लोकदेवता छुरमल को सोर-पिथौरागढ़ के उत्तरी क्षेत्रों में पूजा जाता है. लोकपरम्परा के अनुसार छुरमल के पिता का नाम कालसिण था. दोनों पिता-पुत्र की कहानी एक दूसरे से गहरे जुड़ी हुई है. छुरमल का मुख्य देवस्थल सतगढ़ के ऊपर स्थित पहाड़ पर कालसिण के मंदिर के समीप ही है.
छुरमल के मंदिर कत्यूरघाटी के तैलीहाट में, थान गांव (मल्ला कत्यूर) में, धाड़चौड़ (डीडीहाट) की पहाड़ी पर, अस्कोट में देवचूला क्षेत्र में, धनलेख में जहां इसे धनलेख देवता के नाम से भी जाना जाता है तथा जोहार के डोरगांव आदि स्थानों पर स्थापित हैं. जोहार में ‘छुरमल पुजाई’ के नाम से भादपद मास के शुल्क पक्ष में एक उत्सव (मेले) का भी आयोजन किया जाता है. वर्षा ऋतु के अतिरिक्त इसकी पूजा शुक्ल पक्ष में कभी भी की जा सकती है. कहीं-कहीं दोनों एक साथ ही आमने-सामने भी स्थापित किये गये हैं, किन्तु एक देवालय में कहीं भी नहीं.
छुरमल (सूर्यपुत्र) का मूल नाम सम्भवतः सूर्यमल रहा होगा जो कि उच्चारणात्मक सौकर्य के कारण कालान्तर में छुरमल के रूप में विकसित हो गया होगा.
कुमाऊँ की लोकगाथा के अनुसार छूरमल के पिता कालसिण का विवाह रिखिमन (ऋषिमणि) की पुत्री हिउंला (हयूंला) से हुआ था. हयूंला अभी बालिका ही थी. विवाह के बाद वह उसके पालन-पोषण का भार अपनी माँ को सौंप कर देवताओं के आमंत्रण पर देवसभा में चला गया और वहां इन्द्र का दीवान हो गया. दीर्घकाल के बाद जब वह घर आया तो हिउंला भरपूर यौवन की देहरी पर खड़ी हो चुकी थी. अपने पति को देख कर उसने उस पर अपनी युवा पत्नी की उपेक्षा करने का आरोप लगाया. कालसिण को बहुत बुरा लगा और वह इस नवयौवना पत्नी के वाग्याणों से आहत होकर पुनरू इन्द्रपुरी लौट गया, किन्तु हयूंला पति मिलन की अतृप्त वासना को लेकर अपनी सास के पास ही उसके पुनः लौटकर आने की प्रतीक्षा में बैठी रही. प्रकृति ने तो किसी की प्रतीक्षा करनी थी नहीं. नैसर्गिक प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और वह रजस्वला होने लगी. उसकी सास ने उसके रज-स्नान के लिये घर के अंदर ही एक ऐसा स्नानागार बनवाया जिसमें कहीं से एक छिद्र भी नहीं छोड़ा गया था. पर एक दिन हयूंला ज्यों ही अनावृत होकर स्नान कर रही थी तो एक अतिलघु छिद्र से होकर सूर्य की एक किरण उसके गुप्तांग पर जा पड़ी और उसके प्रभाव से ही वह गर्भवती हो गयी. इस अप्रत्याशित घटना से सास और बहू दोनों ही विचलित हो उठे. उसकी सास सोचने लगी मेरा पुत्र तो चिरकाल से इन्द्र की सभा में है, फिर हयूंला के पांव भारी कैसे हो गये? उसने अपने पालतू तोते के गले में पत्र बांधकर यह समाचार अपने पुत्र कलुवा (कालसिण) के पास भेजा. इसे पढ़कर वह भी विचलित हो उठा तथा वास्तविकता का पता लगाने के लिए तत्काल धूमाकोट की ओर चल पड़ा. मार्ग में उसके पिता के मित्र मोतिया दर्जी का घर पड़ता था. कालसिण ने उसे सारा वृत्त सुनाकर उसकी वास्तविकता का पता लगाने का उपाय पूछा. मोतिया ने उसे एक दरँती दौंखी इलायची दी और कहा कि भोजन के उपरान्त तुम इसे भोजन की थाली में डाल देना, सब कुछ ज्ञात हो जायेगा. वह घर गया. मां ने भोजन परोसा और उसने भोजन के बाद थाली में उस इलायची को डाल दिया.
जब हयूंला इसके बाद थाली में भोजन करने गयी तो वह उसमें पड़ी इलायची को देखकर बिना भोजन किये ही लौट गयी. उसके इस व्यवहार से क्रुद्ध होकर कालसिण पुनः इन्द्रपुरी को लौट गया.
इघर हयूंला को दस माह पूरे होने लगे. उसे प्रसवासन्न देखकर सास ने उसे घर से निकाल दिया. वह शरण के लिए अपने हलिया (हलवाहे) के पास गयी. पर उसने उसे इस रूप में शरण देने से इन्कार कर दिया. इस प्रकार शरण की खोज में भटकते-भटकते उसे अर्धरात्रि हो गयी. प्रसव पीड़ा प्रारम्भ हो गयी. पीड़ा से व्यथित होकर वह ऊखल कूटने बाली छानी (घास फूंस की झोपड़ी) में जाकर अपने दुर्भाग्य तथा ईश्वर प्रदत्त इस क्रूर उपहास को कोसती हुईं अति करुण स्वर में क्रन्दन करने लगी. ठीक अर्थरात्रि के समय छुरमल (सूर्य-पुत्र) ने जन्म लिया और अपनी बिलखती हुई मां को आश्वासन देता हुआ कहने लगा- ‘मां तू इस प्रकार व्याक्युल न हो, मुझे मेरे पिता का नाम व पता बता.’ हयूंला ने कहा – ‘पुत्र ! मेरे पति का नाम कालसिण है जो कि आजकल इन्द्र की सभा में उसके दीवान हैं.’
नवजात शिशु अपने नाभिनाल को अपने कमर में लपेट कर इन्द्रलोक में जा पहुंचा. उसके वहां पहुंचने पर इन्द्रलोक डावांडोल हो उठा और सारे देवता लोग भी भयभीत हो उठे. इन्द्र की सभा में पहुंचकर बालक ने गरज का पूछा-‘मेरा पिता कलुवा दीवान कहां है?’ यह सुनकर कालसिण चकित होकर पूछने लगा- ‘हे बालक तू कौन है जो कि मुझे अपना पिता कह रहा है? और किस प्रकार से मेरा पुत्र है?’ इस पर वहां पर काफी देर तक प्रश्नोत्तर चलता रहा. बालक ने अपने जन्म से सम्बद्ध सारी स्थिति को स्पष्ट कर दिया, पर वह माना नहीं. इसके बाद उसने उसके समक्ष यह शर्त रखी कि यदि वह गागर (गर्गाचल) के जंगल से एक सिंह को पकड़कर उसके सामने ले आयेगा तो वह उसे अपना पुत्र स्वीकार कर लेगा. इस पर बालक छुरमल गागर के जंगल में जाकर एक शेर को पकड़कर ले आया. इसके बाद भी वह कई कठिनतम शर्तें रखता गया और छुरमल उन्हें पूरा करता गया. अन्त में उसने यह शर्त रखी कि मैं तुम्हें सात समुन्दर पार लोहे के कड़ाओं में बन्द करूंगा और इधर सात समुन्दर पार से तुम्हारी मां ह्यूंला अपनी छाती से दूध की धार मारेगी. यदि वह तुम्हारे मुंह में ही जायेगी तो मैं तुम्हें तथा तुम्हारी मां दोनों को स्वीकार कर लूंगा. इस परीक्षण में भी वह सफल हो गया. फिर कालसिण ने उसे पुत्र के रूप में स्वीकार करते हुए उसकी पीठ थपथपायी और कहा ‘यद्यपि तू मेरा पुत्र है पर हम दोनों आमने-सामने होने पर भी कभी परस्पर मिलेंगे नहीं’.
यही कारण है कि इन दोनों को एक ही मंदिर में स्थापित न करके एक ही स्थान पर पृथक-पृथक स्थापित किया जाता है. इसमें मानव कल्याणार्थ कालसिण की तथा पशु सम्पदा के कल्याणार्थ छुरमल की पूजा की जाती है.
(प्रोफ़ेसर डी. डी. शर्मा की पुस्तक ‘उत्तराखण्ड ज्ञानकोष’ से साभार)
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very nice
बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर
Really awesome .thanks for discription..
Pllz jo bhi likhtey hai uske upar sahi sodh kar, galat jaankari na daale , or iss kahani ko sanshodhit jald se jald kare ,
Iska futling dhanlek h
Sadgarh khandenath me kalsin devta ne saran li thi
Vahi par churmal devta ne unke upar talvaar chalaayi ,tabhi se kalsin dev ek paav se langde hai
Sadgarh me keval sandhi hui thi dono ke bich
, ,,shrimaan kripya jald se jald iss kahani ke or paksho ko thik se pta kar lekh phir se likhe ,me iss se bahut aahat hua , kafaltree ke upar bharso mat tutne de.