हमारे पहाड़ों में नैंनांग देने की एक परम्परा है. नई फसल का पहला भोग अपने इष्टदेव को चढ़ाने का रिवाज यहां बहुत पुराना है. सभी गांव के लोग मंदिर में पूजा पाठ कर वहीं खाना बनाकर खाकर लौटते हैं. वास्तव में यह हमारे पहाड़ों में देवताओं का आभार मानने का एक तरीका है. हे सर्वशक्तिमान देव साल भर भारी बारिश, बजर पढ़ने, सूखे से, ओलावृष्टि से हमारी फसल को बचाने के लिये आपका धन्यवाद.
(Nainang Kumaoni Traditions)
इसके अलावा यह गांव में सामूहिकता और सौहार्द बनाये रखने में खूब सहायक थी. गांव से दूर जगल में किसी सुंदर से स्थान में इकट्ठा होकर ईश्वर को याद करना आधुनिक पिकनिक का प्राचीन रूप जैसा हुआ. मुझे याद है हमारे गांव में भी धौलीनाग ज्यू , नौलिंग , बन्ज्यैण ,छुरमल , देवीथान में समय समय पर नैंनांग दिया जाता था जो आज भी निर्बाध रूप से चला हुआ है. गांव के सयाने किसी निश्चित दिन आकर कहते कि कल नैंनाग देने आना हां.
अगर दिन पिछले साल का ही हुआ तो लोगों को पता होने की वजह से अपने आप ही तय दिन लोग इकट्ठा हो जाते नहीं तो सूचना देनी पड़ती. सूचना भी पूरे गांव में घर-घर जाकर देने की जरूरत नहीं होती. वस् एक दो आदमी को बता दो वह दूसरों को बता देगा और एक तरह की चेन बनकर पूरे गांव को पता लग जाता.
फिर हर घर में पूजा और खाने पीने का सामान जमा होना शुरु होता जिस परिवार से जितने आदमी उस हिसाब से वह उतना राशन रखता. क्योंकि सामूहिक पूजा होती है तो आदमियों की संख्या निश्चित नहीं होती है. जो आदमी किसी कारण से नहीं जा पाते वह दूसरे के हाथ अपनी जुगत भेज देते.
(Nainang Kumaoni Traditions)
जुगत कुछ इस तरह होती थी – अच्छयत, पिठ्या, धूप-बत्ती, फल-फूल, तेल नैबेद, दूध, दही आदि खाने की सामाग्री देखो. आटा, हल्दी, मसाले, तेल, दाल, साग-सब्जी जो जितना दे सके किसी तरह की बाध्यता नहीं होती है. पर जिस फसल का नैनांग देना होता है उसे जरुर रखा जाता है. गांव एक परिवार के जैसे था कोई गाय का दूध देता तो बताता कि यह गाय का दूध है ताकि पञ्चामृत बनाने में उसका उपयोग किया जा सके.
अब मंदिर जाकर सारा सामान एक साथ रखा जाता है. चावलों को चावल में , आटे को आटे, साग-सब्जी को साग-सब्जी में, तेल को तेल में मिलाकर सब एक किया जाता और नमक,घी, मसाला सब इकट्ठा किया जाता. इकठ्ठा किया हुआ सामान पंचमेवा या छप्पन भोग जैसा दिखता.
(Nainang Kumaoni Traditions)
गांव में जितने घर उतने प्रकार के चावल. ऐसे ही अलग-अलग तरह की सब्जियां- आलू, लौकी, तोरी, गेठी, गडेरी. ऐसे ही तरह तरह की दाल. इन सब को मिलाकर बनती मिक्स दाल, मिक्स सब्जी. इतनी अलग-अलग तरह की सब्जियों को एक साथ पकाकर सोचो कैसा स्वाद होता होगा. आहा उसके साथ थोड़ा हलवा, महाप्रसाद खीर और पूरी खाते-खाते धौ नहीं होती क्योंकि घर में ऐसी मिक्स चीज कभी बनना असंभव हुआ.
सभी लोग मंदिर में अपना-अपना काम ख़ुद ही संभाल लेने वाले हुये. कोई सब्जी काटेगा, कोई चावल धोयेगा कोई पानी लायेगा. आटा गूथने वाले अलग लगे होंगे. पहाड़ों में कोई आयोजन हो और चाय न हो तो कैसे होगा. काम के बीच में एक बार फस्कलास चाय की जुगत भी हुई ही.
सबसे मजेदार काम करने का तरीका हुआ. क्योंकि मंदिर दूर होने वाले हुये इसलिये ज्यादा सामान और बर्तन ले जाना संभव नहीं हुआ. अब वहां चीजों के विकल्प ढूंढने होते जैसे आटा गूथने के लिये एक चौकोर पत्थर, कभी मंदिर की आयताकार चौखट को काम लगाया जाता. पूरी निकालने के लिये किसी डंडे को तीखा किया जाता, पूरी उतार कर रखने के लिये पत्तल ढूंढे जाते. खा-पीकर सब प्रसाद लेकर अपने अपने घरों को लौटते. जो लोग मंदिर नहीं आ सके उनके लिये चार पूरी-हलवा और प्रसाद लेकर लौटा जाता.
(Nainang Kumaoni Traditions)
विनोद पन्त द्वारा मूल रूप से कुमाऊनी में लिखे लेख का हिन्दी अनुवाद.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…
View Comments
बिल्कुल पहले ऐसा ही होने वाला ठहरा, मागशीर और जेठ बैशाख के महीने में खासकर नैनाँग दी जाती है अब भी गांवों में । लेकिन अब नैनांग का स्वरूप भी धीरे धीरे बदलने लगा है। जहां पहले पूरे गांव वाले एक साथ दिया करते थे अब एक परिवार या कुछ परिवार आपस में मिलकर के भी देने लगे हैं ।
या फिर कुछ लोग मंदिर में आई किसी की पूजा के समय भी अपनी तरफ से नैनांग दे देते हैं।
हम भी हर साल दो बार नैनांग डालते हैं ईष्ट देवता गंगानाथ ज्यू के थान में।
बहुत अच्छी जानकारी... ईष्ट देवता आपकी मनोकामना पूरी करे। 🙏 जय देवभूमि 🙏