समाज

बिजलि भूमि : जनपक्षीय आंदोलनों को आवाज़ देने वाला नरेन्द्र सिंह नेगी का जनगीत

केदारनाथ आपदा को सात साल हो गए हैं पर घाव अब भी बने हैं. अनियोजित विकास भी इसके प्रमुख कारणों में से एक रहा. खास कर बड़े बाँधों से आने वाले कथित विकास. बाँधों पर सवाल विभिन्न मंचों से अनेक रूपों में उठाए जाते रहे हैं. गीत भी उनमें से एक है. प्रख्यात उत्तराखण्डी गायक नरेन्द्र सिंह नेगी के ऐसे ही एक गीत की बहाने इस मुद्दे को और इसके प्रभावों को बेहतर समझा जा सकता है.
(Narendra Singh Negi Song)

बाँधों के साथ विडम्बना यह जुड़ी है कि वे बड़े फलक पर भले ही विकास के पर्याय के रूप में देखे जाते हों किंतु अपने निर्माण प्रभावित क्षेत्र के लिए वो अभिशाप ही अधिक सिद्व हुए हैं. घर, किराये का भी बदलने पर आँखें नम हो जाती हैं तो फिर पूरे गाँव, पूरे क्षेत्र से स्वयं को विस्थापित करने के दर्द की तो कल्पना भी अवर्णनीय है. टिहरी का उदाहरण हम सबके सामने है. कहने वाले कहते हैं कि प्रभावितों को पर्याप्त आर्थिक प्रतिकर मिला है किंतु ज़िंदगी के फलस़फे को समझने वाले जानते हैं कि ज़िंदगी कागज़ के चंद रंग-बिरंगे टुकड़ों का ही नाम नहीं है. टिहरी ने बहुत कुछ खोया है जिसकी क्षतिपूर्ति असम्भव है. पुरानी टिहरी की भू-सम्पति को जब डुबाने के लिए नाप-जोख की जा रही थी तो शायद उसकी आत्मा से यही आवाज़ निकल रही होगी –

डुबा तो रहे हो मुझे
गरूर भरी चोटों के साथ.
मेरे मौसम भी लौटा देना
काग़ज़़ के नोटों के साथ.

मौसम की क़ीमत नई टिहरी में दमे और आर्थराइटिस से पीड़ित हर उस वृद्ध से पूछिए जिसने बचपन और जवानी पुरानी टिहरी के सुहाने मौसम में व्यतीत की हो. नरेन्द्र सिंह नेगी के ही गीत की पंक्ति – न कफ्फू बासद यख न घुघूती घूर घूर, नई टिहरी के लिए भी उतनी ही सार्थक है जितनी यह मूल गीत के संदर्भ के लिए है. परिंदों ने कोई मुआवज़ा नहीं लिया था सो टिहरी में विस्थापित होने के लिए मजबूर नहीं थे. उन्हें माफिक़ मौसम और बसावट नहीं मिली तो वे नहीं आये, नई टिहरी. यांत्रिक होते जा रहे इस दौर में सरकारों को समझना होगा कि गांव-शहरों को कट-पेस्ट नहीं किया जा सकता क्योंकि उनकी आत्मा कट-पेस्ट नहीं होती.
(Narendra Singh Negi Song)

टिहरी बाँध के व्यापक विरोध के बाद सरकार ने चालाकी से सुरंग आधारित परियोजनाओं को पहाड़ों पर थोपना शुरू कर दिया. इससे तात्कालिक विस्थापन और प्रत्यक्ष खतरे भले ही कम नज़र आते हों पर दीर्घकालीन खतरे और अप्रत्यक्ष नुकसान कहीं से भी कम नहीं हैं. बाँटो और ऐश करो कि नीति से, सरकार और परियोजना मालिकों की मिलीभगत ने स्थानीय जनता को भी दो वर्गों में बाँटकर लड़वा दिया है.

यही वह बिंदु है जहाँ आम आदमी को भाषणों और शोध अध्ययनों से समझाना मुश्किल हो जाता है और जरूरत महसूस होती है गीत की. गीत जो सीधे जनता के हृदय तक पहुँचे, उसके मर्मस्थल को झकझोरें. जनपक्ष की इसी जरूरत को ध्यान में रखकर नरेन्द्र सिंह नेगी ने बिजलीभूमि गीत सृजित कर, अपनी एलबम के माध्यम से उसे जन-जन तक पहुँचाया है और सरकार-परियोजना मालिकों की गूंगी-अँधी फ़ितरत को भी झकझोरने का प्रयास किया है. अचानक भी नहीं उपजा है यह गीत, गीतकार के मन-मस्तिष्क में वरन तब उपजा, जब पानी सर से ऊपर हो गया था. परिस्थिति की गम्भीरता का अंदाजा़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि समस्त जीव-वनस्पतियों का जीवन बचाने वाली नदियों के लिए उत्तराखण्ड में नदी बचाओ आंदोलन चलाने पड़ रहे हैं.
(Narendra Singh Negi Song)

गीत की प्रारम्भिक पंक्ति ही बता रही है कि जो भूमि देवताओं के रहने के लिए भी सर्वथा योग्य थी उसका नाम ऊर्जा प्रदेश (बिजली भूमि) कर यह जतलाया जा रहा है मानो इससे स्थानीय लोगों की जिंदगी जगमगा जाएगी. डाम शब्द के प्रयोग से यमक अलंकार उत्पन्न किया गया है. डाम का अंग्रेजी और गढ़वाली अर्थ क्रमशः बाँध और दग्धचिह्न हैं. डामना गढ़वाली भाषा की एक क्रिया है जिसका अर्थ है किसी को जलती हुई/गर्म चीज से दग्ध करना. डाम लगना, एक गढ़वाली मुहावरा है जो गहरे जख्म खाने के भाव को प्रकट करता है. मेरी अधिकतम जानकारी में इस मुहावरे को समीक्ष्य गीत के अतिरिक्त सिर्फ मेरे द्वारा ही अपने दो गीतों (टीरी का भाग मा लग्यां ये डाम तू देखी व हडगा तुड़ै भी डाम लगदा) में प्रयोग किया गया है.

25 मार्च 2012 को अगस्त्यमुनि में सम्पन्न उमेश डोभाल स्मृति समारोह, जिसका व्याख्यान विषय ही जनांदोलनों की सार्थकता था में नरेन्द्र सिंह नेगी ने विषय पर कुछ बोलने के बजाय समीक्ष्य गीत का पाठ किया था. बिना साज़ और साज़िंदो के भी गीत-पाठ का असर कहीं से भी, गंगाधर नौटियाल के क्रांतिकारी अंदाज़ और इन्द्रेश मैखुरी के तथ्यों-तर्कों पर आधारित प्रभावपूर्ण भाषण से कम नहीं था.

गीत में नदी के प्यासे होने की उलटबांसी का कलात्मक प्रयोग है तो वहीं उजली नदी सभ्यता के अँधेरी सुरंगों में बंद कर दिये जाने का लाक्षणिक प्रयोग भी है. जल-जंगल-जमीन के नैसर्गिक अधिकार से बेदखल कर दिए गए बाँध प्रभावितों की जिंदगी को अगर गीतकार बिजली के तारों पर टंगे हुए होने के रूप में देखता है तो गलत क्या है. गीत का दर्शन और संप्रेष्य बाँध और विकास का विरोध नहीं है बल्कि जमीन से जुड़े पर्यावरणसेवी सुंदरलाल बहुगुणा के पर्यावरण मंत्र धार ऐंच पाणी, ढाल पर डाळा, बिजली बणावा, खाळा-खाळा को ही पुष्ट करना है.
(Narendra Singh Negi Song)

16-17 जून 2013 को केदार-मंदाकिनी घाटी में हुई अपार जन-धन हानि का एक प्रमुख कारण भी घाटी में संचालित विभिन्न परियोजनाओं द्वारा नदी व तटवर्ती क्षेत्रों से की गयी छेड़छाड़ ही था. घाटी में संचालित दो जलविद्युत परियोजनाओं के द्वारा न सिर्फ मंदाकिनी घाटी के पहाड़ों को सुरंगों से खोखला कर दिया गया है बल्कि सुरंगों से निकले मलवे के ढेर को भी नदी के तटों पर, आपदा का कारण बनने के लिए छोड़ दिया गया था.

हाल के वर्षों में पहाड़ों में बादल फटने की घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति का एक प्रमुख कारण भी, मौसमविज्ञानियों द्वारा वायुमण्डल में धूल-मिट्टी के कणों की वृद्धि होना बताया जा रहा है. इसके लिए जिम्मेदार हैं उत्तराखण्ड में नदी तटों पर चल रहा अनियंत्रित खनन और जलविद्युत परियोजनाओं का मलवे को अवैज्ञानिक ढंग से डम्प किया जाना. उत्तराखण्ड में संचालित/निर्माणाधीन किसी भी जलविद्युत परियोजना के डी.पी.आर. के पन्नों को पलट के देख लीजिए, आपको जनपक्ष वहाँ से गायब मिलेगा.

सस्टेनेवल डेवलेपमेंट का सिद्धांत विकसित देशों के साथ-साथ विकाशसील देशों में भी खूब व्यवहार में लाया जा रहा है सिवाय अपने उत्तराखण्ड के. उत्तराखण्ड में ही निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजना के एक वरिष्ठ प्रबंधक को एक बार कुरेदा था मैंने कि यहाँ जनप्रतिनिधियों को परियोजना के पक्ष में करने में काफी मेहनत करनी पड़ती होगी कम्पनी को. प्रबंधक के उत्तर से मैं अवाक रह गया था. आत्मविश्वास से बताया था उसने – नहीं-नहीं उनकी औकात और अपेक्षा अधिक नहीं होती, बस अपनी एक-दो गाड़ियां और दस-बीस चेलों को कम्पनी में लगा देने से अधिक कुछ नहीं. यह भी कि इससे अधिक तो कम्पनी को बिहार-झारखण्ड में लोकल दादाओं को प्रोटेक्शन मनी देना पड़ता है. विजय रथ पर आरूढ़ करने वाली जनता के हक-हकूक और भविष्य की कितनी की़मत है हमारे रहनुमाओं की नज़र में, समझा जा सकता है.

सस्टेनेवल डेवलेपमेंट की ओर भी इशारा करता है नरेन्द्र सिंह नेगी का समीक्ष्य गीत. विद्युत उत्पादन हो पर पनचक्कीनुमा छोटी-छोटी परियोजनाओं से. जिस देश के लिए अपने गांव-खेत-जंगल-जलश्रोतों की बलि देकर बिजली बनायी जा रही है उस देश के वासियों को यहां की धरती एक हफ्ते की आपदा में ही नरक लगने लगी और लौटकर यहाँ आने के लिए उन्होंने कान पकड़ लिए हैं. यही तो कहेंगे कि –

जिनकी रोशन जिंदगी के लिए अँधेरे गँवारा किए हमने
उन्होंने ही बेशऊर हमें ओ नरक जमीं  को बताया है. 

जिस गंगा-यमुना के पानी को मैदानी क्षेत्र में सोना उगाने वाला वरदान माना जाता है वह दरअसल हम पहाड़ियों का खून-पसीना ही है. खून-पसीने के अर्पण से पहाड़ियों को कभी परहेज रहा भी नहीं पर जब थोक में पहाड़ और पहाड़ियों को शहीद करने वाली योजनाएं-परियोजनाएं बनेंगी तो उनके विरुद्ध आंदोलन तो होंगे ही और आवाज़ भी उठेगी – कभी नारे बनकर, कभी गीत बनकर. जनपक्षीय आंदोलनों को आवाज़ देने वाला ऐसा ही सशक्त जनगीत है नरेन्द्र सिंह नेगी का बिजलि भूमि.
(Narendra Singh Negi Song)

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.

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