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प्रकृति व महामाया का पर्व नवरात्रि

प्रकृति शब्द में तीन अक्षर हैं जिनमें ‘प्र’ अक्षर पहले से आकर्षित प्राकृष्ट सत्वगुण, ‘कृ’ अक्षर रजोगुण एवं ‘ति’ तमोगुण का प्रतीक है. इन तीनों अक्षरों से मिल कर बना शब्द ‘प्रकृति’ जिसका रूप त्रिगुणात्मिका है. ‘प्र’ अक्षर जहाँ प्राकृष्ट है तो ‘कृति’ अक्षर सृष्टि का वाचक. अभिप्राय यह कि जो सृष्टि प्रक्रिया में प्राकृष्ट है वह ही प्रकृति है.
(Navratri 2024)

प्रकृति पुरुषात्मकं जगत!

सृष्टि की रचना के पौराणिक आख्यानों का सार शक्ति के दो स्वरुप वर्णित करता है. जिसका दक्षिणार्थ पुरुष एवं वामार्थ प्रकृति कहा गया. इसे ब्रह्मस्वरूपा कहा गया पुरुष एवं प्रकृति के स्वरुप की शक्ति अभिन्न है, एक दूसरे की पूरक. सृष्टि रचना में दोनों की क्षमता समान है.संयोगवश जीव उत्पत्ति की प्रक्रिया संपन्न हुई. सृजन की इस परम्परा में पुराण यह विवेचना करते हैं कि शिव ने आद्यशक्ति के साथ अर्धनारीश्वर रूप धारण किया.

प्रकृति-पुरुष के संसर्ग से प्राणी श्रृंखला रची गई. इसमें देवी को प्रधान अधिमान दिया गया क्योंकि देवी ने स्त्री रूप में जीवन सक्षम बनान अर्थात पोषणीय क्षमता को ग्रहण कर प्रकृति के रचना चक्र को विस्तार दिया. वही शक्ति स्वरूपा है. उनके अष्टोत्तरशत नाम हैं. किसी प्रकार के विग्रह या मूर्ति स्वरुप में ब्रह्मादिक सहित समस्त देव, ऋषि, मुनि, सिद्ध व भक्त उन्हें आराध्य समझते हैं. उनकी उपासना की जाती है. विधि विधान से पूजा उपासना संपन्न होने का विधान है. प्रकृति को सबकी अधिष्ठात्रि देवि, सनातनी व शिवरूपा कहा जाता है.जन्म मृत्यु पर उस का ही नियंत्रण है. प्रकृति-पुरुष के संसर्ग से प्राण संचार उसी की कृपा से होते हैं. जड़ का चेतन में रूपांतरण भी मात्र उसी शक्ति से सम्भव बनता है.

लोक प्रचलित संकल्पनाएं हैं कि पंच तत्वों पर आधारित प्राणियों की पृथ्वी तथा सौर मण्डल स्थित ग्रहों द्वारा उत्पत्ति एवं संचालन होता है. सौर ग्रहों व पृथ्वी की क्रिया से उत्पन्न होने वाले तत्व वायु, जल, पावक, ऊष्मा इत्यादि से धरा का जीवन संचालित है. सौर मण्डल की क्रिया सनातन है. सूर्य प्रतिदिन उदय होता है, अस्त होता है. सभी ग्रह इसी तरह अपनी गति से क्रिया में संलग्न हैं. यही सनातन है.

मानव ने सनातन का अनुसरण कर सूर्य, चंद्र, तारा मण्डल, वरुण, धरा का गहन अध्ययन कर प्रकृति चक्र की विधा निर्धारित की. ज्ञान-विज्ञान से नवप्रवर्तन संभव हुए. प्रकृति के अनुरूप आचरण करना ही सनातन का अनुपालन सूत्र बना . सनातन के अनुसार वेद पुराणों की रचना हुई. वहीं क्रिया से हुई प्रतिक्रिया के अधीन सनातन धर्म के प्रसार और वृद्धि के साथ ही मानव प्रकृति में परिवर्तन हुए. उपजे द्वन्द से वैचारिक मतभेद उत्पन्न हुए. दो प्रकार की संस्कृति पनपी. सनातन के विपरीत विचार की रक्त संस्कृति वाले असुर कहे गये.

वैदिक संस्कृति के अनुयायी देवगणों के समर्थक रहे. पृथ्वी के मूल तत्व अमृत को पाने के लिए समुद्र मंथन की कथा इसी संघर्ष की कड़ी है. तदन्तर पृथ्वी पर अवतरित दिव्य विभूतियों द्वारा असुर संहार सनातन के पथ को प्रशस्थ करने के आख्यान सामने आए.सनातन के अनुयायी प्रकृति की उपासना में मातृ स्वरुप की सर्वोपरि संकल्पना पर आश्रित हो पूजन संपन्न करते हैं.

आदि शक्ति का प्रतीक दुर्गा है जिनकी उपासना चैत या बसंत ऋतु एवम् शरद ऋतु में नवरात्र अवधि में होती है. दुर्गा सप्तशती (अध्याय बारह ) व देवी भागवत पुराण तृतीय स्कन्ध में शारदीय नवरात्र का विशेष महत्त्व है. दोनों ही ऋतुओं को प्राणियों हेतु यम दृष्टा माना जाता है अतः रोग उत्पन्न करने वाले विकारों को समाप्त करने के लिए यम-नियम, उपवास व संतुलित आहार के योग के साथ माता की स्तुति व पूजा के विधान हैं.
(Navratri 2024)

नवरात्र में व्रत के साथ कन्या पूजन किया जाता है. नवरात्र की पूर्व संध्या अर्थात कृष्ण अमावस को पूजन की सामग्री जुटा पूजा स्थल की साफ सफाई की जाती है. ग्रामीण अंचलों में पूजन स्थल को गोबर मिट्टी से लीपने की परम्परा प्रचलित रही है. पूजन स्थल में पूर्व दिशा की ओर मंडप व वेदी बना कर उस पर यथा स्थान ऐपण डाले जाते हैं. रंग रंगोली से कलात्मक बना तोरण लटकाए जाते हैं. शुक्ल प्रतिपदा को स्नान- ध्यान कर मधुपर्क अर्घ्य अर्पित किया जाता है. देवी की पूजा का संकल्प लिया जाता है जिसके क्रम में स्वस्तिवाचन, गणेश पूजन, कलश स्थापना, पूर्वांक पच्चाङ्ग, आबदेव वेदी आदि अपनी परंपराओं व विधान के अनुसार देवी की स्तुति व पाठ किये जाते हैं जो क्रमवार नौ दिनों तक होते हैं. पूजा स्तुति, कथा, आरती नित्य संपन्न होती है. नवें दिन हवन संपन्न कर कन्या कुमारी पूजन किया जाता है.

कुमारी पूजन में एक वर्ष तक तथा दस वर्ष से अधिक वय की कन्या को छोड़  दो वर्ष से नौ वर्ष की कन्या को पूजनीय माना जाता है जिन्हें स्वच्छ स्थान पर हाथ -पाँव धो आसन पर बैठा अभिषेक किया जाता है. पूजन के बाद उनकी आरती सम्पन्न कर वस्त्र, भेंट से संतुष्ट किया जाता है. वय के क्रम में कन्याओँ को देवी के विविध स्वरुप में पूजने की परंपरा प्रचलित रही है, यथा :

1. कुमारी रूप -दो वर्ष -दुख दरिद्रता, शत्रु नाश.
2. त्रिमूर्ति रूप -तीन वर्ष -धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्ति
3. कल्याणी रूप -कामना, विद्या, संतोष
4. रोहिणी रूप -वैभव, परिवार सुख
5. कालिका रूप -भय हरण, शत्रु नाश
6. चंडिका रूप -ऐश्वर्य अभिलाषा
7. शाम्भवी रूप -विजय
8. दुर्गा रूप -कर्म, साधना
9.सुभद्रा रूप -मनोरथ पूर्ण कारी

श्रीरस्तु के साथ भगवती के बीज मंत्र से पूजा सम्पन्न की जाती है.

“सुभद्राणि च भक्तानां कुरुवे पूजिता सदा
अभद्र नाशनी देवी सुभद्रां  पूजिताम्बहम “

अर्थात जो पूजित होने पर भक्तों का कल्याण करती है उस अमंगल नाशनी भगवती रूप सुभद्रा की मैं आराधना करता हूँ.
(Navratri 2024)

इस प्रकार नौ कुमारी पूजन व नवरात्र उपवास से अष्टसिद्धि नवनिधि की कामना की जाती है. देवी उपासना में दिवस विशेष की पूजा के अर्पण के विधान प्रचलित हैं, जैसे :

शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा – घी का अर्पण व दान – निरोग रहने हेतु.
शुक्ल पक्ष की द्वितीया – शक्कर – दीर्घायु.
शुक्ल पक्ष की तृतीया – दुग्ध – संकट नाशक.
शुक्ल पक्ष की चतुर्थी – पूआ – विघ्न हर्ता.
शुक्ल पंचमी – केला – भक्ति व बुद्धि.
शुक्ल शष्ठी – मधु – यश.
शुक्ल सप्तमी – गुड़ – शोक मुक्ति.
शुक्ल अष्टमी – नारियल -संताप निवारण.
शुक्ल नवमी -लावा – परलोक सुख कामना.
शुक्ल दशमी – काले तिल – यमलोक से मुक्ति.
एकादशी – दही – भगवती की कृपा.
द्वादशी – च्यूड़ – भगवती की कृपा.
त्रियोदशी – चना -संतति सुख .
चतुर्दशी -सत्तू -शिव कृपा.
पूर्णिमा -खीर -पितरों का उद्धार.

कृष्ण पक्ष में अमावस को पूजन आरम्भ नहीं करते. कृष्णपक्ष के रविवार को खीर, सोमवार को दूध, मंगल को केला, बुद्ध को मक्ख़न, बृहस्पति व शुक्रवार को शर्करा व शनिवार को गाय का घी अर्पित किया जाता है. इन दिवसों में किये हवन में हवि के रूप में भी इनका प्रयोग होता है.

देवी पूजन में पक्ष व माह अनुसार भिन्न नैवेद्य व हवि अर्पित किये जाते हैं जैसे सामान्यत : चैत में महुवे के पुष्प, बैशाख में गुड़ मिश्रित पदार्थ, जेठ में मधु, आषाड़ में नवनीत व महुवा के पदार्थ, सावन में दही, भादों में शर्करा, असोज में खीर, कार्तिक में दूध व दुग्ध पदार्थ, मार्गशीर्ष में फेनी, पूस में लस्सी, माघ में गाय का घी, फागुन में नारियल के अर्पण की परंपरा है. माँ भगवती सर्वत्र व्याप्त हैं परमात्मा की शक्ति हैं. वह ही सृष्टि हैं.

‘ब्रह्मस्वरुपिणी’ अर्थात ब्रह्म स्वरूप हैं. उनसे ही प्रकृति पुरुषात्मक सद्रुप जगत उत्पन्न हुआ. देवी कहती हैं, “मैं आनंद और आनंद रूपा हूँ. मैं विज्ञान और अविज्ञान रूपा हूँ. अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ. यह सारा दृश्य जगत भी मैं ही हूँ. विद्या और अविद्या भी मैं, प्रकृति और उससे भिन्न भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ”. ये श्री महाविद्या हैं :

कामो योनि: कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्र :
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरु च्येषा विश्वमातादिविद्योम”.

यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूल विद्या है और वह ब्रह्मरुपिणी है. इसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते -इसलिए जिसे अज्ञेया कहते हैं, जिसका अंत नहीं मिलता – इसलिए जिसे अनंता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दीख नहीं पड़ता – इसलिए जिसे अलक्ष्या कहते हैं, जिसका जन्म समझ मैं नहीं आता – इसलिए जिसे अजा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र है – इसलिए जिसे एका कहते हैं, जो अकेली ही विश्व रूप में सजी हुई है – इसलिए जिसे नैका कहते हैं, वह इसीलिए अज्ञेया, अनंता, अलक्ष्या, अजा, एका और नैका कहलाती है.

सब मंत्रो में ‘मातृका’ – मूलाक्षररूप से रहने वाली, शब्दों में ज्ञान रूप से रहने वाली, ज्ञानोंमें चिन्मयातीता, शून्योँमें ‘शून्यसाक्षिणी’ और जिनसे कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है वे दुर्गाके नाम से प्रसिद्ध हैं. व्यापक इन्द्रियों से सब देशों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली ये रात्रि रूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत के जीवों के शुभाशुभ कर्मों को विशेष रूप से देखतीं हैं और उनके अनुरूप प्रतिफल की व्यवस्था करने के लिए समस्त विभूतियों को धारण करतीं हैं. ये देवी अमर हैं, सबमें स्थित हैं, ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञान अंधकार का नाश कर देती हैं.

हे देवी! वासना और पाप को हमसे अलग करो. काम को दूर हटाओ -मोक्षदायिनी और कल्याणकारी बन जाओ. ज्ञान दे कर अज्ञान को दूर कर दो.

प्रथमं शैलपुत्री च
द्वितीयं ब्रह्मचारिणी.


तृतीयं चंद्रघण्टेति
कूष्माण्डेति चतुर्थकम.
पञ्चमं स्कन्द मातेति
षष्ठँ कात्यायनीति च.
सप्तमं कालरात्रिति
महागौरीति चाष्टमम्.

मैं तुम्हारे समीप आ तुम्हारी स्तुति कर तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ.

ॐ जयंती मंङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते.

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

इसे भी पढ़ें : ब्रह्माण्ड एवं विज्ञान : गिरीश चंद्र जोशी

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