नेपाल की राजधानी काठमांडू के थामेल बाज़ार में रात का खाना खाते वक्त न्यू मुंबई व नालासोपारा निवासी जयवंत सिरके व संतोष घाटकर ने जब आपबीती सुनाई तो लगा कि नटवरलाल के वंशज अभी जिंदा हैं. काठमांडू में हर गली में आपको छद्म वेशधारी ये नटवरलाल मिल जाएंगे. पब या स्पा के बारे में कान में फुसफुसाते हुए कब आपको अपने मीठे जाल में फांस लेंगे, पता ही नहीं चलता. पता चलने तक बहुत देर हो चुकी होती है. तब तक आप अच्छी तरह से लुट-पिट चुके होते हो. विदेश में पब की रंगत देखने की चाहत में अकसर पर्यटक इन नटवरलाल दलालों के चुंगल में फंस जाते हैं. वैसे भी नटवरलाल का मुख्य अड्डा नेपाल ही रहा तो उसके चेले-चपाटों ने उससे कुछ तो सीखा ही होगा. बहरहाल! उनकी बातचीत से पता लगा कि इन दलालों के लिए वे पब एक तरह से आजीविका और लूटपाट के अड्डे हैं, जो अमूमन शहर से दूर सूनसान इलाकों में बने हैं. लोगों को अपने जाल में फंसाकर लाने से थोड़ा पहले ये पब आबाद होते हैं. फोन से ही दलाल सूचना दे देते हैं. वहां पहुंचने पर आपको पब आबाद मिलेगा. सामने बने स्टेज पर फूहड़ गानों पर नाच-गाना शुरू हो जाता है.
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पब में पहुंचते ही दलाल आपका आर्डर देने लगता है. आपके पास बियर, स्नैक्स वगैरह आने लगते हैं. आपके आजू-बाजू कुछ बार डांसर आकर बैठ जाती हैं और उन्हें भी प्यालों में सर्व कर दिया जाता है, जो कि विशुद्ध नींबू-पानी होता है. मगर पीते वक्त वे ऐसा दिखाती हैं कि जैसे कोई मंहगी स्कॉच पी रही हों. घंटेभर के बाद शुरू होता है असली खेल. आपके साथ आया नटवरलाल गायब हो जाता है और बिल के नाम पर हजारों का भारी भरकम पर्चा आपको थमा दिया जाता है. बिल वसूलने वाले के अगल-बगल बाउंसरों की फौज पिस्टल लिए आपको एक तरह से बंधक बना लेती है. म्यूजिक समेत रंगमंच के तमाम कलाकार वहां से कब गायब हो गए, पता ही नहीं चलता. आपकी कुछ भी नहीं सुनी जाती है. मजबूर हो बिल की रकम अदा कर आप लूटे-पिटे नेपाल को गरियाते हुए अपने वतन को भाग खड़े होते हैं.
यह नेपाल का एक छोटा सा स्याह पहलू है. हालांकि दुनिया भर में हर जगह ऐसे नटवरलालों की कमी नहीं. लेकिन नेपाल में ये कुछ ज्यादा ही सक्रिय हैं. नेपाल दुनिया भर के अपराधियों की पनहगार के तौर पर एक मुफीद जगह साबित हुई है.
2015 में भूकंप से नेपाल अभी तक उबर नहीं पाया है. इस छोटे से पहाड़ी देश की आय का मुख्य स्रोत एक तरह से पर्यटन ही है. नेपाल का उत्तरी हिस्सा हिमालय की चोटियों से घिरा हुआ है. इसके साथ ही दुनिया की दस सबसे ऊँची चोटियों में से आठ अकेले नेपाल में ही हैं और फिर सागरमाथा जिसे दुनिया एवरेस्ट के नाम से जानती है, वह भी नेपाल में ही है. दिसंबर 2016 के आखिर में हम चार मित्रों ने नेपाल की यात्रा की प्लानिंग शुरू की थी. हम कभी हवाई जहाज में नहीं बैठे थे. बचपन से सिर्फ आसमान में देखते आ रहे थे, तो इस बार हवाई जहाज से जाने का विचार किया. टिकट बुक किये और 23 दिसंबर को हम दिल्ली को रवाना हुए. दोपहर में हल्द्वानी पहुंचे तो वहां के एक मित्र के साथ बरसाती नहर किनारे एक खुले ढाबे में मीट-भात खाने पहुँच गए. डिस्पोजल गिलासों में मादक पेय नाचा तो दीवार की तरफ़ मुंह कर कुछ इस तर्ज पर कि किसी ने देखा नहीं, चुपचाप
गले से हलक से नीचे उतार लिया. घंटेभर तक ढाबे की बैंचों में बैठे बकैती होते रही. शाम को दिल्ली के लिए शताब्दी ट्रेन थी. हल्द्वानी के मित्र से गले मिल विदा ली. गले भी भाई ऐसे मिल रहे थे, जैसे हम नेपाल नहीं अंतरिक्ष में किसी अनजान ग्रह की खोज में जा रहे हों. मित्र को बार-बार याद दिलाया जा रहा था कि हम हवाई जहाज से जा रहे हैं, और वह कुछ इस तरह अफ़सोस जता रहा था कि, ‘हाय हुसैन हम न हुए.’
सोडे की बोतल में थोड़ा मादक पेय रास्ते के लिए रख लिया गया. मीट-भात खाने के बाद से ही उदर ने इतना भारी काम करने से मना कर दिया तो ट्रेन में घुसते ही मैं संडास की ओर भागा. आधे घंटे तक वहां सुकून की तलाश में बैठा रहा. हम चारों में एक जना संत और शाकाहरी था. मैं अन्य दो मांसाहारी मित्रों की वजह से फंस गया था. एक मित्र फौज में था. जीवन का कीमती वक्त वहां खर्च करने के बाद अचानक उसे भान हुआ कि अफसरान की गुलामी में यहां जिंदगी यूं ही नर्क बनी रहेगी तो वह उनके द्वारा दिया गया सारा सामान वहीं छोड़ और नौकरी को लात मारकर मुक्त हो लिया. नौकरी के दौरान वह ज्यादातर बॉर्डर पर ही रहा. पाकिस्तान की पोस्ट के नजदीक भारत की ओर से तैनात पोस्ट में जब बूढ़ा या जवान कोई नहीं जाना चाहता था तो वह तब वहां के लिए वालंटियर हो जाता था. वह पोस्ट पाकिस्तान से सटी हुई थी. पाकिस्तान वहां आए दिन बम-पटाखों की दीवाली मनाता रहता. ज्यादा दीवाली मनाने पर निचली पोस्टों से जबाबी कार्यवाही का इशारा किया जाता और फिर वहां से बड़ा बम छोड़े जाने के बाद ही फिर पाकिस्तान की ओर से दीवाली मनानी बंद हो जाती. लेकिन वे सुधरने वाले कहाँ थे. एक बार सुबह-सुबह
एक गोली फ़ौजी भाई के कानों से सनसनाती हुई गुजरी तो उसने सीधे लंगूर की तरह छलांग मार बंकर में कूदकर अपनी जान बचाई. इस घटना के बाद उनकी टीम बंकर में ज्यादा वक्त गुजारती थी. बाहर की निगरानी के लिए वे बहुत सर्तक होकर ही बाहर निकलते थे. मित्र के पास किस्सों की खान थी. बकौल उसके, उंचाई वाली पोस्टों में बकरे को काटने के लिए हथियार नहीं होने पर अकसर बर्फ हटाने वाले बेल्चे से की काटना पड़ता था. एक बार मुर्गी को काटने के लिए कोई तैंयार नहीं हुआ तो एक जवान ने जिंदा मुर्गी को दस लीटर के कुकर में बंद किया और चूल्हे की आग में कुकर चढ़ा दिया. दसेक मिनट बाद इस उम्मीद में कि मुर्गी अब फना हो चुकी होगी, कुकर का ढक्कन खोला गया. ढक्कन खुलते ही मुर्गी फुल वॉल्यूम में अपनी गालियां देते हुए जंगल की ओर निकल भागी. कुछ जवान उसके पीछे दौड़े, लेकिन वह हाथ नहीं चढ़ी. चढ़ती भी कैसे उसने तो साक्षात मौत का सामाना जो किया ठैरा. फिर सबको पीली दाल के साथ चावल में ही संतोष करना पड़ा.
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फौज तो उसने छोड़ दी लेकिन उसका मांसाहार प्रेम कभी नहीं गया. यहां तक कि एक बार जब उसका ऑपरेशन होना था तो एक दिन पहले मुर्गा खाने की परमिशन मांगने डॉक्टर भी चौंक गया. बाद में डॉक्टर ने उसके मांसाहार प्रेम को समझते हुए हंसते हुए हांमी भर दी. आपरेशन के दो-एक हफ़्ते बाद उसने फिर से मुर्गे-बकरों से प्रेम करना शुरू कर दिया. अब उसके इस शौक के लिए अकसर यात्राओं में मुझे ही बकरा बनना होता था. उस बार नेपाल की यात्रा में भी मैं ही बकरा बना.
शताब्दी ट्रेन ने रात नौ बजे हमें दिल्ली पटक दिया. नजदीक के एक होटल में दो कमरे मिल गए और रात्रिभोज में आए मुर्गे के साथ मादक पेय गटकते हुए हम नेपाल के सुनहरे सपनों में खो गए. अपने प्लान में हमने सबसे ऊपर काठमांडू के थामेल बाज़ार को रखा था. उसके बाद वहां के दर्शनीय स्थलों के दर्शन और फिर पोखरा जाने का विचार था. दिल्ली से काठमांडू हवाई मार्ग से जाने के लिए हम दो दिन पहले ही दिल्ली पहुंच गए थे. अगले दिन दिल्ली में कुतुबमीनार जाने का मन बना. कुतुब के अंदर जाने के लिए टिकट खिड़की पर लंबी कतार को हम देख ही रहे थे कि सिक्योरटी में लगे एक जवान ने हमारे एक साथी को इशारा किया कि वह आधे दाम में हमें भीतर पहुंचा देगा. गुपचुप ढंग से रकम लेकर उसने सारी बाधाओं को पार करवाकर हमें अंदर पहुंचा दिया. इससे पहले कि मन में अजीब सी वितृष्णा उठती, साथियों ने सत्यवादी हरीश चन्द्र और महात्मा गांधी से लेकर वर्तमान के ताजा हालात की दुहाई देते हुए मुझे चुप करा दिया. आसमान धुंध के साथ-साथ बादलों से भी घिरा था. हम अंदर चलते चले गए. सामने जिन्न की तरह एक बोतलनुमा ढांचा दिखा तो उसे निहारने लगे. ईंट से बनी विश्व की सबसे ऊँची मीनार कुतुबमीनार दिखी. बचपन में कुतुबमीनार के इतिहास ने बहुत रुलाया था. मार भी खूब पड़ी थी उस वक्त. खूब गाली देता था मैं इतिहास पीछे छोड़ गए राजाओं को. अपना तो ऐश कर गए और उनकी कारगुजारियों को रटने की मुसीबत हमारे लिए छोड़ गए. मुझे न तो बचपन में इस किस्म के इतिहास में रुचि थी और न आज है. हां! उस इतिहास में हमेशा रुचि रही है जो मजेदार और भविष्य के लिए संभावना लिए हो. बहरहाल! मुझे याद आया कि कुतुबमीनार में हिंदी फिल्म, ‘चीनी कम’ की सूटिंग में अमिताभ बच्चन का भी एक दृश्य उनकी पुरानी फिल्मों के मार्मिक सीन की तरह फिल्माया गया था. कुतुब की परिक्रमा करने में दो-एक घंटे कहां उड़ गए पता ही नहीं चला.
नेपाल यात्रा के लिए मैंने अपने बैग में एक टीशर्ट और एकमात्र पेंट ही रखी थी. इसके अलावा एक गरम पायजामेनुमा लोवर, शर्ट और एक जैकेट पहना था. पांव में फटे जूते थे. ये सब इसलिए कि नेपाल के बाजारों से अच्छा और सस्ता माउंटेनियरिंग वाला सामान खरीदेंगे और बढ़िया जूते भी. और मन में इन पैबंद लगे जूतों को विदेश में ही धरोहर के तौर पर छोड़ आने का इरादा भी था.
दिल्ली से ‘हवाई जहाज’ में जाना था तो टिकट के साथ मिली हिदायतों को भी ध्यान में रखा गया था. चाकू, लाइटर, सिगरेट आदि आपत्तिजनक सामान ले जाने पर आपको आतंकवादी घोषित किया जा सकता था. 25 दिसंबर को दोपहर की उड़ान थी तो एक के बाद एक धोंककर सिगरट का कोटा मैंने खत्म कर डाला. मन मारकर लाइटर होटल में छोड़ना पड़ा. ओला टैक्सी बुक की और घंटे भर में हम एयरपोर्ट में थे.
पूछपाछ कर भीतर दाखिल हुए. सभी के चेहरे में हवाइयां उड़ रही थीं लेकिन दिखा ऐसे रहे थे जैसे हवाई सफ़र उनके लिए रोजमर्रा की बात हो. सामान की चैकिंग और खोपड़ी से लेकर पांव तक की चैकिंग से मुक्त हुए तो सांस पर सांस लौटी. लगा कि अब हम आतंकवादी नहीं हैं. मशीनों द्वारा सामान की एक्स-रे चैकिंग में यह डर लग रहा था कि हमसे दुखी हमारा ही कोई सामान चीख-चीख कर हमें आतंकवादी न बना दे.
अंदर जाने की परमिशन मिलने के बाद अब हम मुक्त थे. मैं सबसे पहले टॉयलेट की ओर भागा. मुर्गे ने बाहर आने के लिए बांक देनी शुरू कर दी थी. एयरपोर्ट के टॉयलेट शानदार थे. फर्श इतने चमचमा रहे थे कि यहीं बैठकी कर मजा लेने का मन कर रहा था. सिगरेट की तलब लग रही थी लेकिन वह थी नहीं. बाद में एक कोने में चेंबर में चंद लोगों को सिगरेट फूंकते देखा तो पता लगा कि आप सिगरेट अपने साथ ले जा सकते हैं लेकिन माचिस या लाइटर नहीं. चाकू, लाइटर आदि चीजें अपने लगेज में डाल सकते हैं. एयरपोर्ट में बने चेंबरों में सिगरेट के लिए इलैक्ट्रिक लाइटर लगे होते हैं. अब क्या करता, किससे मांगकर सिगरेट के लिए भिखारी बनता. सो पानी के घूंट ही मार लिए. ऊपर से अकेले में जाने में डर भी लग रहा था कि अगर कहीं बिछड़ गया तो न जाने क्या जो हो जाएगा. इसलिए जहां जाना होता सब साथ ही जाते. एक मित्र शराब की दुकान के आगे अपनी सेल्फी लेने में व्यस्त थे. मेरी हिम्मत उस दुकान में जाने की नहीं पड़ी, क्या पता दुकान के अंदर घुसने में ही हजार-पांच सौ का चार्ज काट ले.
जहाज का समय होने लगा तो हम सभी आगे को बढ़े. आधे घंटे बाद एक सुरंगनुमा कोरिडोर से हम सीधे जहाज के अंदर ही आ गए. सबके सपने धराशायी हो गए. जहाज में चढ़ते वक्त सभी ने सीढ़ियों में सेल्फी लेने का मन जो बनाया था. अंदर घुसते ही हम अपनी सीटों में चुपचाप बैठ गए. खिड़की की तरफ बैठने के लिए हमारी झड़पें होने लगी. कुछ देर बाद इंद्र की अप्सराओं जैसी दो-चार एयरहोस्टेस गैलरी में नृत्य जैसा करते हुए दिखीं. कुछ देर बाद समझ में आया कि जिसे मैं नृत्य समझ रहा था वह दरअसल हमें दुर्घटना होने पर जान बचाने के तरीके बता रही हैं. आनन-फानन में कुर्सी के आगे और नीचे सामान देखा तो उनकी भाषा समझ में आई. उसके बाद वे खाने-पीने के सामानों के बारे में बताने लगी तो बहुत खुशी हुई कि चलो खाना-पीना भी जहाज में फ्री में मिलेगा. इसके बाद पायलट की गंभीर आवाज गूंजी. उसने अंग्रेजी में गिटर-पिटर करते हुए सीट बैल्ट बांधने के हुक्म पारित किया तो हमने सीट बैल्ट बाँधने में देर नहीं लगाई. जहाज का इंजन पहले से ही गुर्रा रहा था, अब उसकी आवाज़ गड़गड़ाहट में बदलने लगी. कुछ देर बाद जहाज के पायलट ने फिर से कुछ गिटर-पिटर की और जहाज रनवे में रेंगने लगा. हम सब खिड़की से उसे टुकुर-टुकुर दो-एक मोड़ काटते हुए देख रहे थे. कुछ देर बाद वह जैसे रुक गया. और फिर उसने गुस्से से फुंफकारते हमलावर सांड की तरह दौड़ लगा दी. मैं मस्त होकर सोच रहा था कि आज तो मोक्ष मिल गया. यह जहाज अब सामने टकरा ही जाएगा और मुझे भी सारे झंझटों से मुक्ति मिल जाएगी. परिवार वालों को भी कुछ पैसे मुआवजे के बतौर मिल ही जाएंगे. अचानक जहाज ने अपनी थूथन उठाई तो उसका पिछवाड़ा भी उसके साथ हो लिया. कुछ ही पलों बाद ऐसा लगा कि जैसे हम दिल्ली को शंहशाह की नजर से देख रहे हों.
जहाज ने ऊंचाई पकड़ ली थी. नीचे को देखना काफी रोमांचक लग रहा था. चिट्ठी-पत्री के जमाने में एक बार मित्र लेखक शंभू राणाजी ने अपने एक खत में मुझे लिखा था कि दुनिया को कैमरे की नजर से देखा करो. जैसे तुम फोटोग्राफी करते हो, एक जगह से तस्वीर का फ्रेम सही नहीं बैठता तो तुम अपना एंगल बदल लेते हो. तो उसी तरह से जिंदगी को भी देखने की कोशिश करो. सामने से यदि चीजें समझ में नहीं आ रही है तो थोड़ा ऊंचे में जाकर देखो. उंचाई से चीजें काफी हद तक साफ दिखती हैं.
कुछ ऐसा ही अहसास जहाज में बैठे हुए नीचे देखने पर हो रहा था. अचानक फिर से पायलट साहब की आवाज गूंजी. उन्होंने बताया कि हम लखनऊ के ऊपर से जा रहे हैं तो हम चौंके! अरे! ये कहां ले जा रहा है? हमें तो नेपाल जाना है. दरअसल हमारे मन में हल्द्वानी, खटीमा, बनबसा से होते हुए नेपाल का सड़क वाला मैप बना था. फिर याद आया कि विमान लखनऊ के ऊपर से ही तो नेपाल को जाएगा. हिमालय की श्रृंखलाओं के साथ-साथ हम चल रहे थे. इस बीच उड़नपरियों ने अपनी दुकानें खोल ली. हम खुश थे कि चलो अब कुछ खाने-पीने को मिलेगा. हमारे पास में जब उनकी दुकान आई तो उनसे एक मित्र ने कुछ मांगा तो उसने सीट में पड़ी किताब में से डिमांड देने को कहा. किताब खोली तो पता चला कि खाने-पीने का सामान तो धर्म से दोगुना है, फ्री में कुछ न मिलने का. कुछ देर चुप रहे. मन नहीं माना तो चार सौ रुपये के दो गिलास सूप लेकर चारों ने आपस में बांट लिए. साथ में जहाज में उसे सुड़कते हुए अमीर होने का एहसास भी पीते रहे.
करीब घंटे भर बाद हम नेपाल के काठमांडू शहर के ऊपर थे. अचानक झूले में बैठे होने का अहसास हुआ. बड़ा झूला उंचाई से जब नीचे को आता है तो पेट में कुलबुली जैसी होने लगती है. जहाज भी नीचे को आया तो वैसे ही हुआ. एक चक्कर मार जहाज नेपाल के काठमांडू में त्रिभुवन अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे पर उतर गया. जहाज से उतरे तो वहां एक बस लगी थी. उस में बैठकर आगे निकले. यह हवाईअड्डा कम, एक बसअड्डा ज्यादा लग रहा था. अपना सामान लकर हम आगे बढ़े तो याद आया कि पासपोर्ट में यहां की मुहर तो लगा लें, ताकि वापसी में लोगों को विदेश गमन का सबूत तो दिखा सकें. यहां का माहौल बड़ा अजीब सा लगा. यहां कोई पूछने वाला नहीं था कि, ‘भई कहां से आ रहे हो, दस्तावेज दिखाओ, हवाई अड्डे में अधिकारी/कर्मचारी सब नेपाली वेश-भूषा में थे. एक जगह लाइन में खड़े होकर मुहर लगवाई. हमने थामेल में रहने के लिए पहले से ही तीन सितारा होटल वैशाली में सस्ता इंतज़ाम करवा लिया था. हवाईअड्डे के बाहर टैक्सी पकड़ी, जिसने होटल तक पहुंचाने के बारह सौ रुपये मांगे. दसेक किलोमीटर के बारह सौ रुपयों के नाम पर हम चौंके तो ड्राइवर ने बताया कि यहां ट्रांसपोर्ट काफी महंगा है. गाड़ी, पेट्रोल, गैस सब महंगा है.
होटल में पहुंचकर दो कमरे ले लिए गए. कमरे अच्छे थे. होटल काफी बड़ा और शानदार था. स्वीमिंग पूल भी दिख रहा था, लेकिन जाड़ों में इसे बंद कर दिया गया था. कमरे में मेन्यू देखा और हल्का-फुल्का फास्ट फूड मंगा लिया गया. फास्ट फूड के आने तक एकआध बोतल मादक पेय भी उदरस्थ कर लिया. शाम को बाजार में मटरगस्ती पर सब की सहमति थी. घंटों तक थामेल बाजार में आवारागर्दी करते रहे. वापसी में होटल के बाहर एक कपड़े की दुकान में घुस गए. अंदर दुकानदार और मित्रों में सामान की खरीदारी को लेकर सौदेबाज़ी होने लगी तो मैं बाहर आकर खड़ा हो गया. तभी अठाइस-तीसेक साल का एक गुर्गा सामने आया और सिगरेट जलाते हुए पूछने लगा कि आप लोग कहां से आए हैं. मेरे नैनीताल कहते ही उसने तुरंत हाथ मिलाया और बताया कि वह कभी खटीमा में काम करता था. हल्द्वानी तो आना-जाना लगा रहता था. पर्स निकालते हुए सिगरेट से उसे परेशानी होने लगी तो उसने उसे जूतों के तले में मसल दिया. उसने अपनी एक आईडी जैसी कुछ दिखाई. मैंने उसे लिफ्ट नहीं दी तो वो दुकान से बाहर निकल रहे अपने मित्रों को लपेटने लगा कि सस्ते में स्पा, पब की व्यवस्था करवा दूंगा जो चाहिए सब मिलेगा. मैंने उससे किनारा काट लिया लेकिन मित्र उससे मसखरी जैसी करते रहे. उसने उन्हें अपना नंबर दिया और उनका नंबर ले लिया.
होटल पहुंचते ही मित्रगणों ने वेज-नानवेज का फरमान सुना दिया. नेपाल में स्वर्गलोक के पेय इफ़रात से हर जगह सर्व सुलभ हैं. हम अपना कोटा होटल आते वक्त ले आए थे. इस बीच होटल वालों से घूमने लायक नजदीकी जगहों के बारे में मालूमात कर हमने अगले दिन के लिए एक टयाक्सी उर्फ टैक्सी का भी बंदोबस्त कर लिया. काठमांडू में चारेक दिन रहने के बाद हमारा पोखरा जाने का प्रोग्राम बना था. होटल में सुबह का नाश्ता कॉम्प्लिमेंट्री था. जिसका मतलब सबने ये निकाला कि जाड़ों में पहाड़ों में हर कोई सुबह ही खाना खा लेता है तो इस ‘फ्री’ के नाश्ते को ही दिनभर का भोजन समझा जाएगा.
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सुबह जगे तो आलीशान बाथरूम का मजा लिया. हांलाकि वहां बाथ टब भी थे, लेकिन ठंड की वजह से उसका आनंद न ले सके. नाश्ते का टाइम आठ बजे से था. घर में नहीं हैं बल्कि घूमने आए हैं की तर्ज पर मय की बोतल से उसका कुछ भार हल्का कर दिया गया. होटल के डायनिंग हॉल में घुसे तो विदेशी टूरिस्टों की भरमार दिखी. ज्यादातर जन कॉर्न फ्लेक्स, दूध, फल लेते दिखे. मेरे तीन मित्रों ने आमलेट, पराठा का आर्डर दिया और अपनी-अपनी प्लेटों को जो कुछ भी वहां था उससे भर लिया. मैंने नाश्ते को नाश्ते के तौर पर ही लिया. उनके पास उनकी डिमांड की चीजें आती रहीं और वे घंटेभर तक खाते रहे. उनके तीन बार आमलेट और दो बार कॉफ़ी आने से पहले मैं चुपचाप बाहर निकल लिया था.
नौ बज चुके थे. टयाक्सी वाला अर्जुन अपनी गाड़ी ले आया था. उसमें सवार हो पहले मंकी टेंपल जाना तय किया. शार्टकट गलियों से होते हुए बीसेक मिनट में हम मंकी टेंपल पहुंच गए. आगे ऊपर को सीढ़ियाँ थीं. सीढ़ियों के किनारे में बौद्व धर्म से संबंधित सामानों की दुकाएं सजी हुई थीं. एक जगह गोल तालाब के हरे पानी में बुद्ध की मूर्ति दिखी तो उस ओर ही बढ़ लिया. काफी देर तक मैं वहां बैठा रहा. मित्रगण दुकानों से सामान की खरीददारी में लगे थे. सीढियाँ चढ़कर ऊपर पहुंचे तो मंकी टेंपल के दीदार हुए. मंदिर बंदरों से पटा पड़ा था. बाईं ओर भूकंप से खंडहर हो चुके भवन दिखाई दे रहे थे, जहां मज़दूर काम पर लगे हुए थे. एक बौद्व भिक्षु उन खंडहरों की फोटो लेने में व्यस्त था. 25 अप्रैल 2015 को आए भूकंप ने नेपाल को जैसे तबाह कर दिया था. भूकंप में कई महत्वपूर्ण प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर व अन्य इमारतें भी नष्ट हो गई थी. कहा जा रहा था कि 1934 के बाद पहली बार नेपाल में इतना बड़ा भूकम्प आया, जिससे आठ हजार से भी ज्यादा लोगों की मौत हो गई और हजारों घायल हो गए. तब भूकंप के झटके चीन, भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी महसूस किये गये थे. भूकंप की वजह से एवरेस्ट पर्वत पर एवलांच आ गया जिससे दर्जनों पर्वतारोहियों के मृत्यु हो गई थी. इस भूकंप से यूनेस्को की विश्व धरोहर समेत कई प्राचीन एतिहासिक इमारतों को भी काफी नुकसान पहुंचा. पता चला कि 18वीं सदी में निर्मित धरहरा मीनार तो पूरी तरह से नष्ट हो गयी थी. मंदिर के मुख्य अहाते में कबूतर और बंदर साथ-साथ दाना खाते दिखे. ऐसा महसूस हुआ कि इस शांत जगह में वे भी शांत से हो गए हों. आदमजात के आने-जाने को वे सब सामान्य ढंग से ले रहे थे. यहां उन्हें किसी का कोई भय नहीं था.
नेपाल हिंदू और बौद्ध धर्म की साझा विरासत को खुद में समाए हुए सा लगा. हिमालय पर्वत की लंबी श्रृंखला में बसा नेपाल भारत और चीन के बीच में है, और यहीं पर दुनिया की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट है. नेपाल की जनसंख्या तीन करोड़ के आसपास है, जिनमें 90 फीसदी आबादी हिन्दू है और पांच फीसद आबादी बौद्ध है. वैसे नेपाल दुनिया के सबसे गरीब देशों में गिना जाता है. अब यह बात कितनी सच है, मुझे ख़ास जानकारी नहीं है. मैं यह दावा भी नहीं कर रहा हूं. वैसे जहां तक पता चला, यहां की 80 फीसदी से ज्यादा आबादी खेती-बाड़ी पर ही निर्भर है. उसके बाद भी यहां की करीब एक चौथाई गरीब आबादी भारत की मजदूरी पर निर्भर रहती है. नेपाल में हर साल करीब पांच लाख से ज्यादा विदेशी पर्यटक आते हैं जिनमें से ढ़ाई लाख के करीब सिर्फ ट्रेकिंग के लिए ही आते हैं. मैंने सुना कि पर्वतारोहण के जरिए इस देश को हर साल लगभग 33 लाख डॉलर से ज्यादा की आमदनी हो जाती है.
मंकी टेंपल से वापस लौटे तो एक जगह बुद्व की एक प्रतिमा दिखाई दी, जिसमें वह विश्राम की मुद्रा में थे. नीचे टयाक्सी में बैठे तो चालक अर्जुन ने हमें पाटन दरबार उर्फ पाटन म्यूजियम में पहुंचा दिया. टिकट लिए और अंदर की ओर चल पड़े. यहां भी भूकंप से ध्वस्त मंदिरों, इमारतों को दुरुस्त किया जा रहा था. अंदर जाने के दो-दो टिकट लिए. लकड़ी के कलात्मक दरवाजे से अंदर गए तो अंदर के दृश्य देखकर चकित रह गए. अद्भुत ढंग से दरबार बनाया गया था. यहाँ लकड़ी की नक्काशी के काम का बेमिसाल नमूना दिखा. मेरे लिए तो यह एक अजूबे की तरह ही था. सुनने में आया कि इस दरबार स्क्वायर में चारों ओर 50 से ज्यादा छोटे बड़े मंदिर हुआ करते थे, जिनमें भूकंप की मार पड़ी है. इस जगह का इतिहास 2000 साल से भी ज्यादा पुराना बताया जाता है. दो-एक घंटे कब बीते पता ही नहीं चला. बाहर बाजार में काफी चहल पहल दिख रही थी.
अब यहां से हम पशुपतिनाथ मंदिर की ओर चले आये. सड़क में धूल के गुबार उठ रहे थे. टयाक्सी ड्राइवर अर्जुन ने बताया कि भूकंप के बाद हुए नुकसान में इन सड़कों को ठीक करने के लिए चायना मदद कर रहा है. धूल से बचने के लिए हर किसी के मुंह में मास्क दिख रहा था. एक जगह नजर गई तो मैं चौंक पड़ा. एक बड़ी सी चौमंजिला बिल्डिंग में बोर्ड पर लिखा था, ‘सम्पूर्ण सुरक्षित गर्भपतन सेवा.’ नीचे बीयर बार का बोर्ड भी दिख रहा था. अपने इंडिया में तो गर्भपात को लेकर न जाने कितने कानून बने हैं. सुप्रीम कोर्ट में भी कई मामले गए हैं लेकिन उसके बाद इसे अपराध की श्रेणी में रखा गया है. और यहां नेपाल में तो खुले आम इस तरह के हॉस्पिटल खुले पड़े हैं. अब यह अलग बात है कि इंडिया में भी यह सब चुपचाप ज्यादा ढंग से होता है. और पता भी सबको रहता ही है. इस बारे में अर्जुन से पूछा तो उसने बताया कि, नेपाल में देह व्यापार बहुत ज्यादा है इसमें पैसा भी अच्छा है पब, बार होटल सभी जगह खूब अच्छा काम होता है.
पशुपतिनाथ मंदिर आ गया था. हम आधे घंटे में वहां पहुंच गए थे. बाहर से ही एक महिला दुकानदार ने पूजा का सामान लेने के लिए हमारी जान खा दी. बमुश्किल उसे यकीन दिलाया कि हम ‘महापंडित’ हैं, नहा-धो के ही मंदिर में प्रवेश करेंगे. ‘सभी ऐसा कहते हैं वैसे आप ये कार्ड रख लो मैं मंदिर में ही प्रसाद और पूजा का सामान पहुंचा दूंगी.’ कह उसने हमें अपना विजिटिंग कार्ड थमा कर ही दम लिया.
पशुपतिनाथ मंदिर काठमांडू के पूर्वी हिस्से में बागमती नदी के तट पर है. यह मंदिर हिन्दू धर्म के आठ सबसे पवित्र स्थलों में से एक माना जाता है. नेपाल में तो इस मंदिर को भगवान शिव का सबसे पवित्र और बड़ा मंदिर माना जाता है. अंदर पहुंचे तो नीचे को उतरती सीढ़ियाँ मिलीं. एक जगह जूते-चप्पल रखने के निर्देश पढ़े तो वहीं से नंगे पांव हो लिए. मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार पर कई सारे निर्देश लिखे हुए थे. कुछेक निर्देश तो डिजिटल भी चल रहे थे. उनमें से एक बोर्ड में नजर पड़ी तो उसमें नेपाली और इंग्लिश भाषा में साफ लिखा था, ‘प्रवेश हिन्दूहरूका लागि मात्र’ इंटरी फॉर द हिंदूज ऑनली. अब यह अलग बात थी कि वहां विदेशी भी ज्यादा दिख रहे थे. मन अजीब सी वितृष्णा से भर उठा. एक बार मन किया कि मित्र मंडली को अंदर जाने दूं और मैं चुपचाप जूते-चप्पलों के पास बैठ कर उनसे ही बतियाता रहूं. लेकिन मित्र मंडली से अपनी नाराजगी जाहिर करना मना था. इस बात का घर से चलते ही समझौता हुआ था. बकायदा शपथ ली गई थी. तो मन मार के अंदर को प्रवेश किया. फोटोग्राफी के लिए मना था. इसके लिए बकायदा लाउडस्पीकर से इतना ज्यादा एनाउंसमेंट हो रहा था कि मंदिर की पूजा-पाठ के मंत्र उस आवाज में बिलाते हुए प्रतीत हुए. मंदिर में सामने का दरवाजा बंद था. पीतल से बने एक भीमकाय नंदी की मूर्ति आकर्षक लग रही थी. मैं बिन प्रसाद लिए ही अंदर गया था तो एक मित्र ने जबरन कुछ बताशे-पत्तियां मुझे थमा दीं. दाहिनी ओर से बनी सीढ़ियों से ऊपर ‘शिव’ के दर्शनों को एक सीढ़ी बनी थी. लाइन में लगे और आगे धकियाते रहे.
सामने देखा तो इधर के दरवाजे में चैनल गेट बंद था. आगे एक बैंचनुमा कुर्सी पर कोई पंडित विराजे थे जो कि कुछ फूल कम पत्तियां ज्यादा वाले हिसाब से प्रसाद दे रहे थे. उनके बगल में ही दान पात्र था जिसमें वह दक्षिणा डालने का इशारा कर रहे थे. पत्तियां लेकर नीचे उतर आए. पशुपतिनाथ कहां है, पता ही नहीं चला. ऐसा लगा कि पशुपतिनाथ के दर्शनों के लिए दरवाजे केवल वीवीआईपी के लिए ही खोले जाते होंगे. अब हम वीवीआईपी तो थे नहीं कि हमें उनके दर्शन कराए जाते. वैसे भी मैं ऐसी जगहों पर कला को देखने में ही मग्न रहता हूं न कि पूजा पाठ में. पशुपतिनाथ मंदिर दुनियाभर के हिन्दूतीर्थ यात्रियों के अलावा गैर हिन्दू पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है. सावन के महीने में यहां श्रद्धालुओं की मारामार मची रहती है. बताते हैं कि नेपाल में इस मंदिर का ठीक उतना ही महत्व है जितना भारत में केदारनाथ मंदिर का है. चौकोर आकार के बने इस मंदिर में चार दरवाजे हैं. दक्षिणी द्वार पर तांबे की परत पर सोने की परत चढ़ाई गई है. बाकी तीन पर चांदी की परत है. हाँ! शिव का वाहन ‘नदिया’ मजेदार और आकर्षक लगा.
इस मंदिर से जुड़ी एक पौराणिक कथा बताई जाती है. बताते हैं कि भगवान शिव यहां पर चिंकारे का रूप धारण कर निद्रा में बैठे थे. जब देवताओं ने उन्हें खोजा और उन्हें वाराणसी वापस लाने का प्रयास किया तो उन्होंने नदी के दूसरे किनारे पर छलांग लगा दी. इस दौरान उनका सींग चार टुकड़ों में टूट गया था. इसके बाद भगवान पशुपति चतुर्मुख लिंग के रूप में यहाँ प्रकट हुए थे. बहरहाल! मंदिर से मैं जल्दी बाहर भाग आया. यहां शांति कम अशांति ज्यादा महसूस हुई. बाहर एक किनारे पर भव्य मंदिर दिखा. यह शनि मंदिर था. फोटो लेने में कोई मनाही नहीं थी. मंदिर के आंगन में कई परिवार झुंड में बैठे हुए पूजा में व्यस्त दिखे. एक बंदर का बच्चा उन सबकी पीठ में धौल जमाकर चक्कर मारता हुआ खुश हो रहा था. मंदिर के अंदर एक पूजारीनुमा पंडे ने हाथ में धागा बांधने को ईशारा किया. मैं तो चुपचाप बाहर आ गया लेकिन मित्रगण वहीं पूजापाठ में लग गए. आधे घंटे की पूजा में उन्हें तीनेक सौ रुपये की चपत लग चुकी थी. जब तक वे वापस आते तब तक मैं जूतों से गपियाते रहा. मंदिर के बगल में से रास्ता बागमती घाट को जा रहा था तो सब उस ओर चल पड़े कि इसकी एक परिक्रमा तो कर लें. अंतिम संस्कार की वजह से घाट पर सब ओर धुंवा-धुंवा सा हो रहा था.
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बागमती एक छोटी सी नदी है, जिस पर एक पैदल पुल बना हुआ है. पुल पार कर आगे बढ़े तो छोटे-छोटे मंदिरों के झुरमुट दखाई दिए. एक जगह दो साधू मग्न हो अखबार में अपना राशिफल पढ़ रहे थे. हमें देख उन्होंने अखबार बंद कर दिया और एक मंदिर के आहते में बैठकर हमारा इंतजार करने लगे. कुछ देर बाद जब हम वहां पहुंचे तो उन्होंने अपने साथ फोटो खिंचवाने की पेशकश की तो मित्रगण उनके पास चले गए. मेरे फोटो खींचने से पहले उन्होंने साफ किया कि उनके साथ फोटो खींचने के पैसे लगेगें. दो मित्र तो रुखसत हो लिए लेकिन एक ने उन्हें पैसे देने का वादा दिया. मैंने फोटो खिंची तो मित्र उन्हें नमस्कार कर चलते बने. इस पर वे दोनों मुझ पर बुरी तरह से बिफर पड़े. बमुश्किल मैंने उन्हें शांत किया और कुछ रुपये देकर अपनी जान छुड़ाई. मैंने साथियों के इस व्यवहार पर नाराजगी जताई तो वो हंसते हुए मेरी बातों को टाल गए. बागमती के किनारे लंबा चक्कर मारकर हम टयाक्सी वाले अर्जुन के पास पहुंचे. अब बौद्धनाथ जाना था.
रास्ते में भूख की बातें हुईं तो एक जगह टयाक्सी रोक दी गई. वहाँ एक छोटी सी दुकान थी. अभी आते हैं कहकर दो मित्र उसमें घुस गए. बीसेक मिनट के बाद वे लौटे तो उन्होंने बताया कि यहां खाना नहीं है. उस दुकान की स्वामिनी जो कि अपने दुधमुंहे बच्चे को दूध पिला रही थी उसने उन्हें बियर सर्व की. वे दोनों चार-चार मग बियर मारकर मुस्कुरा रहे थे. बकौल एक मित्र, जो विशुद्ध शाकाहारी था, ‘ये तो जौ का पानी हुआ, इसमें मांस कहां मिला रहता है.’ कहकर रोज बियर गटक रहा था.
अर्जुन ने बुद्धा स्तूप के पास ही एक अच्छे रेस्टोरेंट का हवाला दिया तो सभी राजी हो गए. रेस्टोरेंट ठीक था. भोजन के साथ ही बियर भी मंगवा ली गई. भोजन-बियर से फारिग होने के बाद अंदर को गए. बुद्धा स्तूप के अंदर का नजारा बहुत शांति वाला था. हर कोई अपने में मग्न था. यहां कोई पाबंदी नहीं थी. जूते पहन के आओ या मय पीके यहां सबका स्वागत था. बुद्धा स्तूप नेपाल का सबसे विशाल स्तूप है. तिब्बती बौद्ध धर्म के सबसे पवित्र स्थलों में से इसे एक माना जाता है. तिब्बती रिफ्यूजियों ने इस स्तूप के इर्द-गिर्द करीब पचास गोम्पाओं का निर्माण कर रखा है.
यूनेस्को ने तो इस स्तूप को वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल किया है. हमें बताया गया कि यहां से काठमांडू का विहंगम दृश्य भी देखा जा सकता है, लेकिन धुंध की वजह से ज्यादा कुछ साफ नहीं दिखाई दिया. बौद्ध संगीत की बयार बह रही थी तो एक दुकान में जाकर, ‘ओम मणी पदमे हुम’ की सीडी ले ही ली. स्तूप के चक्कर मारते हुए ऊपर पहुंच गए. आज बौद्ध धर्म के कोई बड़े अनुयायी आए थे तो यहां काफी भीड़ थी. एक भक्त तो जमीन में लेटकर सशरीर नापते हुए परिक्रमा करने में मग्न दिखा. वृद्ध जनों के चेहरों में अलग ही तरह की आत्मशांति दिख रही थी. हम स्तूप के अंदर से होते हुए ऊपर को गए. वहां सैकड़ों बौद्ध पूजा में मग्न थे. उनके बीच से होते हुए हर कोई आ-जा रहा था, लेकिन उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी. बल्कि वे मुस्कुराते हुए अभिवादन कर रहे थे. मैं उन्हें देख सोच रहा था कि हम पी-खाके किसी अन्य धार्मिक स्थल में गए होते तो अब तक तो बबाल मच गया होता. थाने-कचहरी की नौबत आ जाती.
वापस होटल लौटे. आज यहां दूसरा दिन था. होटल अच्छा था लेकिन दो कमरे लेने से बजट गड़बड़ाने लगा. तय हुआ कि कल से किसी सस्ते होटल में रुका जाएगा. इसके लिए शाम को रेकी की योजना भी बनी. कुछ देर आराम करने के बाद थमेल की बाजार में भटकने लगे. नेपाल में हमारे सिम काम नहीं कर रहे थे, हां होटल में वाईफाई की मदद से नेट बदस्तूर जारी था. एक मित्रगण बागेश्वर से ही किसी नेपाली मजदूर का नेपाली सिम ले आए थे तो एमेरजेंसी में उससे ही बातचीत हो जा रही थी. इस नेपाली सिम का नंबर नेपाली नटवरलाल ‘गोविंद’ के पास भी था, जिससे वह बार-बार फोन कर इन्द्र दरबार के सपने दिखा रहा था. बाजार में एक होटल में कमरे पसंद आ गए तो दूसरे दिन वहां शिफ्ट होने की बात तय हो गई.
इस बीच मित्रगणों में एक के मित्र ऋषभ अग्रवाल का फोन आया तो होटल की ओर निकले. ऋषभ नेपाल में ट्रेवल एजेंसी का काम करते हैं. इस होटल की व्यवस्था उन्हीं से करवाई थी. ऋषभ से घंटेभर की मुलाकात में काफी जानकारियां मिली. ऋषभ मूलतः राजस्थान के जयपुर से हैं. पांचवी तक नेपाल में पढ़ाई की. बाद में ग्वालियर, बैंगलौर तथा यूके में पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने पिताजी के साथ 2011 में नेपाल में उनके व्यापार में कूद पड़े. यहां कमाई भी ज्यादा है. नेपाल के बारे में जब उनसे पूछा तो उनके पहले शब्द यही थे, ‘एड पर चल रहा है नेपाल, हर देश कुछ न कुछ देता ही रहता है.’ बाद में उन्होंने यहां के बारे में थोड़ी सी जानकारी भी साझा की. मसलन, ‘बिसनमति और बागमती नदी नेपाल की जीवनदायी नदियां हैं. बागमती नदी को गंगा की तरह पवित्र माना जाता है. एक नदी भारत से आती है जिसे यहां त्रिशूली तथा भारत में तीस्ता कहते हैं. काली गंडकी नदी चीन से आती है.
समुद्र तल से 1190 मीटर की ऊंचाई पर बसे इस क्षेत्र में पाटन, काटमांडू व भक्तपुर दरबार को मिलाकर काठमांडू बनाया गया. यहां घरेलू गैस 1325 रुपये की है. इस बीच नेपाल में अतिक्रमण पर डंडा चल रहा है. अभी हाल में ही होटल नाना भी अतिक्रमण के दायरे में आ गया तो उसे तोड़ा गया. भूकंप के बाद बुरा हाल है. धीरे-धीरे चल रहा है काम. सड़कें भी सब खत्म हो गई थीं. इसके लिए चायना से पैसा मिल रहा है तो बन रही हैं, वक्त तो लगेगा ही.’
नेपाल की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था पर निर्भर है. भारत की अर्थव्यवस्था ऊपर? तो नेपाल की भी ऊपर और भारत की अर्थव्यवस्था नीचे गिरी तो नेपाल की अर्थव्यवस्था भी ले धड़ाम. उन्होंने बताया कि नेपाल में गाड़ियां बहुत महंगी हैं. मारुती 800 ही यहां 15 लाख में आती हैं. ज्यादातर गाड़ियां तो भारत से चोरी होकर आ जाती हैं. दलाल उन्हें यहां का नंबर दिला देते हैं. उन्होंने बताया कि काठमांडू से आगे लुकला से एवरेस्ट बेस कैम्प के पास काला पत्थर के लिए हैली सेवा भी है. इसके अलावा एवरेस्ट परिक्रमा के लिए 16 सीटर विमान भी है. एक तरह से कहा जाए तो साहसिक पर्यटन से ही नेपाल पलता है. नेपाल में 14 प्रशासनिक अंचल हैं जो 75 जिलों में बँटे हुए हैं. ऋषभ ने बताया किए नेपाल में बौद्धनाथ मंदिर बौद्धों का सबसे पवित्र स्थान है. भूकंप में यह मंदिर भी ध्वस्थ हो गया था, जो सबसे जल्दी दुबारा खड़ा हो गया. काठमांडू से करीब 17 किमी दूर है भक्तपुर. यहां आज भी ईंटों की बनी हुई सड़कें पुराने जमाने की याद ताजा करा देती हैं. और आप लोग पोखरा जा रहे हैं तो मनोकामना मंदिर ज़रूर जाएं, जो पोखरा के रास्ते में करीब सौ किमी की दूरी पर है. इस मंदिर की मान्यता भारत के वैष्णो देवी मंदिर की ही तरह है. इसे काठमांडू का वैष्णो मंदिर कहा जाता है, इसे देखना न भूलें. ऋषभ ने बताया कि नेपाल में भूकंप से पहले बिजनस काफी अच्छा था. सांस लेने की फुर्सत नहीं मिलती थी. लेकिन भूकंप के बाद अर्थव्यवस्था बुरी तरह डगमगा गई है. हालांकि बाहरी देशों से पैसा बहुत आया लेकिन भ्रष्ट मंत्रियों की जेबों में समा गया. यहां भी ज्यादातर राजनेता लूटेरे हैं. उन्होंने बताया कि नेपाल में ट्रैफिक कानून काफी सख्त है. पांच बार गलत पकड़े जाने पर लाइसेंस निरस्त हो जाता है. काठमांडू में नशे में वाहन चलना मतलब 6 माह के लिए जेल के अंदर. ट्रैफिक पुलिस हर जगह मुस्तैद रहती है. ट्रैफिक नियम तोड़ने पर आपका चालान होने के साथ ही लाइसेंस में मार्क लग जायेगा. हेलमेट न पहनने पर हजार रुपये का जुर्माना है. गलियों में तक सभी दो पहिया वाले हेलमेट पहने रहते हैं. शाम ढलते ही पुलिस हेलमेट उतार कर एल्कोमीटर से चेकिंग शुरू कर देती है. ये जुदा बात है कि लड़खड़ाते हुए कई लोग पुलिस के आगे-पीछे मंडराते रहते हैं, लेकिन पुलिस कुछ नहीं करती है. मय के आगोश में डूबे एक का कहना था कि, ‘हमसे इनकी कमाई नहीं हो पाती और पल्ले से खाना भी खिलाना पड़ता है.’
चायना और नेपाल के संबंधों के बारे में पूछने पर वह जरा सा सतर्क से हो गए कि कहीं मैं कोई पत्रकार-वत्रकार तो नहीं हूं. इस पर मेरे एक मित्र ने हंसते हुए कहा, ‘ये भी बिजनेस वाले हैं, हलवाई हैं हलवाई.’ सभी हंसने लगे.
ऋषभ ने बताया कि चायना से नेपाल को काफी फायदा मिल रहा है. अभी काठमांडू से 100 किमी दूर चीन फ्रैंडशिप ब्रिज बना रहा है. सड़कें भी वही बना रहा है. पैसा खूब आ रहा है. लेकिन भुक्खड़ राजनेता चायना की हां में हां मिलाने में लगे रहते हैं. अपनी बात खत्म कर उठते हुए वह बोले कि, नेपाल में आज तक कुछ नहीं बदला सिवाय राजशाही के. आपने एयर पोर्ट देखा तो होगा. वह अब भी किसी बस स्टैंड जैसा ही है.
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ऋषभ के जाने के बाद कुछ चबैना मंगाया गया. चबैने को अकेले लेना पाप समझ कुछ मादक पेय और बीयर को गले से उतारा तो माहौल मजेदार हो उठा. इसके बाद बाजार में आवारागर्दी के लिए निकल गए. बाजार अच्छे थे, लेकिन सामान बहुत महंगा था. काठमांडू का पॉश एरिया है थामेल. इसे यहाँ ठमेल कहते हैं. यह एक बड़ा और महंगा बाजार है. माउंटेनियरिंग से संबंधित सारा सामान यहाँ मिलता है. एवरेस्ट जाने के लिए अधिकतर पर्वतारोही जिनमे विदेशी अधिक होते हैं, अपनी जरूरत का सामान यहीं से ही खरीदते है. विदेशियों को नेपाली मुद्रा में सामान सस्ता लगता है, थोड़ी-बहुत बारगेनिंग के बाद वे सामान ले लेते हैं. विदेशियों पर निर्भरता की वजह से यहाँ बिकने वाला ज्यादातर सामान बहुत महंगा है. यहाँ के बाजार पर चाइना का भी ज्यादा दबाव दिखा. ज्यादातर सामान मेड इन चाइना है, जो डुप्लीकेट और सस्ता भी होता है, बावजूद इसके चाइना का सामान यहाँ दूसरे देश का बताकर ऊंचे दामों में बेचा जाता है. इससे अच्छा तो भारत का बाजार है, जहाँ देहरादून, दिल्ली में माउंटेनियरिंग का बेहतर सामान कम कीमत में मिल जाता है. ज्यादातर दुकानदार हमारी शक्ल देखकर कुछ इस अंदाज में भाव ऊंचे कर ले रहे थे कि, ‘ये इंडिया से आए हैं, लेंगे तो नहीं खाली बहस करेंगे. अच्छा है भाव ही बढ़ा दो इनके लिए.’
हम चारों दो-दो के जोड़े में अलग हो बाजार में फैल गए. घंटों तक बाजारों में चहल कदमी करते रहे. सामान अच्छा था लेकिन उसकी कीमत औकात से बाहर थी. अंधेरा हो चुका था. एक पीसीओ से मित्रों को उनके नेपाली वाले सिम पर फोन कर अपनी लोकेशन देकर होटल के बाहर की दुकान में मिलने को कहा.
नटवरलाल, ‘गोविंद’ बाजार में मित्रों को फिर टकरा गया था और उन्हें मीठे-मीठे सपने दिखाने में लगा था. वैशाली होटल के बाहर की बाजार में गोपाल ढाकरे की माउंटेनियरिंग के कपड़ों की अच्छी-खासी दुकान है. मुझे वह काफी संयमी दुकानदार लगा. शायद लम्बे अनुभव ने उसे ऐसा बना दिया था. बारगेनिंग के लिए ग्राहक उससे काफी बहस करते और वह बहुत ही संयत ढंग से उन्हें चीजों की क्वालिटी के बारे में बताते रहता. हां बहस के बाद वह कुछ कम कर ही देता था. जब उसे पता चला कि मैं भी दुकानदार हूं तो बातों ही बातों में उससे दोस्ती हो गई. उसने बताया कि सामान की कीमत तो फिक्स होती है लेकिन सामने वाले की बातों के अंदाज पर चीजों को मंहगा बताया जाता है. उसके बाद कम करने के बाद ग्राहक भी खुश और हमें भी नुकसान नहीं उठाना पड़ता है. मित्रगणों ने उससे काफी बहस की और सामान भी खूब लिया तो वह खुश हो गया. बाद में, मैं उसके पास बैठा गप्प मारते रहा. उसने बताया कि यहां बाजारों में यदि मूल्य ऊपर गया तो फिर नीचे नहीं उतरता है. नेपाल के क्या हाल हैं? पूछने पर बिफरते हुए उसने बताया कि, ‘मंत्री तो ऐसे हैं कि एक-एक लाख में ही बिक जाते हैं. राजशाही में राजा लोग इंडिया की नहीं सुनता था, लेकिन राजशाही सही थी. वह देश को आत्मनिर्भर बनाना चाहता था. राजा महेन्द्र व राजा विरेन्द्र बहुत सही थे. निरंकुश तो थे लेकिन नेपाल की जनता के लिए अच्छा था. स्कूल खोला कई अच्छे काम भी किए अब तो अखाड़ा हो गया है नेपाल. भाईचारा तो भारत के साथ ही हुआ, चायना के साथ भी भविष्य अच्छा नहीं होगा हमारा. बाकी ये मंत्री जो न कर दें. क्या कहें.’
गोपाल ने बताया कि नेपाल में, खासतौर पर थामेल में विदेशी बहुत आते हैं. नेपाल में ज्यादातर चीजें पुरानी हैं और विदेशियों को ये सब पसंद आती हैं. फिर उनसे ही तो हमारा देश पलने वाला हुआ. वे आएंगे तो कुछ खर्च करके ही जाएंगे न फिर.
मैंने गोपाल से माउंटेनियरिंग वाली एक गर्म पैंट और बच्चों के लिए फैदर जैकेट लिए. उसने बहुत कम दाम लिए. जब मैंने उसे ऐसा करने के लिए मना किया तो उसने प्यार से गले मिलते हुए कहा कि नुकसान नहीं उठाया है आपसे.
आज रात में डिनर के लिए एक, ‘हिमाली किचन’ में जाना तय हुआ. वहां थाली सिस्टम था. 250 रुपए नॉन और वैज दोनों. बियर हम अपने साथ ले गए थे, वैसे वहां भी सुलभ थी. हर होटल बार जैसा ही है यहां. आप पीके पैदल जाओ चुपचाप कोई कुछ नहीं कहेगा, कुछ कार्यवाही नहीं होगी. लेकिन आपने थोड़ी सी पी है और वाहन चला रहे हैं तो नेपाल प्रहरी यमदूत बन आपको सीधे हवालात में ही पहुंचाके दम लेगा. खाना अच्छा, लेकिन मंहगा था. टेबल में टिशू पेपर पर नजर पड़ी तो होटल वालों ने टिशू पेपर के भी आधे टुकड़े रखे थे. हद है! कमा भी रहे हो लेकिन एक टिशू पेपर के लिए भी इतनी धूर्तता. होटल में सोने से पहले मित्रगण की चर्चा से पता चला कि नटवरलाल उन्हें स्वर्ग में अफसराओं के नृत्य और देवसुरा के बारे में बता रहा था.
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आज सुबह ‘वैशाली’ को छोड़ना था दस बजे तक. एक बार फिर से मित्रगणों ने नाश्ते को ही भोजन समझ डकार आने तक खाया. नए होटल में शिफ्ट किया. रात मीट खाने से मेरा पेट गड़बड़ा रहा था. मीट को गलाने के लिए शायद सोडा ज्यादा डाला गया था, जिससे पेट में गुड़गुड़ हो रही थी. होटल के कमरे में सामान फैंककर मैं बाथरूम की ओर भागा. बीसेक मिनट के बाद पेट से आवाजें आनी बंद हो गई तो देखा कि पानी का नल तो छोडिये टॉयलेट पेपर भी नहीं दिखा. उकडूं होकर सामने देखा तो तीन टोटियां नज़र आयीं लेकिन उन टोटियों से पानी निकलने के लिए कोई नल नहीं था. दीवार में एक सॉवर लगा था जिसकी एकमात्र टोंटी मुझे चिढ़ा रही थी. मजबूरन, कपड़े उतारकर नहा लिया. होटल वाले से इस अजीबो-गरीब बाथरूम की शिकायत की तो उसने चुपचाप एक बाल्टी और मग भिजवा दिया.
बाजार में घूमने की राय बनी तो जाने से पहले थोड़ा मादक जल ग्रहण कर लिया गया. बाजार की रौनक अच्छी लग रही थी. बुद्ध के नाम पर बार और पब भी खुले थे. चमचमाती बाजार की हर गली अपनी ओर लुभाती सी महसूस हो रही थी. काफी देर तक घूमते रहे. अचानक ही मित्र को नटवरलाल गोविंद टकरा गया. वैसे वो टकराया नहीं था, जिस दिन से वह हमें मिला था तभी से हम पर बराबर नजर बनाए रखा था. मुझसे पहले ही दिन किनारा कर चुका था और दो अन्यों से भी उसे कुछ फायदा होते दिख नहीं रहा था तो आज उसने अंतिम लक्ष्य को साध हमारे साथ साथ कदम मिलाने शुरू कर दिए. कुछेक पलों बाद ही मित्र ने राय रखी, ‘चलें पब में, सस्ता है, खर्चा कुछ है नहीं, बियर ढाई सौ की है बल, दो पापड़ फ्री हैं उसके साथ व्हिस्की के पैग भी बार के हिसाब से ही हैं.’
तीनों एकमत हो मुझे घुरने लगे तो, पुराने समझौते के हिसाब से मेरे मुंह से हां निकलनी ही थी. आज मेरे पांव में गठिया की प्रोब्लम भी हो रही थी तो चाल में हल्का लचकनपना था. सोडा वाले मीट-मुर्गे के साथ-साथ कुछ ज्यादा मात्रा में मदिरा सेवन से गठिया भी बाहर आके कत्थक करने लगा था. नटवरलाल के साथ मित्र पैदल बहुत तेजी से आगे निकल गए. मुझे पास न पाकर वे रुक गए. नटवरलाल को मुझसे बार-बार काफी बैचेनी हो रही थी, क्योंकि मेरी वजह से सभी की चाल धीमी हो रही थी. नटवरलाल ठिकाने में जल्दी पहुंचना चाहता था. आज कई दिनों के बाद उसके हाथ जंगली मुर्गे जो हाथ लगे थे. वह तेज कदमों से चलते हुए डेमोस्ट्रेशन करते हुए बताने लगा कि यदि हम सभी इस तरह से चलेंगे तो बीस मिनट में पहुंच जाएंगे. फिर उसने मंजे हुए कलाकार की तरह मेरी नकल करते हुए कहा कि इस तरह से तो हम सुबह तक ही पहुंच पाएंगे. मैंने मित्रों को बोला कि वे चलें मुझे जरा परेशानी हो रही है, मैं पहुंच जाऊँगा. भरोसा करो भागूंगा नहीं. इस पर एक मित्र मेरे साथ हो लिया बाकी दो आगे बढ़ गए. हालांकि कसाईखाने में पहुंचने तक हमारे बीच में ज्यादा दूरी नहीं रही. इस बीच साथ चल रहे मित्र ने अपनी चिंता व्यक्त की कि यह इतनी दूर क्यों ले जा रहा होगा, शहर में भी तो काफी पब हैं. कुछ गड़बड़ तो नहीं करेगा. मैं शपथ का हवाला देकर चुप ही रहा. थामेल से करीबन तीनेक किलोमीटर दूर चालीसेक मिनट बाद हम एक सूनसान सी जगह में पहुंचे. इस बीच नटवरलाल बार-बार फोन में किसी से बातें भी करते रहा. तीन या चार मंजिली एक बिल्डिंग के पास वह हमें ले गया. लिफ्ट से हम तीसरी मंजिल में पहुंचे. अंदर के हॉलनुमा कमरे को पब बनाया गया था. बाईं ओर बार काउंटर, बीच में कुछ सोफे और सामने एक स्टेज जैसा बनाया गया था. कुछ पलों में ही स्टेज
में तेज फूहड़ संगीत की आवाज में एक बार डांसर ने आकर कमर मटकानी शुरू कर दी. मित्रगणों को नटवरलाल ने सोफे में अलग-अलग बिठाकर कुछ इशारा किया तो तीन बार डांसर उनके अगल-बगल में बैठकर उनसे बतियाने में लगीं. मुझसे उसने दूरी बना ली थी. यहां का माहौल देख लग रहा था जैसे वह सही कह रहा था कि उन्हें इंद्र दरबार में ले जाऊँगा.
मेरे पेट में मरोड़ उठी तो मैंने टॉयलट का पता पूछा. डांस स्टेज के सामने किनारे से आगे कोने में टॉयलट था. हांलाकि टाइलें उसमें लगी थीं लेकिन हाल बहुत बुरा था. मैंने सिगरेट जला ली और आराम से पेट के मरोड़ को दूर करने के वास्ते निश्चिंत हो बैठ गया. बाहर के कानफोडू भोंडे संगीत की आवाज से यहां राहत मिल रही थी. आधे घंटे बाद मैं उठा तो पेट ने फिर आवाज दे दी. नई सिगरेट जलाकर फिर बैठ गया. बीसेक मिनट बाद पेट ने शांत होकर जाने की इजाजत दे दी तो मैं बाहर निकला. स्टेज में नाचने का भार एक ही बाला पर दिखा. मैं चुपचाप बाहर निकल चौमंजिले को जाने वाली सीढ़ियों पर बैठकर सिगरेट पीने में मग्न हो गया. तभी एक मित्र मेरी खोज-खबर लेते हुए आए मैं आपकी पेरशानी समझ रहा हूं. चलो अंदर तो बैठो न, अंदर शोर बहुत है न. चलो भी न यार किनारे में शोर कम है, चलो न.
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मित्र अंदर ले गया तो किनारे पर मैं एक सोफे पर बैठ गया. एक बियर का गिलास आ गया. मित्र भी अपना बियर का गिलास लाते हुए बोले, चलो यार मस्ती करो न जिंदगी के. क्या रक्खा है जिंदगी में. मन नहीं था लेकिन प्रोटोकॉल था तो मैंने गिलास हाथ में ले लिया. मित्र को दोस्तों के साथ ही अप्सराओं का बुलावा आया तो वे मुझे बैठे रहने की हिदायत देकर रुखसत हो लिया. मेरी नजर सामने पड़ी तो लगा कि यहां तो इन्द्रलोक का दरबार ही सजा है. मेनका नाच रही है और अप्सराएं मित्रगणों को रासलीला के लिए आमंत्रित कर रही हैं. इस भयानक दृश्य से मैं कांप सा उठा और फिर से बाहर भाग गया.
दोबारा चौथी मंजिल की सीढ़ियों पर बैठ गया. सिगरेट जलाकर मन ही मन सोच रहा था कि, कोई शक्की पत्नी इस माहौल में अपने पति को देखे ले तो वह उसका क्या हाल करे. सोचते हुए लिख रहा था. ‘मानसिक प्यार की अपनी गरिमा होती है. उसकी सीमा तय नहीं की जा सकती है उसमें बंदिशें काम नहीं आती.’ अचानक कोई आया और बोला. अंदर चलिए.
मैंने उसे बताया कि अंदर काफी शोर है और मुझे ये सब पसंद भी नहीं है. इस पर उसने तेज आवाज में कहा कि, ठीक है इधर बैठ जाओ ड्राइंग रूम में. और मैं मजबूरन खड़ा होकर सीढ़ियों से नीचे आया तो उसने मेरा बाजू पकड़ धकियाते हुए मुझे एक कमरे में डाला और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया.
मैं चुपचाप वहां एक सोफे में बैठ तो गया लेकिन मन आशांकाओं से घिर गया. क्या हुआ होगा अंदर? कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गई. मन में भय के भयानक बादल घिरने लगे. तभी दरवाजा खुला और एक-एक कर मित्रगण भी अंदर धकेले जाने लगे तो मुझे अब यकीं होने लगा कि जरूर कुछ गड़बड़ हो गई है. मैं सोफे से खड़ा होकर खिड़की की ओर चला आया. उनके हो-हल्ले में समझ में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है और ऊपर से दो बाउंसर भी दरवाजा बंद कर अपनी पिस्टलों पर हाथ रख हमें खा जाने वाली नजर से घूरने लगे.
‘नहीं तुम्हें पूरा बिल देना पड़ेगा. जो तुमने मंगाया था उसका तो भुगतान हर हालत में करना पड़ेगा..’
‘…लेकिन बात तो सुनो. हमने तो इतना खाया-पिया भी नहीं तो हम कैसे करें इस बिल का भुगतान..?’
‘करना तो पड़ेगा ही. बिना बिल दिए तुमको जाने नहीं देंगे.’
मुझे कुछ तसल्ली हुई कि मित्रों ने कुछ गड़बड़ नहीं की है, मामला बिल का है तो राहत मिली. आधे घंटे बाद आवाजें नीची होनी शुरू हुईं तो मैंने भी सोफे में बैठने की हिम्मत जुटा ली. बगल में बैठे मित्र से पूछा तो पता चला किए बिल आया है 42 हजार नेपाली रुपये का. मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम.
‘क्या हुआ. क्या पिया तुम लोगों ने अंदर?’
‘अरे! कुछ नहीं पीया. किसी से कोई बदतमीजी नहीं की. ये साले अंदर जो बार डांसर बैठी थी तो उन्हें जो पिलाया गया था वह भी बिल में जोड़ रहे हैं. उनका एक पैग ढाई हजार का है बल. वे तीन मिलकर बारह-पन्द्रह पैग गटक गईं बल.’
अब माजरा साफ होता नजर आ रहा था. मित्रगण कह रहे थे कि उन्होंने तो किसी का आर्डर दिया ही नहीं. तो उनका कहना था कि, जो तुम्हारा साथी था उसी ने तो आर्डर दिया है. इस पर मैंने उन्हें उस साथी को भी लाने को कहा तो उन्होंने बातें घुमा दीं. नटवरलाल उर्फ गोविंद अपना कमीशन थाम हमें फंसाकर गायब हो चुका था. यह उसके जैसे न जाने कितने नटवरलालों का रोजमर्रा का काम था. गलती उसकी नहीं हमारी थी, जो उसके जाल में फंस गए.
बमुश्किल मामला भारतीय बाइस हजार रुपये में निपटा. पैसे वसूल करने के बाद उन सभी के चेहरे आत्मीय हो उठे और उन्होंने हमें धन्यवाद भी दिया. हम सभी दोबारा लिफ्ट से नीचे आए. इस इलाके से निकलने के बाद मैं जोर से हंस पड़ा. सभी चौंके कि मेरा क्या दिमाग खराब हो गया करके. काफी देर तक हंसते रहने के बाद मैंने कहा, ‘यार इस पेट ने भी आज क्या दिन दिखा दिया. आधे-एक घंटे टॉयलेट में बैठने पर ही मेरा साढ़े पांच हजार का बिल आ गया.’
(Nepal Travelogue Hindi)
उस वक्त मैं अपनी डेढ़ टांग से नाचा तो वे थोड़ा नार्मल हो गए. घंटेभर बाद भटकते हुए हम हिमाली किचन में पहुंचे. आज शाकाहारी भोजन का ऑर्डर किया गया. पीतल की थाली में दो रोटी, हरी सब्जी, दाल और दही आ गई. सलाद के नाम पर एक गाजर और एक मूली के छोटे से टुकड़े ने आमद दर्ज करा दी. मक्खन मांगने पर थोड़ा घी जरूर मिल गया. सब चुपचाप लुटे-पिटे खाना खाने में लग गए. भूख सबकी मर चुकी थी. मैंने होटल वाले से मादक पेय मंगाए. किसी ने भी साथ नहीं दिया तो हंसते हुए मैंने अकेले उन्हें गटक लिया. पीछे की टेबल में खाना खाते हुए कुछ लोगों की बात पर हम सबका ध्यान गया तो हम चुपचाप उन्हें सुनते रहे.
‘ये तो बड़े कमीने निकले यार.’
‘हां… साले बड़े मादर… थे, बच गए बस यार..’
‘अरे! मैं तो उन लड़कियों को ड्रिंक पीते देख समझ गया था तभी तो मैंने कांउटर पर बोला ये क्या है?’
‘लेकिन क्या करते यार पराया देश हुआ.’
मित्रगणों ने उनकी बातें सुनी तो वे सब, यह सोचकर मुस्कुरा दिए कि अकेले हमीं नहीं छले गए. कमरे में आकर आज की इस घटना को याद करते हुए सभी ने जमकर छलिया नाच किया. एक मित्र ने तो आज के घटनाक्रम से अपना ध्यान हटाने की ख़ातिर श्रीयंत्र सिंगिंग बाउल में अपना ध्यान लगाना शुरू कर दिया. उस वक्त हर कोई यही सोच रहा था कि गोविंद उर्फ नटवरलाल मिल जाए तो उसे कैसी यातनाएं दी जाएं. गोविंद ने मिलना था नहीं और न ही वह मिला. उसका फोन भी बंद हो चुका था. अब नए बागड़बिल्लों को फांसने के लिए उसने नया सिम ले लिया होगा.
हमारा बजट गड़बड़ा चुका था तो पोखरा जाने का प्रोग्राम भी ध्वस्त हो गया. कल बस से वापसी पर सभी की राय बन गई. सुबह महेन्द्रनगर के लिए बस के चार टिकट ले लिए गए. इस होटल में भी सुबह नाश्ता फ्री था तो सभी ने नाश्ते के लिए पूछा. होटल वालों ने बताया कि आप टैरेस में बैठो, नाश्ता वहीं आ जाएगा. घंटेभर बाद सभी के लिए एक-एक पराठा और थोड़ा सा सॉस आया. ये गरीब होटल था. और नेपाल में अब हम भी गरीब हो चुके थे. सो चुपचाप गरीब नाश्ता कर लिया.
महेन्द्रनगर की बस दोपहर दो बजे बाद थी. सामान पैक कर हमने बस अड्डे के लिए एक टैक्सी बुक कराई. बस अड्डे पहुंचे तो वहां का नजारा देखते ही बनता था. बसें आ-जा रही थीं. उनके अंदर और छत दोनों ठस्स भरे थे. छतों पर मोटर बाइकें उतारी-चढ़ाई जा रही थीं. दोपहर ढलने को थी. बस का टाइम खिसक कर तीन हो गया था तो एक होटल में भोजन करने की राय बन गई. यहां शाकाहारी भोजन कम मांसाहारी ज्यादा दिखा. मजबूरन भूख मिटाई. आधा घंटे पहले बस अपनी जगह पर लगी. ‘बस में फ्री वाई-फाई की सुविधा है.’ को बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा गया था. अंदर बैठे तो बस क्लीनर से वाई-फाई का पासवर्ड पूछा, जो कि बस का नंबर था. अन्य यात्रियों को मुझसे पासवर्ड लेने की होड़ मच गई. पासवर्ड डालने के बाद भी मोबाइल में कुछ हलचल नहीं हुई तो क्लीनर से ही इसका राज खोल दिया, ‘महीने का कार्ड भर देते हैं इसमें. वह दो-एक दिन में ही खत्म हो जाता है तो मालिक क्या करे. सिग्नल पूरा दिखाएगा लेकिन काम नहीं करेगा..’
काठमांडू से महेन्द्रनगर करीब 740 किलोमीटर है. दोनों ओर प्राइवेट बसें चलती हैं. किराया करीब 844 रुपया है. काठमांडू से शाम को महेंद्र नगर के लिए तीन-चार बसें चलती हैं, जो दूसरे दिन करीब दस-ग्यारह बजे पहुँचती हैं. तब सड़कों की हालत बहुत ख़राब थी. लंबी दूरी में बाइक से जाने वाले बाइक को बस की छत में डालकर खुद बस में जाना बेहतर समझते हैं. बस सरपट भाग रही थी. सड़क किनारे बसे लोग खेतों में मेहनत करते दिख रहे थे. धीरे-धीरे अंधेरे की चादर बिछने लगी तो सीट में आराम से लेट गया. अचानक घने अंधेरे में एक जगह बस रुकी तो डर सा लगा कि कहीं किसी ने बस को लूटपाट के लिए तो नहीं रोक लिया है. बाहर देखा तो कुछ समझ में नहीं आया. कुछेक यात्री बाहर निकले दिखे. क्लीनर से पूछा कि माजरा क्या है तो उसने बताया कि इस जगह में यात्रियों को हल्का होने के लिए बस को रोका जाता है. मैं भी झटपट बाहर झाड़ियों की ओट हो लिया.
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बस ने फिर फर्राटे भरने शुरू कर दिए. ग्यारह बजे बस फिर एक जगह रुकी. हम उंनीदे से बाहर निकले तो समझ में आया कि यह भारत का दिल्ली-हल्द्वानी रूट की गजरौला जैसी एक जगह है, जहां यात्रीगण हमेशा लुटते-पिटते रहते हैं. हममें से भूख किसी को नहीं थी तो बाहर टहलते रहे. घंटेभर बाद बस के चालक ने आवाज दी तो चुपचाप अपनी सीट पर समा गए.
सुबह छह बजे बस फिर एक उजाड़ सी जगह में रुकी. एक दुकान में दिशा मैदान के बारे में पूछा तो उसने बताया कि दुकान के नीचे वॉशरूम है. दुकान के नीचे का रास्ता दुकान के पीछे की ओर से था. घने अंधेरे में रास्ता नहीं दिखा तो हैडटार्च जला लिया. सीढ़ियां नीचे की ओर ले जा रही थी. कुछ कमरे दिखे, लेकिन वॉशरूम नहीं दिखा तो फिर नीचे की ओर जा रही सीढ़ियों का रुख किया. कुछ कमरों के बगल में एक बाथरूम मिला. इन अंधेरे कमरों में कैसे कोई रहता होगा, सोचकर ही जी मचल रहा था. ये कमरे तो एक तरह से अंग्रेजी ज़माने की कालापानी जेल से भी बदतर थे. न जाने क्या सोचकर यह मकान बनाया होगा.
बाहर आया तो बस के ड्राइवर, कंडक्टर और नन्हा क्लीनर चाय-नाश्ते में पिले पड़े थे. हम सभी बस में बैठ गए. कुछ देर बाद बस चल पड़ी. ज्यों-ज्यों उजाला फैल रहा था त्यों-त्यों हर कोई अपने सुबह के कामों में जुटता दिख रहा था. बस का ड्राइवर बस को जहाज बनाने में लगा था लेकिन ट्रैफिक उसके अरमानों को पूरा नहीं करने दे रहा था. महेन्द्रनगर पहुंचने में करीब बाईस घंटे लग गए थे. आज यहीं रुकना था तो एक अच्छे होटल की तलाश की. नजदीक ही सही कीमत में पंचतारा होटल में दो कमरे मिल गए. होटल में भोजन महंगा था तो बाजार का रुख किया. एक ढाबेनुमा होटल वाले ने मेज में पीतल के चार चमचमाते गिलास रख दिए.
भोजन के बाद कुछ देर बाजार में घूम आए. यहां के बाजार में ज्यादातर सामान दिल्ली मार्का दिख रहा था. काठमांडू की अपेक्षा, खटीमा, हल्द्वानी यहां से नजदीक और सुलभ है. नेपाल में हर दुकान-खोमचों में मदिरा रहती है. हद तो तब हो गई जब राशन की दुकानों में भी दाल के थैलों के बीच बोतलें सजी हुवी दिखाई दीं.
यहां हर जगह नेपाली गानों में भी राक्शी (मदिरा) का प्रयोग सन्देश देने की बजाय मनोरंजन के रूप में ही अधिकतर देखने-सुनने में मिला.
‘यहां देखने लायक क्या है.’ पूछने पर एक ने बताया कि टैंपो कर लो, नजदीक में ही एक झूला पुल है, जो कि कई किलोमीटर लंबा है. वह देखने लायक है. एक टैंपो बुक करा झुलगों पुल देखने को चल पड़े. महाकाली नदी पर बना यह पुल महेंद्रनगर से सात किलोमीटर की दूरी पर है. इस पुल के बारे में बताया गया कि ये एशिया का दूसरे नंबर का पुल है. इसकी लंबाई डेढ़ किलोमीटर है. और इसका निर्माण विक्रमी संवत 2061 में किया गया.
अगले दिन हल्द्वानी निकलने की तैयारियां शुरू हुईं. बनबसा तक टैंपो और उसके बाद कुछ पैदल चले और भारत की चैक पोस्ट पर सामान की चैकिंग से फारिग हो पैदल ही आगे को निकल पड़े. महाकाली नदी पर बने पुल पर बैरियर दस बजे खुलता है. पुल के किनारे से पैदल आना-जाना लगा रहता है. नेपाल के नंबर वाली मोटरबाइक तीन-तीन लोगों को पार ढोने में लगी थी. हमारे पास सामान ज्यादा था तो पैदल ही चलना उचित समझा. पुल तक पहुंचने में गेट भी खुल गया तो फिर हिंदुस्तान के टैंपो में सवार हो लिए. खटीमा में पहुंचने पर हल्द्वानी की जीप मिल गई. रात हल्द्वानी रुके और दूसरे दिन तमाम खट्टी-मीठी यादों के साथ शरीफ़ों की तरह अपने-अपने आशियानों में घुस गए.
नेपाल के उत्तर में चीन का वह स्वशासित राज्य तिब्बत है जो वर्षों से अपनी आजादी के लिए संघर्ष कर रहा है. नेपाल, दक्षिण एशिया का एकमात्र देश है जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद से बचा रहा. नेपाल के प्रमुख शहर लिलतपुर (पाटन), भक्तपुर, मध्यपुर, कीर्तिपुर, पोखरा, विराटनगर, धरान, भरतपुर, वीरगंज, महेन्द्रनगर, बुटवल, हेटौडा भैरहवा, जनकपुर, नेपालगंज, वीरेन्द्रनगर, त्रिभुवननगर आदि हैं. ये सही बात है कि हिमालय की गोद में बसा खूबसूरत देश नेपाल सदियों से हर किसी का ध्यान अपनी ओर खींचता रहा है. नेपाल में काफी उर्वर घाटियां हैं और दुनिया की सबसे ऊँची 14 पहाड़ी चोटियों में से आठ यहीं पर स्थित हैं. विदेशी मुद्रा और आमदनी का सबसे बड़ा जरिया यहां का पर्यटन है, हर साल लाखों की संख्या में पर्यटक इस खूबसूरत देश को देखने के लिए आते हैं. जिससे नटवरलालों का धंधा भी यहां बेरोकटोक चलता रहता है. और आगे भी बदस्तूर चलते रहेगा.
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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😂😄बहुत ख़ूब. नटवरलाल गोविन्द की मेहरबानी से अप्सराओं के नृत्य का वर्णनन और पब में थोड़ा कुछ🤪 खर्च करआप लोगों के अनुभव पढ़ आंनद आ गया 😂😂
नेपाल में 2016 से अब तक कोई ख़ास परिवर्तन नहींआया है . पर्यटन और माउंटेंनियरिंग ही उनकी मुख्य आया का स्रोत्र हैं..
पब का स्थान अब कैसीनो ने ले लिये जिसमें सैलानियों की जेब की धुलाई निरंतर जारी है, अनुभब के लिए मित्रगण महेंद्रनगर, दारचूला या काठमांडू जा सकते हैं 😄