी साईनाथ: महाराष्ट्र, उत्तर कनार्टक, विदर्भ और तेलंगाना में बहुत सारे स्टूडेंट्स ऐसे हैं, जिनके मां-बाप किसान हैं. पिछले बीस सालों में आए कृषि संकट में ये सभी दिवालिया हो गए. अभी वहां इतना कड़क सूखा पड़ रहा है कि बता नहीं सकते कि आने वाली जनवरी से लेकर मार्च में कितना खराब समय आने वाला है. ये चीजें कवर नहीं हो रही हैं. इस बार किसानों के पास फसल भी नहीं है. किसानों के जो बच्चे शहर जाकर स्कूल-कॉलेजों में पढ़ रहे हैं, उनकी हॉस्टल और मेस तक की फीस रुक गई है. अगले सेमेस्टर की ट्यूशन फीस भी देनी मुश्किल है. भीषण ड्रॉपआउट हो रहा है. पूना की प्राइवेट यूनिवर्सिटियों के हॉस्टल खाली होने लगे हैं. कृषि संकट अकेले नहीं आया है.
राहुल पांडेय: इस कृषि संकट ने और किन लोगों को खत्म किया है?
पी साईनाथ: बहुत सारे किसान खेत मजदूर बन गए हैं, क्योंकि उनकी खेती बरबाद हो गई. इस सिस्टम से जुड़े जो दूसरे लोग थे, जैसे जुलाहा, मिस्त्री, लुहार- इन सबका भी धंधा खत्म हो गया और ये भी खेत मजदूर बन रहे हैं. आप 2011 की जनगणना देखिए. वहां दिखता है कि किसान की जनसंख्या सन 1991 से डेढ़ सौ लाख कम हो गई, लेकिन सारे ही प्रदेशों में खेत मजदूर की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है. मेरा मध्यम वर्ग से सवाल है कि किसान वर्ग के लोग आपको साल में तीन सौ पैंसठ दिन कमिटमेंट देते हैं. क्या हम उनको दो दिन सपोर्ट नहीं दे सकते?
(नवभारत टाइम्स और जनचौक से साभार)
दिल्ली में रहने वाले राहुल पाण्डेय का विट और सहज हास्यबोध से भरा विचारोत्तेजक लेखन सोशल मीडिया पर हलचल पैदा करता रहा है. नवभारत टाइम्स के लिए कार्य करते हैं. राहुल काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.
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