बटरोही

‘साह’ जाति-नाम पर कुछ नोट्स

राजीव लोचन साह की ओर शायद मैं आकर्षित नहीं होता अगर वह उसी सरनेम वाला नहीं होता, जो मेरी बुआ का था और जिनकी शरण में रहकर मैं नैनीताल में पढ़ रहा था. इसका मतलब यह नहीं है कि वह मेरा रिश्तेदार है. वास्तविकता यह है कि उसके साथ पहली बार मिलने पर मेरा ध्यान उसके सरनेम की ओर गया ही नहीं था. यह बात पिछली सदी के सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों की है, जब हम लोग पहली बार मिले थे. ठीक-से तो याद नहीं है, शायद हम लोग डीएसबी के छात्रों के एक संगठन ‘द क्रैंक्स’ के जरिये मिले थे. वह उम्र ऐसी होती है, जब हर किशोर अपने चारों ओर अपनी जैसी ही रुचियों वाले दोस्तों की तलाश में रहता है, शायद इसी क्रम में वह मुझसे मिला. क्या बातें हुईं, मुझे याद नहीं हैं. अलबत्ता यह देखकर हैरानी हुई कि साह-परिवार का यह लड़का, अपनी परम्परागत प्रवृत्ति से उलट गंभीर साहित्यिक विमर्श से कैसे जुड़ गया? मेरी तरह इसका कौन-सा पेच ढीला है? Notes on Sahs of Kumaon by Batrohi

ऐसा नहीं है कि मेरी बुआ के परिवार में लोग साहित्य या कलाओं को लेकर बातें नहीं करते थे, खूब करते थे, मगर यह सोच लड़कियों में दिखाई देता था. लड़के कतई व्यावहारिक, दुनियादार और नौकरी या रुपया-पैसा कमाने में रुचि रखने वाले होते थे. ज्यादातर उधम मचने वाले, आत्म-केन्द्रित और दुकानदार किस्म के लड़के. मेरी बुआ के परिवार में यह बात भी एक मिथक की तरह प्रचलित थी कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियां पढ़ाई में अधिक रुचि लेती हैं इसलिए वे ही अधिक शिक्षित हैं. कभी-कभी सयाने लोगों की बातों में यह चिंता भी सुनाई देती थी कि उनकी जाति में शादी के लिए बराबर के शिक्षित जोड़े नहीं मिलते इसलिए लड़कियों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए हतोत्साहित किया जाता था. यह बात हालाँकि हमारे सरोकारों में नहीं आती थी, फिर भी कौतूहलवर्धक तो थी ही. Notes on Sahs of Kumaon by Batrohi     

मेरा सारा बचपन मल्लीताल बाजार में रहने वाले ‘बजारी’ बच्चों के साथ बीता था; कहना चाहिए, वही मेरे आदर्श और हीरो थे. साह लोगों का परिचय नैनीताल के मध्यवर्गीय परिवारों में ‘सौ-बणियों’ के रूप में दिया जाता था, जिसका अर्थ है, ‘साह-बनिये’. मतलब यह कि ये लोग जाति से बनिये (वैश्य) माने जाते हैं. जब से मेरे मन में जातियों के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई, यह पहेली मेरी समझ में कभी नहीं आई कि हम ठाकुरों के घर की लड़की वैश्यों के घर कैसे गई होगी. उन दिनों जाति को खासा महत्व दिया जाता था, लोग इसके बारे में बात करते हुए कभी-कभी उग्र भी हो जाते थे. हर जाति में चाहे ब्राह्मण हों, ठाकुर हों या वैश्य-हरिजन, सभी के बीच भीतरी ऊँच-नीच के कटघरे थे, और खासकर शादी-व्याह के मौकों पर ये दरारें उभर आती थीं. ब्राह्मण और ठाकुरों में इस अंतर को कोई भी पकड़ सकता था, मगर साह लोगों में मामला निश्चय ही जटिल था. इसका एक कारण यह था कि उत्तराखंड में अलग-से वैश्य वर्ण नहीं मिलता. तीन ही जातियां हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय और शिल्पकार, हालाँकि ये तीनों पेशे से खेतिहर थे, इसलिए इनमें आपसी अस्पृश्य-दूरी नहीं थी. ‘शाह’ जाति-नाम वाले लोग गढ़वाल, नेपाल और हिमांचल प्रदेश में क्षत्रिय हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से कहा जाने लगा कि कुमाऊँ के ‘साह’ ‘शाह’ लोगों से भिन्न हैं और पेशे से बनिये हैं. दूसरी बात यह कि पुराने ज़माने के साह लोग अपने प्रथम नाम के साथ जाति-सूचक ‘लाला’ लिखते थे जो बनियों का सूचक है. ये लोग अंग्रेजों के ज़माने में तिजारत का काम देखते थे या कुछ खाते-पीते लोग सूद पर पैसा देते थे. कुछ लोग व्यापार का काम भी करते रहे होंगे, इसलिए उनमें से कुछ का हाकिमों में भी आना-जाना था. इन्हीं में से एक थे ‘गगन सेठ’ जिस परिवार में राजीव का विवाह हुआ. इस परिवार का सम्बन्ध नेपाल के शाही क्षत्रिय परिवार के साथ था, जाहिर है, शादी-ब्याह भी उन्हीं में होते थे. मेरी बुआ का सम्बन्ध उसी परिवार के साथ था, हालाँकि इस रिश्तेदारी की बारीकियों की मुझे कोई जानकारी नहीं थी. इस टिप्पणी का सम्बन्ध भी इस विमर्ष के साथ नहीं है. Notes on Sahs of Kumaon by Batrohi

मगर इस व्याख्या से मेरी जिज्ञासा का समाधान संभव नहीं था क्योंकि तालव्य ‘श’ और दंत्य ‘स’ के बारीक़ अंतर को समझने की बुद्धि उस उम्र में नहीं थी. कुमाऊँ के साह लोग शहरी समाज थे, जो गाँवों में रहने वाले ठाकुरों को (जिन्हें कुलीन ब्राह्मण और साह परिवारों के द्वारा ‘भैर गोंक खसी’- ‘बाहर-गाँव के खसिये’ कहा जाता था), सुसंस्कृत न होने के कारण अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था. उन्हें गाँवों के सीढ़ीदार पहाड़ी खेतों में कठिन परिश्रम से जीविका-अर्जन करना पड़ता था, जो शहर की खुशहाली में पली लड़कियों के लिए निरापद नहीं था. इसीलिए साह लोग ठाकुरों की लड़की तो अपने घर ले आते थे, मगर उनमें अपनी लड़की की शादी नहीं करते थे. इस अर्ध-सामंती जातिगत भेदभाव के अनेक रोचक हाशिये थे, जैसे ‘साह’ लोगों के बिरादर ‘चौधरी’ हर किसी ठाकुर के साथ अपना रिश्ता नहीं जोड़ते थे, सिवा ‘रौतेला’ ठाकुरों के, जो कथित कुलीन ठाकुर समझे जाते थे.

जाति से जुड़े मध्य नाम को लेकर भी साह और चौधरी लोगों में खासी अराजकता थी. कुछ लोग ब्राह्मणों की तरह ‘दत्त’, ‘चन्द्र’ या ‘लोचन’ जैसे मध्य-नामों का प्रयोग करते थे तो कुछ दूसरे ‘लाल’ या ‘कुमार’ जैसे अपेक्षाकृत निम्न वर्णों से जुड़े नामों का. कुछ लोग तो क्षत्रियों के मध्य-नाम ‘सिंह’ का भी प्रयोग करते थे और खुद को ठाकुर मानते भी थे. यह विभाजन सुविधा की दृष्टि से किया गया था या मजबूरी में, मुझे नहीं मालूम, मगर हमारे परिवार से उनकी रिश्तेदारी का किस्सा कम मजेदार नहीं है. आप भी सुनिए.

मेरे दादाजी उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षों में नैनीताल की छखाता पट्टी में पटवारी थे. मेरी तरह छोटे कद के, खेलकूद और मनोरंजन के शौक़ीन तथा उदार-हृदय. हमारी पैतृक पट्टी ‘सालम’ का कोई तार राजीव के मातृ या पितृ-परिवार के साथ जुड़ता है या नहीं, मुझे नहीं मालूम, मगर हाल में राजीव ने अपने नानाजी के साथ गांधीजी के संपर्कों को लेकर ‘नैनीताल समाचार’ में जो धारावाहिक लेखमाला लिखी है, उसमें अपने नाना का जातिनाम ‘साह’ के साथ ‘सलीमगढ़िया’ या ‘सालमगड़िया’ लिखा है. जैसा कि उत्तराखंड की सभी जातियों के साथ यह विडंबना देखने को मिलती है, वे लोग चाहे ब्राह्मण हों, क्षत्रिय हों या वैश्य, खुद को मूल रूप से मैदानी भूभागों से आया मानते हैं, राजीव लोचन साह ने भी अपने मातृ-वंश का सम्बन्ध दिल्ली के आसपास के किसी क्षेत्र ‘सलीमगढ़’ के साथ जोड़ा है. (पंडित बद्रीदत्त पांडे के ‘कुमाऊँ का इतिहास’ द्वारा फैलाये गए इस झूठ का कि कुलीन जातियां यहाँ महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान आदि मैदानी क्षेत्रों से आई हैं, सबसे पहले डॉ. राम सिंह ने अपनी अभूतपूर्व किताब “‘सोर’ (मध्य हिमालय) का अतीत : प्रारंभ से 1857 ई. तक” में मजबूत तर्कों के साथ खंडन किया है.) खैर… चर्चा चली है, तो बता दूं, मेरी बुआ का जाति नाम ‘बिष्ट’ से ‘साह’ के रूप में कैसे बदला? Notes on Sahs of Kumaon by Batrohi

जैसा कि मैंने बताया, मेरे दादाजी उम्मेद सिंह पटवारी सांस्कृतिक कार्यकलापों के जुनून की हद तक दीवाने थे. नैनीताल के फ्लैट्स में आयोजित होने वाली फुटबाल और हॉकी की मैचों को वह जरूर देखते थे. टीमों को उत्साहित करना और पुरस्कृत करना भी उनके शगल में शामिल था. उन्हीं दिनों नैनीताल की मशहूर टीम नैनी वोंडर्स के चर्चित खिलाड़ी थे चन्द्र लाल साह उर्फ़ ‘चनी मस्तान’. किसी मैच-श्रृंखला में दादाजी चनी मस्तान के खेल से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गदगद भाव से कहा, ‘मैं तुमको क्या दूँ बेटा?… आज मैं तुम्हें अपनी सबसे प्यारी चीज देता हूँ, अपनी बेटी.’ भावावेश में दादाजी कह तो गए, उसी वक़्त लगा, दोनों के बीच उम्र का बहुत अंतर है. बुआ की उम्र ग्यारह साल की थी और ‘चनी मस्तान’ की तीस से ऊपर. (हालाँकि उस ज़माने में यह अंतर बड़ी बात नहीं थी)मगर ठाकुर साहब ज़बान दे चुके थे, पीछे हटने का सवाल नहीं था. उनके भावी दामाद नैनीताल के प्रतिष्ठित रईस थे, मौजी स्वभाव के थे, (इसीलिए लोग उन्हें ‘मस्तान’ कहते थे) पढ़े-लिखे अधिक न होने के बावजूद अपने हुनर के कारण वो दादाजी के प्रिय बन गए.

दुर्भाग्य शायद प्रतीक्षा कर रहा था, शादी के दो साल के बाद ही बुआ विधवा हो गईं, यही नहीं, कुछ महीनों या साल के अंतराल में एक दिन दादाजी की भी मनाघेर के पास की पहाड़ी में घोड़े से गिरने से मृत्यु हो गई.

अब आगे सुनिए. नियति के तार भी कभी-कभी कैसे संयोगों को जन्म देकर जुड़ते हैं, नैनीताल की दुर्गा साह मोहन लाल साह पुस्तकालय के सामने नर्सरी स्कूल से जुड़ी जो संपत्ति है, जिसमें इन दिनों राजीव की बेटी का होटल है, किसी ज़माने में बुआजी की ही संपत्ति थी. Notes on Sahs of Kumaon by Batrohi

समय कैसी-कैसी करवटें लेता है… ‘साह’-‘शाह’ का विवाद सुलझा भी नहीं था कि कई और नए रिश्तों ने जन्म ले लिया. यही तो है भारतीय आत्मा से जुड़ी हमारी पवित्र और नाजुक कड़ियों की ख़ूबसूरती. काश, यह ऐसे ही बनी रहती!

बटरोही

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

यह भी पढ़ें: डेन्यूब किनारे हिमालय का पक्षी : बटरोही की कहानी

लेखक

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

4 days ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

6 days ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

1 week ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

1 week ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

2 weeks ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

2 weeks ago