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पहाड़ और मेरा बचपन – 6

(पिछली क़िस्त से आगे. पिछली क़िस्त का लिंक – पहाड़ और मेरा बचपन

दिल्ली की कुछ और यादें मेरे स्मृतिपटल पर इतनी साफ अंकित हैं कि उनका ब्योरा दिए बिना आगे बढ़ना अनुचित होगा. सिर्फ इसलिए नहीं कि ये घटनाएं मुझे याद रहीं बल्कि इसलिए कि इन घटनाओं की मेरे व्यक्तित्व को बनाने में अपनी भूमिका रही. 1975 में जब देश में इमरजेंसी लगी थी, मैं खेलों में मशगूल रहता था. उन्हीं दिनों हमारे घर के आसपास कुछ घरों में एंटीना वाला ब्लैक एंड व्हाइट टीवी आ गया था. उन दिनों संडे के दिन शाम को दूरदर्शन पर फिल्म आती थी. तब लोग आपस में इतने हिलमिलकर रहते थे कि जिस घर में टीवी होता था, उन्हें कभी अकेले बैठकर टीवी देखने को नहीं मिल पाता था और संडे की फिल्म तो सबसे हॉट प्रोग्राम था. सात साल की उम्र में उन फिल्मों का कॉन्टेंट तो मुझे क्या ही समझ आता होगा, पर इस तरह सामने रखे डिब्बेनुमा चीज में हिलते-डुलते और आवाज करते आदमियों को देखना भर ही मेरी जिज्ञासा बढ़ाने को अपने में बहुत था.

पर चूंकि हमारे आसपास ऐसे दो-चार ही घर थे जहां टीवी थे, उन घरों में अपने लिए जगह बनाना बहुत बड़ी चुनौती हुआ करता था. जब मैं सात का था, तो मेरा बड़ा भाई दस का था और उसके ऐसे दोस्त थे, जो अपनी संडे की फिल्म किसी न किसी के घर में देखने का जुगाड़ कर लेते थे. संडे की शाम चार बजे के बाद से मेरी नजर बड़े भाई पर होती कि वह फिल्म देखने कहां जाता है. वह किसी न किसी दोस्त के घर जाता ही था. तो जैसे ही वह घर से निकलता मैं उसके पीछे-पीछे हो लेता.

मुझमें और मेरे बड़े भाई में बचपन से ही यह फर्क देखा जा सकता था कि समान संसाधनों के बीच वह ज्यादा साफ-सुथरा और सभ्रांत लगता जबकि मेरे व्यक्तित्व से लुच्चे-लफंगे की बू आती. हमारे लिए कपड़े एक साथ ही खरीदे जाते थे, पर उसके कपड़े मेरे कपड़े में साफ-सुथरे तो रहते ही, नए भी दिखते. ईश्वर ने मुझे शक्ल भी ऐसी बख्शी थी कि उस पर हमेशा एक कड़क बेवकूफ होने की छाया बनी रहती थी. बचपन की एक तस्वीर हमारे घर पर है. वह दिल्ली में इन्हीं दिनों की तस्वीर है. उसमें दोनों भाइयों ने एक जैसे कपड़े पहने हैं, लेकिन दोनों की शक्ल व्यक्तित्वों में अंतर जाहिर कर देती है. तस्वीर में मैं लगभग सावधान की मुद्रा में खड़ा हूं. मेरे जबड़े भिंचे हुए हैं. मेरे सिर के बाल भी ठीक तरह से बैठे नहीं हैं और मेरी आंखों में एक गहरा खालीपन भरा हुआ है, जो सामान्यत: दिमाग के खाली रहने पर होता है. मेरी तुलना में बड़ा भाई कमर में जरा-सी लचक के साथ खड़ा है, उसकी गर्दन एक ओर झुकी हुई है. उसके हल्के घुंघराले बाल करीने से उसके माथे के एक सिरे पर जरा-सी लट छोड़ रहे हैं. कोई पहली ही नजर में देखकर बता देगा कि वह सौम्य, सुशील और सुदर्शन व्यक्तित्व वाला बालक है, जबकि मेरी तस्वीर ही मेरी उद्दंडता, शरारतीपन और अक्खड़ता की परिचायक थी. संभवत: यही वजह रही होगी कि बड़े भाई को लोग सहज ही अपने घरों में आने देते थे.

मेरे पास टीवी में संडे की फिल्म देखने का एक ही रास्ता बचता था कि मैं भाई के पीछे-पीछे हो लूं और जिस घर में वह जाए उसी में घुस जाऊं. मैं भाई के पीछे-पीछे चल तो पड़ता, पर भाई को जैसे ही मालूम चलता कि मैं पीछे-पीछे आ रहा हूं, वह बौखला जाता. मुझमें जाने क्या था कि वह मुझे बर्दाश्त नहीं कर सकता था. लेकिन जितना वह मुझसे दूर जाने की कोशिश करता, मैं उतना उसके गले पड़ जाता. पहले वह मुझ पर गुस्सा दिखाते हुए मुझे वापस जाने को कहता. मैं सड़क पर रुक जाता और जैसे ही वह पीछे मुड़ आगे बढ़ता, मैं फिर उसके पीछे लग जाता. यह देखकर कि उसकी बातों का मुझ पर ज्यादा असर नहीं हो रहा अंतत: वह सड़क से चार-पांच पत्थर उठा लेता. पत्थरों से डरना मेरे लिए स्वाभाविक था. मैं फिर ठिठककर खड़ा हो जाता या किसी दीवार की आड़ ले लेता. अब वह मेरी ओर पत्थर उछालते हुए पीछे बढ़ना शुरू होता. मैं उसकी चाल समझ रहा होता था.

पीछे चलते-चलते उसने अचानक सरपट गली में मुड़कर भाग लेना था और मेरी नजरों से ओझल हो जाना था. वहां ऐसी गलियां थीं कि एक बार ओझल होने के बाद यह देखना मुश्किल था कि वह किस घर में घुसा है. उन दिनों लोग इतने संस्कारी भी नहीं होते थे कि दूसरे के घर में जूते-चप्पल उतारकर जाएं अन्यथा घरों के बाहर रखे जूतों-चप्पलों से समझा जा सकता था कि इस घर में लोग आए हुए हैं. इसलिए मुझे भाई को नजरों से ओझल नहीं होने देना था और इसके लिए मैं पत्थर खाने का जोखिम उठाने को तैयार था. अक्सर होता यही था कि वह अपने हिसाब से मेरी नजर से गायब हो अपने किसी दोस्त के घर में घुस जाता, पर मैं भी मैं था. कुछ ही देर में मैं भी सूंघता हुआ वहां पहुंच जाता और कुछ ऐसा होता कि आखिरकार मैं फिल्म देखकर ही लौटता. उसके बाद वह दो-चार घूंसे मार भी देता होगा, तो फर्क क्या पड़ता है. नहीं?

दिल्ली में गुजरे बचपन की दूसरी सबसे जीवंत स्मृति डीटीसी बसों और मेरे केंद्रीय विद्यालय, आईआईटी गेट पढ़ने जाने की है. उन दिनों पहले कुछ दिन मेरा भाई ही मुझे स्कूल छोड़ने और लाने गया और उसके बाद मैं अकेला ही यह काम करने लगा. मुझे सुबह 512 नंबर बस में बैठना होता था, जो मुझे स्कूल से कुछ दूर उतारती, जहां से मैं फिर पैदल चलकर स्कूल पहुंचता था.

तब एक ओर का किराया दस पैसा हुआ करता था. मुझे घर से बीस पैसे मिलते. कभी-कभार मां मुझे दो या तीन पैसे ऊपर से दे देती, जिसकी मैं कोई टॉफी या लड्डू खरीदकर खा लेता. खाने के मामले में मैं बहुत पेटू था और कुछ भी चबा-खा सकता था. चूंकि मुझे ऊपर से खाने-पीने को घर से लगभग नहीं के बराबर पैसे मिलते थे, इसलिए मैं हमेशा जुगत लगाता रहता कि मुझे कहां से और कैसे पैसे मिल सकते थे. सबसे पहले तो मैं घर से बस स्टॉप जाते हुए जमीन पर नजर गड़ाकर चलता था क्योंकि मुझे जमीन पर पड़े हुए बहुत पैसे मिलते रहते थे. दिल्ली में शादियों में पैसों की चिल्लर हवा में फेंकने का बहुत चलन था. लोग एक-एक, दो-दो, पांच-पांच, दस-दस, बीच-बीस पैसे और यहां तक कि चवन्नियां भी उछालते थे. इन उछाले गए पैसों को हम जैसे बच्चे तुरंत बीन लेते, मगर कुछ सिक्के कई बार घास में दबे रह जाते थे. मैं ऐसे ही सिक्कों को पाने के लिए जमीन पर नजर गड़ाए चलता था. पर जमीन में पैसा पड़ा मिलने की बारंबारता बहुत कम थी. इसलिए मुझे दूसरे उपाय भी करने पड़ते.

पैसे पाने का उपाय सोचते हुए ही मुझे शायद किसी दिन डीटीसी के कंडक्टर से टिकट खरीदते हुए लगा कि मैं कंडक्टर को क्यों दस पैसे दूं. इस पैसे को मैं बचा भी तो सकता हूं. मेरा ऐसा सोचना था और अगले दिन से ही डीटीसी की बसों में बिना टिकट यात्रा करने का सिलसिला शुरू हुआ, जिसे मैं चाहकर भी दिल्ली रहते हुए कभी खत्म नहीं कर पाया. ऐसा नहीं कि मैं कभी पकड़ा ही नहीं गया. ज्यादातर तो मैं टिकट चैक करने वाले इंस्पेक्टरों के आने पर बसों की भीड़ में लोगों के पैरों के बीच से आगे-पीछे करते हुए उनकी नजर से बचा रहता, पर कभी-कभार कोई मुझ सरीखा ही तेज-तर्रार इंस्पेक्टर मुझे पकड़ लेता. पकड़े जाने पर शुरू में मेरी घिग्घी भी बंधी पर जब इंस्पेक्टर ने मुझे बच्चा समझ थोड़ा-सा डांटकर ही छोड़ दिया, तो मेरा हौसला सातवें आसमान तक पहुंच गया.

(जारी)

सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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