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मानवीय चेतना को गहराई तक छू जाने वाली फिल्म ‘कथा’

फिल्म ‘कथा’ (1982) का बैकड्राप, खरगोश-कछुए की कथा पर आधारित है. बदलते हुए परिवेश में, परिवर्तित होते नैतिक मूल्यों को फिल्म में प्रतीकात्मक ढंग से दिखाया गया है.

राजाराम (नसीरुद्दीन शाह) एक परिश्रमी क्लर्क है. वह दफ्तर में पूरे मन से काम करता है. आस-पड़ोस में निःस्वार्थ भाव से सबकी मदद करता है. वह फिजूलखर्ची से बचता है. बस स्टॉप पर स्वयं ‘क्यू’ में लगता है, औरों से भी वैसी ही अपेक्षा रखता है. रेडियो पर रक्तदान की अपील सुनकर, वह टैक्सी बुक करके हॉस्पिटल की तरफ निकल पड़ता है. वह उदार प्रकृति का, हद दर्जे का नेक आदमी है, आदमीयत का सच्चा प्रतिनिधि. वह संध्या सबनिस (दीप्ति नवल) के प्रति सरल-तरल सा स्नेह रखता है, लेकिन अपने को व्यक्त नहीं कर पाता. वह सदैव मर्यादा में रहता है. उसके पिता का नाम पुरुषोत्तम जोशी है. राजाराम नाम रखने के पीछे सिनेकार के मन में अवश्य ही मर्यादा पुरुषोत्तम का विचार रहा होगा.

दूसरी तरफ उसका दोस्त वासु (फारुख शेख) चाल में उसके साथ रहने को आता है. वह चतुर है, बातों का अंबार लगाना जानता है. चालबाजियाँ करता है और मायाजाल फैलाता है. वह छल-छद्म से किसी किस्म का परहेज नहीं रखता. फिल्म में वासुदेव खरगोश का प्रतीक है.

बच्चा, दादी (लीला मिश्रा) से कहानी सुनने की जिद करता है, कछुआ-खरगोश की कहानी. दादी कहानी सुनाती है, तो कहानी के निष्कर्ष पर बच्चा आपत्ति दर्ज करता है, “ये कहानी तो गलत है. हमेशा कछुआ जीतता है.“

अबोध बालक के मन में नैतिक मूल्यों के प्रति अभी भी विश्वास बना हुआ है. नैतिक मूल्यों में आई गिरावट पर चिंता जाहिर करते हुए दादी कहती है, “अब खरगोश ही जीतता है. सच्चाई का वो जमाना अब कहाँ रहा.“

राजाराम चाल की सीढ़ियाँ चढ़ रहा होता है. दादी उसे आवाज देती है, “आज जल्दी आ गए राजाराम.”

वह बड़प्पन के साथ बताता है, “हाँ दादी अम्मा, आज मैं स्टेशन से ही टैक्सी से आया हूँ.“ फिर बड़े उल्लास के स्वर में बताता है, “आज मैं परमानेंट हो गया हूँ.“ वह इतना खुश है कि, सारे जहाँ के साथ इस खुशी को बाँटना चाहता है. यहाँ तक कि, पिंजरे में बंद तोते से भी हल्के से कहता है, “परमानेंट.”

बापू, चलने-फिरने में लाचार है और उसी चाल में रहता है. वह मदद के लिए अक्सर घंटी बजाता रहता है, कॉलबेल नहीं, पूजा वाली घंटी. राजाराम खुशखबरी सुनाने को उसके कमरे पर जा पहुँचता है और  खबर सुनाने को उत्सुक सा दिखता है. तभी बापू कहता है, “राजाराम फैन जरा ऑन करना.“ राजाराम जैसे ही अपनी खुशी बाँटना चाहता है, तभी बापू पानी माँगने लगता है.

पुणे की सालुंके चाल में रोजमर्रा का चित्रण बड़ी खूबसूरती के साथ हुआ है. परमानेंट होने के बाद, अब हेडक्लर्क बनना उसका सपना है. वह दीवार पर माँ-बाबा की टँगी हुई तस्वीर को भी खुशखबरी सुनाता है- “परमानेंट हो गया हूँ.

सीधा-सरल जीवन जीने वाले राजाराम का एक बहुत बड़ा सपना है. निम्न मध्यवर्गीय जीवन का साकार होता सपना. उसके मन में नेमप्लेट लगाने की हसरत लंबे समय से बनी हुई थी. आज वह नेमप्लेट बनवाकर लाता है. संध्या उसे राजाराम ‘जी’ कहती है, तो वह मनुहार करते हुए कहता है, “आप ‘जी’ मत बोला करिए.“ इस पर संध्या लापरवाही से कहती है, “आपकी तो पर्सनैलिटी में ही ‘जी’ है.“

संध्या नेमप्लेट पढ़ती है- ‘राजाराम पु. जोशी.‘

इस पर  संशोधन करते हुए राजाराम कहता है, “पुरुषोत्तम जोशी.“

“तो फिर इसमें क्यों नहीं लिखवाया.“

“फिट नहीं हुआ.“

“साहब की भाषा में क्यों नहीं लिखवाया.“ के सवाल पर वह चिढ़कर कहता है, “साहब की भाषा में क्यों?”

इस पर संध्या जमाने में बह रही हवा के मुताबिक कहती है, “साहब की भाषा में रोब है, रूआब है.“

राजाराम हथियार डालते हुए कहता है, “वो तो अपने में ही नहीं है, तख्ती में कैसे आएगा.“

परमानेंट होने की खुशी में राजाराम अपने दबे हुए मनोभावों को संध्या से साझा करना चाहता है. कॉमनमैन ऐसे कई संकल्प साधे रहते हैं, “जब परमानेंट हो जाऊँ, तब मन की बात रखूँगा.‘ ‘अपने पैरों पर खड़े होने से पहले, मुझे ऐसी बात कहने का कोई अधिकार नहीं.‘

इस मौके पर भी वह अपनी कोमल भावनाएँ व्यक्त नहीं कर पाता. नाकाम रहता है. फिर इतने में ही संतोष कर लेता है, “कितनी खुशी की बात है, तुम्हारे हाथों इस बोर्ड का उद्घाटन हो रहा है.“

अकस्मात वासु की चाल में एंट्री होती है. वह संध्या को राजाराम के कमरे में देखता है और देखते ही टिप्पणी करता है, “कीचड़ में कमल.“ उसके हाव-भाव, इरादे इतने में ही दर्शकों की समझ में आ जाते हैं. लंबे अरसे के बाद मुलाकात पर राजाराम उस पर बिफर पड़ता है, “जब से तू बारहवीं में फेल हुआ, तेरी शक्ल नहीं देखी.“

वासु के इरादे नेक हैं. वह बंबई पर फिर से छा जाना चाहता है. वह राजाराम को तीन सौ रुपए में साथ रहने की पेशकश करता है, तो राजाराम को आघात सा लगता है, “दोस्त से मैं पैसे लूँगा. तुमने सोच कैसे लिया.“ काफी मान-मनौव्वल के बाद वह मान जाता है. यही नहीं, दिवास्वप्न देखते हुए इन तीन सौ रुपयों की उज्ज्वल संभावनाएं भी देख लेता है. उसके सपने में सीधे गाँव का दृश्य दिखाई पड़ता है, पिताजी पोस्टमैन से मनीऑर्डर छुड़ाते हैं, पूरे तीन सौ रुपये. राजाराम ने मनीआर्डर में लिखा है, ‘आप लोग कोई अच्छी सी चीज ले लेना.‘ पिता माँ से साड़ी खरीदने को कहते हैं. इस पर माँ कहती है, ‘मेरे पास साड़ियाँ हैं, दो हैं. बहुत दिनों से तमन्ना थी, एक और बछिया ले आती.‘ बड़ा ही भावप्रवण दृश्य है. गाय के रंभाने की आवाज से उसका दिवास्वप्न टूट जाता है. वासु पूछता है, “तुम कहाँ थे.“ राजाराम कहता है, “मैं तो अपने गाँव वई पहुँच गया था. माँ-बाबा को देखा. दोनों बड़े खुश थे.”

वासु चाय माँगता है, तो राजाराम कहता है, दूध नहीं है. इस पर वासु कहता है, “अरेंज करो.“ राजाराम दो- तीन घरों में दूध माँगने जाता है. अभाव अथवा संकोच के कारण वह दूध नहीं माँग पाता.

इधर उसके कमरे में आस-पड़ोस के लोग, वासु को खिड़की से झाँकते हैं. झाँकने वाले एक माँ और उसका बच्चा है. बच्चे पर वासु का कृत्रिम प्रेम उमड़ आता है- “इतना प्यारा सा सुंदर सा बच्चा आपका है. बिल्कुल माँ पर गया है.“ लब्बोलुआब यह है कि, वह चाय की भूमिका बना लेता है.

उधर राजाराम चौथे घर में अर्थात् बापू के घर जा पहुँचता है. वह बापू से कहता है, “बापू दूध चाहिए था.“ बापू पहले तो उससे आई ड्रॉप डलवाता है. ‘एक- एक बूंद करके डालना’ का निर्देश भी दे जाता है. फिर फैन ऑफ करवाता है. रेडियो स्टेशन पर विविध भारती सेट करवाता है. ‘भॉल्यूम’ बढ़ाने को कहता है. पोस्टकार्ड लिखवाता है. चूरन की शीशी उठवाता है. जैसे-तैसे राजाराम, दूध लेकर कमरे में पहुँचता है, तो वासु से कहता है, “दूध तो ले आया, पर बापू पूरी मजदूरी करवा लेता है.“ इस पर वासु कहता है, “चाय आ जाएगी. क्यों इतनी तकलीफ की.“ जाहिर सी बात है कि, खिड़की से झाँकने वालों से उसने चाय का बंदोबस्त करवा लिया है.

दोनों दोस्त किसी रेस्तराँ में पहुँचते हैं. राजाराम संकोच से गड़ा रहता है. कहता है- “फिजूलखर्ची होगी.“ वह नॉन वेजिटेरियन है, तब भी वह सकुचाते हुए, अंडा-करी का ऑर्डर दे देता है. तो वासु, वेटर को लंबा-चौड़ा ऑर्डर नोट कराता है. राजाराम के यह पूछने पर, कितने साल क्या किया, बातें चल निकलती है. यह दृश्य वासु के मिथ्याभाषण की बानगी दिखा जाता है. यह कंट्रास्ट उसके चरित्र को उभारने में पर्याप्त सहायक सिद्ध होता है. वासु कहता है, “मैं फाइव स्टार होटल में रिसेप्शन अफसर था.“ उधर असल दृश्य में, वह कस्टमर्स के लगेज को कैरी करता हुआ दिखाई देता है. बख्शीश पाता है. पोर्टर,कुली के ओहदे को काफी हद तक महिमामंडित कर जाता है.

“फिर फिल्म यूनिट में काम किया, डायरेक्शन डिपार्टमेंट में.“ परिदृश्य में वह शॉट पर फ्लैप देने का काम करता हुआ दिखाई पड़ता है, जिसमें लापरवाही बरतने पर उसे नौकरी से ‘फायर’ कर दिया जाता है, लेकिन वह प्रत्यक्ष में राजाराम से कहता है कि उसने खुद नौकरी छोड़ दी. “तत्पश्चात् एडवरटाइजिंग एंड पब्लिसिटी में काम किया.“ दृश्य में वह चौराहे पर मजमा लगाकर बाल उगाने का तेल बेचता हुआ दिखाई पड़ता है.

राजाराम उसका हितेषी है, मित्र है, इसलिए उसका भला चाहता है. वह फिर उससे कहता है, ‘बीए कर लो.‘

वासु राजाराम से उसके बॉस की उपयोगी डीटेल्स हासिल कर लेता है. इस संवाद से दोनों के मूल चरित्र का अंतर पता चल जाता है. वासु कहता है, “इसका मतलब तुम्हारे बॉस बुद्धू है.“ इस पर राजाराम कहता है, “बुद्धू नहीं हैं. भरोसा करते हैं. गोल्फ में ध्यान जरा ज्यादा रहता है.“

बिल भरने के मौके पर वासु हमेशा की तरह कहता है कि, वह बटुआ भूल आया है और राजाराम से चालीस रुपये ले लेता है. वह काउंटर पर जाकर रेस्तरां का फोन इस्तेमाल करता है. फोन पर बड़ी-बड़ी बातें करके वह मैनेजर पर प्रभाव जमा लेता है. परोक्ष रूप से वह भविष्य में होने वाले बिजनेस का प्रलोभन देकर बिल को ऑब्लिगेटरी खाते में डलवा देता है. राजाराम इस सारे क्रियाकलाप का प्रत्यक्षदर्शी बना रहता है. वह अवाक् सा दिखता है.

चाल में आम जनजीवन के की शुरुआत कैसी होती है, बहुत सुंदर तरीके से दिखाया गया है. नल में पानी नहीं आता, आवाज आती है. उसकी सीटी की आवाज से चाल के रहवासियों की आँखें खुलती है. नल से बूँद-बूँद पानी टपकता है, तो उल्टी टोंटी से भी पानी आता है. छोटे बर्तन से लेकर ड्रम तक पानी भरने की जद्दोजहद पानी की राशनिंग को बखूबी दर्शा जाती है. जैसा कि, राजाराम रोज करता है, वह वासु को बेड टी देता है. इस पर वासु मुँह बनाते हुए कहता है, “चाय तुम बहुत स्ट्रांग बनाते हो, एकदम देसी.“ अलमारी में वह उसके नए जूते देखता है, तो राजाराम राज फाश करते हुए कहता है, “कंपनी की तरफ से आधे दाम पर मिल जाते हैं. उसमें भी बीस परसेंट डिस्काउंट मिल जाता है. किसी को पता नहीं चलता कि माल थोड़ा डिफेक्टिव

है.“ इतना ही नहीं, वह अतिरिक्त सूचना देते हुए बताता है कि, वह जन्मदिन पर इंपोर्टेड सिगरेट खरीदता है.

दफ्तर में बॉस के जाते ही अफरा-तफरी मची रहती है. हो-हल्ला का माहौल सा दिखता है. राजाराम अपने काम में जुटा रहता है. तभी एक महिला सहकर्मी, जो राजाराम पर अनुरक्त सी दिखती है, ‘म्याऊं’ कहकर उसका ध्यानाकर्षण करती है. वह राजाराम पर सारा-का-सारा स्नेह उड़ेलते हुए कहती है, “इतना ज्यादा काम क्यों करते हो.“

इस पर राजाराम खीझकर कहता है, “आप कम काम क्यों करती हैं, मैंने पूछा कभी.“

वह उमंग में आकर कहती है, “काश! कभी पूछते.“

राजाराम खुद का काम तो करता ही है, वह अन्य सहकर्मियों के पेंडिंग काम भी लंच टाइम में निपटाता रहता है. वह सहृदय इंसान है. एकनिष्ठ है. संध्या के बालों से गिरे हुए फूल को डायरी में सहेजकर रखता है. दरअसल वह एक मूक प्रेमी है. वह सतर्कता से डायरी से गुड़हल के उस फूल को, जो अब पूरा सूख चुका है, चुपके से देखकर निहाल हो उठता है.

सार्वजनिक यातायात का साधन बेस्ट की बस दिखाई जाती है. इस भीड़-भाड़ में अक्सर राजाराम की बस छूट जाती है. वह खीझ उठता है, सारा-का-सारा रोष निकालता है. भीड़-मनोवृत्ति पर लानत भेजता है, “धक्का देकर आगे निकल जाते हैं. मैं आधे घंटे से खड़ा हूँ और माताजी मुझसे भी पहले से खड़ी हैं.“  “इंसानियत की कोई कदर ही नहीं है, कोई सिविक सेंस नहीं है.“ जैसे जुमले बोलता है. इतना ही नहीं, वह आने वाली बस के लिए बस स्टॉप पर खड़े लोगों की लाइन लगाता है और उन्हें लाइन में खड़ा करने की कोशिश करता है. दूसरी बस आती है और चली जाती है. राजाराम और माताजी फिर से छूट जाते हैं. इस पर माताजी कहती हैं, “गधों को मार-मारकर घोड़ा कैसे बनाओगे.“ यहाँ पर राजाराम फिर से नागरिक- बोध का गहन संदेश दे जाता है.

उधर चाल में वासु मजमा लगाए रहता है. वह पड़ोसियों को स्तरहीन लतीफे सुनाता है. सब-के-सब हंसी-ठठ्ठा करते हैं. चाय पीते हुए राजाराम उससे पूछता है, “बड़े ठहाके लग रहे थे, किस बात पर.“ इस पर वासु कहता है, “तुम्हारे लिए नहीं है.“

बापू फिर से अलार्म बजाता है, तो वासु कहता है, इनके कोई रिश्तेदार नहीं. इस पर राजाराम कहता है, चाल में सभी रिश्तेदार ही तो होते हैं. इस पर वासु उस पर तंज कसता है, “तुम्हारा रिश्ता कुछ ज्यादा ही गहरा मालूम होता है.“ थोड़ी देर में राजाराम बापू के यहाँ से लौटकर बताता है, “क्रॉसवर्ड में एक लफ्ज़ नहीं मिल रहा था, इसलिए बुलाया था.“

वासु उसकी अलमारी में कपड़े ढूँढता है. वह उसके वस्त्र-चयन पर अरुचि दर्शाता है, “क्या कपड़ें पहनता है, ये आदमी.“ वह क्षोभ जताता है, “तुम्हारा वार्डरोब वीक है. सफेद ही सफेद..” इस पर राजाराम रहस्योद्घाटन करता है, “तीन ही तो हैं. तीनों सफेद हों, तो लोगों को पता ही नहीं चलता कि, कितनी हैं.“ वासु उसे चेताता है, “सुधर जाओ राजाराम, सुधर जाओ.“

राजाराम को वासु की चिंता रहती है. वह फिर से कहता है, “काश तुम ग्रैजुएट होते. अभी भी बीए कर लो.“

वासु को अपने छल-छद्म पर इतना यकीन रहता है कि वह कहता है, “नौकरी ढूँढी नहीं जाती दोस्त, आसमान से टपकती है.“

चश्मे बद्दूर में इसी से साम्य रखता हुआ एक संवाद है, “किस्मत में होगी, तो लड़की आसमान से टपक पड़ेगी.“

राजाराम संध्या को इशारे से बुलाता है, “संध्या, समोसे”. फिल्म में यह दृश्य रोमानियत का सबसे खूबसूरत दृश्य है. स्टोव जलाकर समोसे गरम करने के दौरान, उसकी नजर खाली कुर्सी पर जा टिकती है. अपने संचित मनोभावों को वह दिवास्वप्न में देखता है,

‘संध्या उसे कुर्सी पर नजर आती है. सुहानी सी, सलोनी सी, जवाकुसुम (गुड़हल) का लाल फूल बालों पर लगाए हुए. वह बड़े रोमानी अंदाज में कहता है, “उठाइए, उठाइए! मिस सबनिस! शरमाइए नहीं. तकल्लुफ किस बात का, अपना ही घर समझिए.“  संध्या कहती है, “चाय होती तो मजा आ जाता.“

राजाराम रोमांटिक होते हुए अधिकारपूर्वक कहता है, “चाय चाहिए, तो उठिए और खुद बनाइए, और हमें भी पिलाइए… हल्की बनाइए, मैं जरा लाइट पीता हूँ.“

इस संवाद का अंतिम वाक्य वासु-संवाद से उड़ाया गया है. यथार्थ जीवन में आते ही, उसे पता चलता है कि समोसे जल गए. तभी संध्या आ जाती है. वह लगभग झेंपते हुए कहता है, “जरा जल गए हैं.“ जब संध्या कहती है कि चाय साथ होती, तो मजा आ जाता. इस पर राजाराम दिवास्वप्न के विपरीत लगभग हकलाते हुए कहता है, “है ना, अभी लाता हूँ, फर्स्ट क्लास चाय.“

वह प्रकट में उसके इशारों पर नाचता हुआ सा नजर आता है.

राजाराम निहायत भला इंसान है, इतना भला कि, सहकर्मी महिलाएँ तक उसके साथ छेड़छाड़ कर जाती है. रात में वह चाल में सोया रहता है और स्वप्न देखता है. जवाकुसुम का फूल, हरी पत्तियाँ. शीघ्र ही यह स्वप्न भयावह स्वप्न में तब्दील हो जाता है. ‘शापित सेब’ कँटीले वृक्ष पर टँगा हुआ नजर आता है. सहकर्मी उसे बल प्रयोग कर, सेब खाने को विवश करती है. उसकी अस्मिता पर प्रत्यक्ष हमला करती हैं. मजे की बात यह है कि, यहाँ पर वह संध्या को अपनी मुक्तिदात्री के रूप में देखता है.

वासु किताबों से गोल्फ की खोज-खबर लेता है. गोल्फ के मैदान में वह मिस्टर ढ़िंढ़ोरिया का खेल एक निश्चित दूरी से देखता है. तत्पश्चात् एक कद्रदान के रूप में वह उन्हें अपना परिचय देता है. वह स्पोर्ट्स वीकली में उनके फोटो फीचर का पैंतरा आजमाता है. वाग्जाल फैलाकर उनके परिवार तक जा पहुँचता है. बिशप शू कंपनी से लेकर फुटप्रिंट्स तक की बातें बनाकर, वह अच्छी-खासी नौकरी हासिल कर लेता है. नतीजतन वह राजाराम का बॉस बनकर उसके दफ्तर में आ धमकता है. राजाराम उसे सही रास्ते पर लाने की समझाइश देते हुए कहता है “बहुत गलत कर रहे हो, ऐसा कब तक चलेगा.“

बस स्टॉप पर बस आती है. वासु तो बस में चढ़ जाता है, लेकिन राजाराम फिर से छूट जाता है. वह झुँझलाते हुए अपने उद्गार व्यक्त करता है, “देखा आपने! बस कहाँ खड़ी करते हैं.“ तभी रेडियो पर वह एक अपील सुनता है. “विशेष सूचना, मुंबई अस्पताल में ओ नेगेटिव ब्लड ग्रुप की सख्त जरूरत है.“ यह दृश्य, हिंदी सिनेमा के विचारणीय दृश्यों में से एक है. भले ही उसकी त्वरित प्रतिक्रिया, मौके पर हास्य उत्पन्न करती है, लेकिन उसका मानवतावादी दृष्टिकोण, एक बार फिर से दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर जाता है. वह अनजान भीड़ के सामने उछल पड़ता है, “मेरा ग्रुप ओ निगेटिव है, मुझे मालूम है. हर एक के पास नहीं होता. बहुत रेयर ग्रुप है.“ वह जल्दबाजी में टैक्सी को रोकता है. टैक्सीवाले के आनाकानी करने पर, वह टैक्सी में सवार होकर टैक्सीवाले से कहता है, “मैं ओ निगेटिव हूँ. चलिए-चलिए, जल्दी चलिए.“

वासु, चाल में सामान लेकर सीढ़ियाँ चढ़ते भाऊ साहब (संध्या के पिता) को देख लेता है. वह उन्हें पूरी सीढ़ियाँ चढ़ने देता है, तत्पश्चात् मदद की पेशकश करता है. वह एक तरह से उनके घर में एंट्री की भूमिका बना लेता है. भाऊ साहब उसको बड़ी नौकरी मिलने से गद्गद से नजर आते हैं. वे उसकी आवभगत करते हैं. वह बड़प्पन जताते हुए कहता है कि, मेरे नौकरी करने पर चाचा नाराज हैं. वे कहते हैं कि, कहाँ नौकरी के चक्कर में पड़े हो. अपनी इस्टेट संभालो. वह स्वयं के इंदौर की रॉयल फेमिली के दीवान का प्रपौत्र होने का दावा करता है. छद्मजाल फैलाकर संध्या के परिवार से निकटता बढ़ाता चला जाता है.

उधर वासु अपने कृत्यों से बॉस की गृहस्थी में हलचल मचाकर रख देता है. वह उनकी पत्नी और पुत्री के जीवन में विभ्रम फैलाकर खलबली मचा देता है.

वासु, राजाराम के वार्डरोब से उसकी घरखर्च की राशि खर्च कर देता है. इस पर राजाराम उससे नाराजगी जताता है, तो वासु, उसे उल्टे डाँट लगाता है, “तुम्हें ताला लगाकर रखना चाहिए था.“ इस पर राजाराम कहता है, “मैं ताला- संस्कृति के विरुद्ध हूँ. यह आदमी का आदमी के प्रति अविश्वास है.“

यहाँ पर गौर करने की बात है कि, बड़े ही हल्के-फुल्के अंदाज में बहुत गहरी बात कह दी गई है.

चाल का अपना जीवन- संसार है. अपनी संस्कृति है. समस्त चाल निवासी, मिल- जुलकर चाल का ‘एनुअल डे’ मनाते हैं. राजाराम का सुझाव रहता है कि, विजय तेंदुलकर के नाटक का मंचन होना चाहिए. वह कायदे से सारे संवाद रटता है, लेकिन ऐन मौके पर इन संवादों को बोलने का मौका वासु को मिल जाता है. उसकी नायिका रहती है संध्या.

संध्या के माता-पिता राजाराम से उसके कमरे में मिलने आते हैं. वे उससे संध्या के गुण-शील की प्रशंसा करते हैं. साथ ही उसके गुणवान होने पर राजाराम की सम्मति भी सुनना चाहते हैं. इस पर राजाराम बुरी तरह शरमा कर रह जाता है. उल्लास भाव से उसका रोम-रोम पुलकित नजर आता है, लेकिन जब वे उससे विनती करते हैं कि तुम वासु के साथ इस रिश्ते की सिफारिश करोगे, तो राजाराम आहत होकर रह जाता है. संध्या के पिता यह बताना नहीं भूलते कि यह संध्या की पसंद है.

विवश होकर उसे शगुन की शक्कर खानी पड़ती है.

दफ्तर में वासु का भंडाफोड़ हो जाता है. उसे नौकरी से निकाल बाहर किया जाता है. राजाराम जब उससे पूछता है कि, अब क्या करोगे, तो वह बड़ी बेतकलुफ्फी से जवाब देता है. यह सुनकर राजाराम संध्या के साथ होने वाले रिश्ते की दुहाई देता है, तो वासु उसे शादी का फंदा बताता है. इस पर राजाराम बिफर पड़ता है, “तुम्हारे झूठेपन की कोई सीमा नहीं. तुमने कुछ ऐसा-वैसा किया तो संध्या के लिए मैं चुप नहीं रहूँगा.“ इससे स्पष्ट हो जाता है कि उसमें कोरी आदर्शवादिता नहीं है. दर्शकों के मन में उसके प्रति एक खास किस्म की सहानुभूति उभरती है.

उधर चाल में सगाई की तैयारियाँ जोरों पर हैं. ऐन मौके पर वासु, सूट लेने और उसमें काज कराने के बहाने उड़नछू हो जाता है. मांगलिक कार्यक्रम में रंग में भंग होकर रह जाता है. एक दृश्य में वह किसी शेख के साथ विदेश का चक्कर चलाता हुआ नजर आता है. बड़ा कोहराम मचा रहता है.

चकाचौंध से आहत संध्या के माता-पिता सन्न होकर रह जाते हैं. इस अवसर पर राजाराम स्वयं को प्रस्तुत करता है. संध्या की माँ तो इस रिश्ते को प्रथम दृष्टया ही अनुमोदन दे देती है, “नेक लड़का है, ढूँढने से भी ऐसा लड़का नहीं मिलेगा.“ राजाराम के हाजिर होने से संध्या के माता-पिता का बहुत बड़ा बोझ उतर जाता है, लेकिन राजाराम इस संबंध में संध्या की सहमति जानना चाहता है.

आगे का विचार-विमर्श राजाराम की कमरे में होता है. वह सकुचाते हुए संध्या से कहता है, “ये न समझना कि, मैं सिचुएशन का फायदा उठा रहा हूँ.“

इस पर संध्या कहती है, “आप किसी की मदद करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते, चाहे उसके लिए आपको कितनी ही परेशानी क्यों नहीं उठानी पड़े. इतनी अच्छाई भी किस काम की.“ वह इस रिश्ते से मना कर देती है, “मैं नहीं चाहती कि मेरी गृहस्थी किसी के त्याग पर खड़ी हो.“ वह वासु के संबंध में भी राजाराम को बताती है. फिल्म का यह दृश्य बहुत कुछ अनकहा भी कह जाता है. सब कुछ जानने-बूझने के बाद, राजाराम संयत स्वर मैं कहता है, “मेरा इरादा अभी बदला नहीं.“ दोनों के चेहरों पर प्रसन्नता उमड़ती दिखाई देती है. स्थगित मांगलिक कार्यक्रम फिर से जारी हो जाते हैं. बापू कहता है, “हीरो बदल गया.“ फिल्म का सुखांत समापन होता है.

राजाराम के कक्ष के संवाद-दृश्य से फिल्म का आशय कुछ बड़ा हो जाता है. कुछ लोग मानते हैं कि “यह कछुए की कैसी जीत है.“ राजाराम निहायत भला आदमी है. उसके हाल पर दर्शकों के मन में हमदर्दी उपजती है, लेकिन वह दृढ़ चरित्र वाला व्यक्ति है. उसका प्रेम वास्तविक प्रेम है, सच्चा प्रेम. वह सब कुछ जानकर भी यथार्थ प्रेम की अभिव्यक्ति करता है. उसकी संगिनी जिस भी स्वरूप में है, वह उसे उसी स्वरूप में स्वीकार करता है. उसका प्रेम संपूर्णता में अभिव्यक्त होता है, अंशों या खंडों में नहीं.

फिल्म मानवीय चेतना को गहराई तक छू जाने वाली फिल्म है. अर्थपूर्ण तो है ही. 1983 का सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार इसी फिल्म के खाते में गया.

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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Girish Lohani

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