देवेन मेवाड़ी

टिहरी-उत्तरकाशी में बारह साल बाद नील कुरेंजी की बहार आई है बल

दूर उत्तराखंड के पहाड़ों से रैबार देने वाले पत्रकार साथी संजय चौहान और शैलेंद्र गोदियाल का कहना है कि उत्तरकाशी और टिहरी जिले के जंगलों में इन दिनों नील कुरेंजी के फूलों की बहार आ गई है. खास बात यह है कि यह बहार बारह साल बाद आई है. नील कुरेंजी के पौधों में बारह साल बाद ही फूल खिलते हैं. अहा, उस साल भी जंगल नील कुरंजी के नीले-बैंगनी फूलों की बहार से सज गए थे! शायद 1958 का वर्ष था. मैं तब नैनीताल से करीब पचास किलोमीटर दूर ओखलकांडा में कक्षा आठ में पढ़ रहा था. जुलाई में हमारा कालेज खुल गया था और उसके बाद ही अचानक आसपास चीड़ के जंगलों में नीले-बैंगनी फूलों की बहार दिखने लगी. हमारे कालेज और टीचर्स क्वार्टर के आसपास हवा में मधुमक्खियों की भन-भन सुनाई देने लगी. उनके झुंड के झुंड आकर पेड़ों और छतों के नीचे छत्ते बनाने लगे. ददा ने बताया, जंगलों में जोंड़ला के फूल खिल गए हैं. मधुमक्खियां इस साल खूब शहद बनाएंगी. ईजा (मां) ने बचपन से ही मुझे जोंड़ला के पौधे दिखाए थे और कहती थी- ये हर साल नहीं खिलते, इनमें बारह साल बाद फूल खिलते हैं. जैसे बारह साल बाद कुंभ का मेला लगता है, वैसे ही इसके फूलों का कुंभ भी बारह साल बाद ही लगता है. (Neel Kurenji Blooming in Tehri Uttarkashi )

फोटो: शैलेन्द्र गोदियाल

नील कुरेंजी के उन नीले-बैंगनी फूलों की बहार मेरे मन के कैनवस पर अब भी बनी हुई है. वर्ष बीतते गए और धीरे-धीरे वनों में जोंड़ला के पौधे घटते गए. मुझे लगता है इसकी सबसे बड़ी वजह जंगलों की आग है जो जंगल के ना जाने कितने पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं को भस्म कर देती है. जंगलों में जितनी आग अब इफरात से लगती है, तब बहुत कम लगती थी. जगलों को आग से बचाने के बड़े कड़े नियम थे और वे सख्ती से लागू किए जाते थे. लोग असावधानी से जलती बीड़ी-सिगरेट जंगलों में फेंकने से डरते थे. कहते थे, जेल हो जाएगी. कहीं आग लगती थी तो उसे बुझाने में गांव के लोग जंगलात के कर्मचारियों का साथ देते थे. जंगलों में आग से सुरक्षा के लिए चौड़ी पत्तियों में सफाई की जाती थी. इस कारण आग अधिक नहीं फैलती थी. उस पर काबू कर लिया जाता था. लेकिन, अब तो गर्मियां आती हैं और जंगल धधकते रहते हैं. नील कुरेंजी की तरह वर्ष-दर-वर्ष हम न जाने कितने पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं को खोते चले जा रहे हैं. (Neel Kurenji Blooming in Tehri Uttarkashi )

उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में कई वनस्पति विज्ञानियों और वन अधिकारियों ने जान जोखिम में डाल कर भी हमारे देश के पेड़-पौधों के नमूने जमा किए और उनकी पहचान तय की. उन्हीं में से डेनमार्क के एक वनस्पति विज्ञानी थे नथानियल वालिच. वे 1808 में श्रीरामपुर बंगाल पहुंचे थे. उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी की और उसके बाद प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी विलियम रॉक्सबर्ग के सहायक बन गए. भारतीय वनस्पतियों में उनकी रूचि बढ़ती गई और वे पश्चिमी भारत, नेपाल तथा बर्मा में वनस्पति विज्ञान से संबंधित अभियानों में गए. वे 1837-38 में कलकत्ता मेडिकल कालेज में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर रहे. लेकिन, जोंड़ला से नथानियल वालिच का क्या मतलब? मतलब है, क्योंकि हमारे उत्तराखंड में पाए जाने वाले नील कुरेंजी का नाम है- स्ट्रोबाइलेंथीज वालिचीआई. इस पौधे का संग्रह पहली बार उन्होंने किया, इसलिए इसका नाम उनके नाम के आधार पर रखा गया. मुझे मां ने बचपन में इस पौधे का नाम जोंड़ला बताया था और अंग्रेज वन अधिकारी ए.ई.ओस्मास्टन ने लिखा है कि उत्तरी गढ़वाल डिवीजन में यह जिमला या जानू कहलाता है. साथी शैलेंद्र गोदियाल ने लिखा है कि उत्तरकाशी में यह अडगल कहलाता है. वे आगे लिखते हैं कि नील कुरेंजी के नीले-बैंगनी रंग के फूलों ने इन दिनों धरती का श्रंगार किया हुआ है. उत्तरकाशी वन प्रभाग, अपर यमुना वन प्रभाग व टौंस वन प्रभाग के अलावा टिहरी वन प्रभाग के जंगलों में सड़कों के किनारों से लेकर दूर जंगलों तक नील कुरेंजी अपनी आभा बिखेर रहा है.

फोटो: शैलेन्द्र गोदियाल

नीला कुरेंजी दक्षिण भारत में भी खूब खिलता है. जब खिलता है तो पूरे पहाड़ ऐसे लगते हैं जैसे उनमें नीले-बैंगनी रंग के गलीचे बिछा दिए गए हों. पूरी पर्वतमालाएं उसके नीले-बैंगनी फूलों से नीली दिखाई देने लगती थीं. इसीलिए नीलगिरि पर्वतमाला का नाम नीलगिरि पड़ गया. (Neel Kurenji Blooming in Tehri Uttarkashi )

नीला कुरेंजी प्राचीनकाल से ही दक्षिण भारत में उगता रहा है. पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में हर बारहवें साल इसकी नीली बहार आती है. नीला कुरेंजी की बहार देख कर तमिल कवियों ने सुंदर कविताएं रचीं. ‘तमिल संगम’ की तमाम प्राचीन कविताओं में नीला कुरेंजी का गुणगान किया गया है. उनमें एक राजा की प्रशंसा करते हुए यह लिखा गया है कि वह राजा उस राज्य में राज करता था, जहां नीला कुरेंजी का शहद खूब होता था! दक्षिण भारत के उस पर्वतीय प्रदेश को नीला कुरेंजी प्रदेश कहा जाता था. वहां के आदिवासी ‘मुरूगन’ देवता की पूजा करते थे. उनका मानना था कि जब मुरूगन ने आदिवासी वधू ‘वल्ली’ से विवाह रचाया तो उन्होंने नीला कुरेंजी की वरमाला पहनी थी. और हां, तमिलनाडु के वलपराई और केरल में मुन्नार के बीच की पहाड़ियों में ‘मुडुवर’ जनजाति के लोग रहते हैं. वे अपनी उम्र का हिसाब नीला कुरेंजी के खिलने से जोड़ते है. यानी, नीलाकुरेंजी जितनी बार खिला, उतनी उनकी उम्र!

 सन् 1836 में अंग्रेज वनस्पति विज्ञानी राबर्ट वाइट पलनी पर्वमाला में पहुंचा. वहां उसने इस नीले-बैंगनी फूल की बहार देखी तो चकित होकर देखता ही रह गया. उसने नीला कुरेंजी के बारे में लिखा. तब उस क्षेत्र से बाहर के लोगों को इस पौधे के बारे में पता चला. एक और वनस्पति विज्ञानी कैप्टन बेडोम ने भी सन् 1857 में कुरेंजी के बारे में काफी लिखा. कोडइकनाल के कैथोलिक पादरियों ने भी कुरेंजी के खिलने का रिकार्ड रखा. नीलगिरि की पहाड़ियों में सन् 1858 से नीला कुरेंजी के खिलने की पूरी जानकारी है. यह जानकारी वहां कोटागिरि में बसे कॉकबर्ने नामक निवासी की दादी ने स्थानीय कोटा और टोडा लोगों से पूछ-पूछ कर लिखी थी.

दोस्तो, अपनी बहार से पूरे पहाड़ों को किसी कैनवस की तरह नीले-बैंगनी रंग में रंग देने वाले इस झाड़ीदार पौधे का वैज्ञानिक नाम हैः स्ट्रोबाइलेंथीज कुंथियाना. इस पौधे के वंश में लगभग 200 जातियां पाई जाती हैं. इन सभी जातियों के पौधे एशिया में ही पाए जाते हैं. इनमें से करीब 150 जातियां भारत में पाई जाती हैं. पश्चिमी घाट, नीलगिरि और कोडइकनाल में करीब 30 जातियां उगती हैं. इस पौधे की कुछ जातियां हर साल खिलती हैं. लेकिन, कई जातियां कई साल के अंतर पर खिलती हैं. नीला कुरेंजी 12 साल में एक बार खिलता है.

वहां पहाड़ों में नीला कुरेंजी के पौधे करीब 30 से 60 से.मी. ऊंचे होते हैं. लेकिन, अनुकूल दशाओं में 180 से.मी. तक भी ऊंचे हो जाते हैं. चमकीले नीले-बैंगनी फूल घंटियों की तरह दिखाई देते हैं. बारह साल बाद जब ये खिलते हैं तो पहाड़ों, ढलानों और घाटियों में नीली बहार आ जाती है. केरल में इडुक्की जिले में अनाइमुडी की चोटी दक्षिण भारत की सबसे ऊंची चोटी है. उसके चारों ओर का क्षेत्र इराविकुलम कहलाता है. यह राष्ट्रीय पार्क है और नीला कुरेंजी का संरक्षित क्षेत्र है. उसी जिले के देवीकुलम तालुके में 32 कि.मी. क्षेत्र में कुरेंजीमाला संरक्षित क्षेत्र बनाया गया है. (Neel Kurenji Blooming in Tehri Uttarkashi )

लेकिन, पिछले 100 वर्षों में दक्षिण भारत की पहाड़ियों पर यह मनोहारी नीला रंग धीरे-धीरे घट गया है. नीला कुरेंजी के पौधे कम हो गए हैं. जानते हैं, क्यों? क्योंकि वहां जंगलों को काट कर चाय बागान बनाए गए, इलायची की खेती की गई. अनजाने पेड़ लगाए गए जैसे युकिलिप्टिस, अकेसिया. ऊपर से जंगल की आग. उसने उत्तराखंड की तरह वहां भी नीला कुरेंजी के पौधों को बुरी तरह जलाया.

दक्षिण भारत में नीला कुरेंजी को बचाने के लिए अब कई तरह के प्रयास किए जा रहे हैं. ‘कुरेंजी बचाओ’ अभियान शुरू किया गया है. कुछ वर्ष पहले बैंक में काम करने वाले राजकुमार ने तिरूअनंतपुरम में ‘कुरिंजी बचाओ अभियान परिषद्’ बनाई. ‘कुरेंजी बचाओ’ अभियान में वन और वन्य जीव विभाग, पर्यटन विभाग, गैर सरकारी संस्थाओं के साथ ही आम लोगों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया. वे लोग हर साल कोडइकनाल से मुन्नार तक की पैदल यात्रा करते हैं. वहां नीला कुरेंजी की रक्षा के लिए जंगलों की आग को रोकने के प्रयास किए जा रहे हैं. कोडइकनाल की पहाड़ियों में इसके और अधिक पौधे लगाने की योजना को भी अंजाम दिया जा रहा है.

पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सन् 2006 में केरल में ‘नीला कुरेंजी उत्सव’ मनाया गया. इसमें केरल सरकार के पर्यटन विभाग, वन और वन्य जीव विभाग तथा कई अन्य विभागों ने भाग लिया. पुडिचेरी के सालिम अली इकोलॉजी स्कूल में नीला कुरेंजी पर वैज्ञानिक खोज रहे हैं. वहां इस प्यारे और निराले नीले-बैंगनी फूल की ओर सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए केंद्रीय संचार तथा सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री दयानिधि मारन ने 29 मई 2006 को एक विशेष डाक टिकट जारी किया. यह डाक टिकट ‘जानिए भारतीय डाक टिकटों के जरिए प्रकृति के रहस्य’ योजना के तहत जारी किया गया.

नील कुरेंजी को बचाने के लिए दक्षिण भारत में इतना कुछ और हमारे उत्तराखंड में इसकी कोई फिक्र ही नहीं! चलिए, हम भी अपनी इस खोई हुई बहार को वापस लाने के लिए कुछ कोशिश करें. हमारे पहाड़ों को भी हमारा जोंड़ला यानी जिमला किसी खूबसूरत कैनवस की तरह नीले-बैंगनी रंग में रंग सकता है. ऐसा हो जाएगा तो हजारों लोग इसकी बहार देखने के लिए आएंगे.

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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