पहाड़ी से उतरती एक कच्ची सड़क ने हमें फ़ेस्टिवल के वेन्यू पर लाकर छोड़ दिया. किसामा नाम के इस विरासती गाँव की रौनक़ देखने वाली थी. एक पहाड़ी पर बनी सीमेंटेंड पगडंडी के इर्द-गिर्द बांस से बनी झोपड़ियों की एक ऋंखला पसरी हुई थी. इन झोपड़ियों के सामने रंग-बिरंगी पोशाकों में अलग-अलग नागा जनजातियों का प्रतिनिधित्व करती युवा पीढ़ी मुस्कुराती हुई आगंतुकों का स्वागत कर रही थी. इन झोपड़ियों में बनी रसोईयों से तरह-तरह के पकवानों की ख़ुशबू पूरे इलाक़े में फैली हुई थी. बांस के बने बर्तनों में आगंतुक एक द्रव्य का स्वाद ले रहे थे. हमें बताया गया कि ये राइस बीयर है. चावल के किंणवन से बनने वाली एक शराब जो इस इलाक़े के हर उत्सव या शुभ काम में परोसा जाने वाला एक ज़रूरी पेय है. अलग-अलग जनजातियों के कई स्त्री-पुरुष एक पगडंडी पर जुलूस की शक्ल में एक खास जगह की ओर बढ़ रहे थे. बीच-बीच में इनकी अतरंगी आवाज़ें हवा में गूँज रही थी. हाथों में भाले और सर पर अलग-अलग क़िस्म की टोपियां. क्रिशकाय गठन वाले फ़ुर्तीले शरीर अपनी स्थानीय पहचान के ध्वजवाहक बनकर पूरे गर्व के साथ आगे बढ़ रहे थे. तस्वीरें उतारते हुए हम इन लोगों के पीछे चल रहे थे. यह जुलूस एक मैदान पर जाकर रुक गया. Nagaland Hornbill Festival Umesh Pant
मैदान के इर्द-गिर्द दर्शक दीर्घा में पैर रखने की जगह नहीं थी. दर्शक दीर्घा और मैदान के बीच बांस की डंडियों से बना एक गोलाकार बाढ़ था. सामने एक मंच बना हुआ था जहां से एक अनाउनसमेंट किया जा रहा था कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह कुछ ही देर में कार्यक्रम का उद्घाटन करने के लिए यहां पहुँचने ही वाले हैं. हमने उद्घाटन समारोह को देखने के लिए एक कोना तलाशा जहाँ से बमुश्किल मैदान का एक हिस्सा नज़र आ रहा था. सामने एक बड़ी सी स्क्रीन लगी थी जो इस उत्सव सजीवता को समेटने की हर सम्भव कोशिश कर रही थी. गृह मंत्री के आगमन के साथ ही आकाश में एक दो हेलीकोपटरों उड़ान की तरफ़ हज़ारों नज़रें एक साथ गई और फूलों की कई पंखुड़ियां हवा में बिखर गई. राजनाथ सिंह ने मंच पर कुछ बोलना शुरू किया. उबाऊ भाषण के बाद मैदान में नागा जनजातियों के नाच और गाने ने समा एक बार फिर बाँध दिया. अंधेरा स्थानीय परम्परा के मुताबिक जल्दी दस्तक दे चुका था. लेकिन यहां मौजूद युवाओं का उत्साह अब भी बिलकुल कम नहीं हुआ था. Nagaland Hornbill Festival Umesh Pant
किसामा के विरासती गाँव को लेकर नागा युवाओं के उत्साह के बीज उनकी संस्कृति में कहीं छिपे हैं. ये कहानी तबसे शुरू होती है जब नागा जनजातियां उपनिवेशवादी तंत्र से कोशों दूर थी. मिशनरियां और आधुनिक शिक्षा पद्धति जब उन तक नहीं पहुँची थी. ये वो दौर था जब नागाओं के पास अपनी कोई लिपि नहीं थी. तब शेष भारत से कटी हुई नागा पहाड़ियों के घने जंगलों में एक समृद्ध परम्परा थी, जो उनके युवाओं की व्यावहारिक शिक्षा-दीक्षा का एक मात्र ज़रिया थी. इस पद्धति को मोरुंग नाम से जाना जाता है. ‘मोरुंग’ शब्द की उत्पत्ति असमिया से जोड़ कर देखी जाती है. एडवर्ड विंटर क्लार्क ने 1911 में एक नागा शब्दकोश बनाया जिसके हिसाब मोरुंग का मतलब है ‘एक बड़े पेड़ से बना ड्रम”. Nagaland Hornbill Festival Umesh Pant
मोरुंग एक तरह से नागा जनजातियों के युवाओं के लिए बनाई गयी डोर्मिट्री थी, जिसके बाहर एक बड़ा सा ड्रम रखा जाता था. युद्ध या आपातकाल जैसी स्थिति में इस ड्रम को बजाकर युवाओं को संदेश दिया जाता था. जैसे ही वो किशोरावस्था में पहुँचते थे, उन्हें गाँव में बने इन मोरुंग में भेज दिया जाता था. यहां ये युवा एक-साथ रहते थे और खेती-किसानी से लेकर युद्ध की कलाओं तक दैनिक जीवन के लिए ज़रूरी हर तरह की व्यावहारिक शिक्षा पाते थे. लड़कियों के लिए गाँव में ही एक अलग मोरुंग बनाया जाता था, जहां उन्हें कताई, बिनाई, पाक-कला वगैरह की शिक्षा दी जाती थी. ये मोरुंग एक तरह से युवाओं को उनके जीवन की हर ज़रूरत के लिए तैयार करने की पाठशाला थे. यहां पढ़ाई के लिए किसी लिपि की ज़रूरत नहीं थी. मोरुंग में युवाओं को उनकी संस्कृति से जोड़ने के लिए लोक-कथाओं से लेकर लोक-संगीत तक सिखाया जाता था. उनकी उम्र के हिसाब से उनके काम भी बँटे होते थे. मसलन 15 से 20 साल के किशोरों के समूह को सुंगपुर कहा जाता था. इनका काम पानी भरकर लाना, जलाने की लकड़ी इकट्ठा करना, बांस से रोशनी की मसालें और पानी भरने के बर्तन बनाना था. अपने से बड़े समूह के लड़कों की मालिश करना, उनके बाल काटना जैसी ज़िम्मेदारी भी उन्हीं के हिस्से थी. जैसे-जैसे उम्र बढ़ती थी, ज़िम्मेदारियां भी बदलती चली जाती थी.
लकड़ी के बनाए बड़े-बड़े बिस्तर पर सब साथ सोते. हंसी-ठहाकों के बीच शादी और सम्भोग जैसी चीज़ों का व्यावहारिक ज्ञान भी मोरुंग में साझा किया जाता था. लड़कों और लड़कियों के मोरुंग अलग-अलग थे लेकिन उनके मिलने-जुलने की व्यवस्था भी थी. शाम के वक़्त लड़के वाद्य यंत्रों के साथ लड़कियों से मिलने जाते. कनखियों में एक-दूसरे को देखते. उन्हें पसंद करते. प्यार परवान चढ़ता तो शादी तक भी जा पहुँचता. Nagaland Hornbill Festival Umesh Pant
अपने शत्रुओं से जीतकर जब नागा उनके कलम किए हुए सर मोरुंग में लेकर आते तो उन्हें बक़ायदा संस्कारपूर्वक ठिकाने लगाया जाता. मोरुंग के युवाओं को बुज़ुर्ग अपने अनुभवों से हासिल किया औषधीय वनस्पतियों का ज्ञान भी देते थे. अलग-अलग जनजातियों में मोरुंग के लिए नाम भी अलग-अलग थे. मसलन ‘आओ’ जनजाति के लोग इसे ‘अर्जू’ कहते, ‘कोन्याक’ इसे ‘बैन’ पुकारते, अंगामियों में इसे ‘किचुकी’ कहा जाता.
लेकिन ब्रिटिश जब भारत आए तो उन्होंने मोरुंग नाम के इस शैक्षिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थान को धीरे-धीरे ख़त्म ही कर दिया. ईसाई धर्म के प्रसार और बाइबिल की शिक्षाओं के साथ वर्णमालाओं के ज्ञान के लिए मोरुंग एक अहम केंद्र बन गए. औपनिवेशिक शिक्षा पद्धति के इस आगमन ने धीरे-धीरे मोरुंग नाम के इस संस्थान को ख़त्म सा कर दिया.
किसामा के इस विरासती गाँव में मोरुंग की इस समृद्ध विरासत की एक झलक सी दिखाई दे रही थी. नागालैंड की सभी सोलह जनजातियों का प्रतिनिधित्व करते बांस के इन घरों के इर्द-गिर्द बिखरी नागा युवाओं की ऊर्जा देखकर ऐसा लग रहा था जैसे इतिहास में खो गए वो मोरुंग वापस जीवंत हो उठे हों.
इतिहास इस उत्सव के नाम के पीछे भी जुड़ा था. ‘द ग्रेट हॉर्नबिल’, क़रीब 105 सेंटीमीटर का यह विशाल पक्षी नागा संस्कृति में अपनी एक अलग अहमियत रखता है. नागा लोककथाओं और लोकगीतों में इस पक्षी को लेकर कई कहानियां मिलती हैं. एक कहानी ये भी है कि सौतेली माँ का सताया हुआ एक नागा युवा एक दिन हॉर्नबिल पक्षी बन जाता है और अपने विशाल पंखों को फैलाकर गाँव से दूर चला जाता है. लेकिन जाने से पहले वो अपनी प्रेमिकाओं को एक वादा करता है कि वो हर साल उनसे मिलने लौटकर आएगा. जब वो अपनी प्रेमिकाओं से मिलने लौटता है तो उसे पता चलता है कि दोनों प्रेमिकाओं की शादी हो गई है. इस बात से दुखी वो अपने दो पंख निकालता है और दोनों प्रेमिकाओं को एक-एक पंख तोहफ़े में देता है. इस बार कभी न लौटने का फ़ैसला करके वो हमेशा के लिए गाँव छोड़कर कहीं दूर उड़ जाता है.
हॉर्नबिल के पंख तबसे नागा संस्कृति में साहस और प्रेम के प्रतीक माने जाते हैं. अपनी टोपियों में इन्हें सजाना नागा संस्कृति में बहुत सम्मान की बात माना जाता है. हॉर्नबिल की चोंच को सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है. इस पक्षी की एक और खास बात ये है कि अपनी मादा के प्रति बहुत वफ़ादार होता है. इसकी मादा बच्चे पैदा करते हुए बड़े-बड़े पेड़ों पर छेद करके घोंसला बनाती है. निशेचन के दौरान वो मिट्टी, अपने मल, फलों वगैरह से इस घोंसले को पूरी तरह बंद करके उसके भीतर क़ैद हो जाती है. इस घोंसले के प्रवेश मार्ग पर वो अपनी चोंच से एक छोटा सा छेद कर देती है. उसका नर दिन में कई बार इस छेद के ज़रिए उसके लिए खाना लेकर आता है. अपनी मादा के प्रति यह वफ़ादारी पक्षियों में दुर्लभ होती है. अपनी मादा की सुरक्षा और देखभाल के इस व्यवहार की वजह से भी, शायद इस पक्षी को नागा पुरुषत्व का प्रतीक मानते हैं. Nagaland Hornbill Festival Umesh Pant
लेकिन इस शानदार पक्षी के प्रतीक बन जाने का एक स्याह पक्ष भी है. हॉर्नबिल के पंखों और चोंच के लिए नागाओं ने इसका शिकार करना शुरू किया. आज आलम ये है कि यह पक्षी नागालैंड से लगभग लुप्त ही हो चुका है. नागालैंड की धरती पर हॉर्नबिल का दिखाई देना अब कई दशकों से एक दुर्लभ घटना हो गई है. हालाकि कई संगठन हैं, जो पक्षियों का शिकार न करने के प्रति नागाओं को जागरूक और सवेदनशील करने की कोशिश भी कर रहे हैं. वो नागा जो इन पक्षियों का शिकार किया करते थे, अब उनमें से कई इनके बचाव में खड़े हैं. लेकिन शायद अब बहुत देर हो चुकी है. कभी अपनी ज़ोरदार आवाज़ के साथ यहां के जंगलों में परवाज़ भरने वाला यह पक्षी अब लोक-कथाओं का हिस्सा भर बनकर रह गया है. जिसके नाम पर हज़ारों लोगों को नागालैंड की तरफ़ आकर्षित करने के लिए यह उत्सव मनाया जाता है, वो पक्षी अब किसामा के विरासती गाँव में मैदान के किनारे बनी लकड़ी की एक बेजान नुमाइश के अलावा कहीं और नहीं दिखता.
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–उमेश पन्त
युवा लेखक उमेश पन्त की पहली किताब ‘इनर लाइन पास’ कुछ समय पहले आई थी जिसे पाठकों ने बहुत सराहा था. अब उनकी दूसरी किताब आई है – ‘दूर दुर्गम दुरुस्त’. ये दोनों पुस्तकें यात्रा-वृत्तांत हैं और उमेश इस विधा में अपने लिए लगातार एक नाम पैदा कर रहे हैं. उनसे http://yatrakaar.com पर संपर्क स्थापित किया जा सकता है.
यह आलेख उमेश पन्त की नई किताब ‘दूर दुर्गम दुरुस्त’ से लिया गया है. इसे यहां से मंगा सकते हैं:
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