पार्श्वगायक मुकेश ने हिंदी सिनेमा को एक-से-एक नायाब नगमे दिए. उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड तो कई मिले (चार बार), लेकिन राष्ट्रीय अवार्ड हासिल नहीं हुआ. एकमात्र राष्ट्रीय अवार्ड जो उनके हिस्से आया, वो है, ‘रजनीगंधा’ का ‘कई बार यूँ ही देखा है…’ इस गीत के लिए उन्हें नेशनल अवॉर्ड मिला, जो उन्हें जीवन के आखिरी पड़ाव पर हासिल हुआ. गीत लिखा था, गीतकार योगेश ने. इस गीत को सुमधुर संगीत दिया था, सलिल चौधरी ने. गीत की गहराई को देखकर महसूस होता है, मानो मात्र इकतीस वर्ष के योगेश ने गीत में कलेजा उतारकर रख दिया हो. गीत यथार्थवादी होने के साथ-साथ परंपराभंजक भी था. मानो उन्होंने उस दौर के मिडिल क्लास के अंतर्द्वंद्व को नगमे में उतारकर रख दिया हो. गीत में विशुद्ध रूप से नायिका का अंतर्द्वंद्व उभरकर सामने आता है. उसके सामने एकसाथ दो विकल्प मौजूद हैं. वह चयन को लेकर असमंजस में रहती है. गीत मानो उसकी मनोदशा का स्वीकरण हो, विशुद्ध रूप से उसकी भावनाओं का उद्गार हो.
यह गीत, विद्या सिन्हा और दिनेश ठाकुर पर फिल्माया गया. बंबई की सड़कों पर टैक्सी में सवार नायक- नायिका. मर्यादा से बँधे हुए. मनोदशा भिन्न सी. गीत में दार्शनिकता है, सुमधुर संगीत के साथ गहराई भी है, जो श्रोताओं को अद्भुत अनुभव के साथ स्पंदित करता है. गीत एक अनजानी सी मिठास से भरा हुआ है.
कई बार यूं ही देखा है
ये जो मन की सीमा रेखा है
मन तोड़ने लगता हैअन्जानी प्यास के पीछे
अन्जानी आस के पीछे
मन दौड़ने लगता हैराहों में, राहों में, जीवन की राहों में
जो खिले हैं फूल फूल मुस्कुराके
कौन सा फूल चुराके, रख लूं मन में सजाके
कई बार यूं ही देखा है…जानूँ न, जानूँ न, उलझन ये जानूँ न
सुलझाऊं कैसे कुछ समझ न पाऊं
किसको मीत बनाऊँ, किसकी प्रीत भुलाऊँ
कई बार यूं ही देखा है…
हरिभाई (संजीव कुमार) की योगेश से अच्छी-खासी दोस्ती थी. जब कभी योगेश, उनके अविवाहित स्टेटस को लेकर उनसे मजाक करते, तो हरिभाई इस परिणति के लिए योगेश को ही जिम्मेदार ठहराते थे. वे इस गीत का हवाला देकर अपना बचाव कर डालते. योगेश भाई तुमने ही तो लिखा है “कौन सा फूल चुराके, रख लूँ मन में सजाके…”
मजे की बात यह है कि, फिल्म रजनीगंधा (1974,) मन्नू भंडारी की कहानी, ‘यही सच है’ पर आधारित फिल्म थी. विशुद्ध साहित्य पर बनी फिल्में, स्क्रीन पर भी सफल हों, ऐसे उदाहरण देखने को दुर्लभ होते हैं. फिल्म रजनीगंधा इसका अपवाद रही. शहरी मध्यवर्ग के अंतर्विरोधों को लेकर बनी यह फिल्म, दर्शकों को अपने आसपास की सी फिल्म लगी. यह अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा की डेब्यू फिल्म थी. उस दौर के दर्शकों ने इसे हाथों-हाथ लिया.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…