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पहाड़ और मेरा बचपन – 2

(पिछली क़िस्त का लिंक: पहाड़ और मेरा बचपन – सुंदर चंद ठाकुर का नया कॉलम)

मेरी दूसरी स्मृति एक सांप की उलटी पड़ी लाश से जुड़ी हुई है. हमारे अहाते से एक रास्ता ऊपर जंगल से सटकर जाती मुख्य पगडंडी से जुड़ा था. मुझे याद आता है कि मैंने इस रास्ते पर एक सांप की लाश देखी थी, उलटी पड़ी हुई. उसका सफेद रंग की त्वचा मेरी आंखों में हमेशा कैद रही. हालांकि लाश की छवि के अलावा मुझे कुछ याद नहीं कि उसे किसने मारा, वह कहां से आया और लाश का बाद में क्या हुआ. मैंने मां से पूछा, तो मां ने सांपों को लेकर अपने किस्सों का पिटारा खोल दिया. उसने बताया कि कैसे गर्मियों के दिनों में गांव का एक व्यक्ति अपने पिता की क्रिया पर बैठा था.

रात होने को हुई तो उसने आंगन में ही बिस्तर बिछा लिया. उस दिन चांद खिला हुआ था, तो उसकी रोशनी में अच्छा-भला दिखाई दे रहा था. उस युवक ने साफ देखा की एक सांप रेंगते हुए उसके हाथ से गुजर रहा है. ऐसे में जैसा कि कोई भी समझदार इंसान करता, वह भी बिना हिलेडुले दम साधकर उसके गुजरने का इंतजार करता रहा. वह हाथ से होता हुआ गुजरा मगर कंधे तक पहुंचते-पहुंचते उसे क्या सूझा कि उसने गले में काट ही लिया. जिस दिन युवक को पिता की तेरहवीं करनी थी, उसी दिन उसकी मृत्यु हो गई. इसी तरह मां ने बताया कि एक बारह साल के लड़के ने खेलते हुए घर की दीवार में बने एक छेद में हाथ डाला जहां सांप था. सांप ने उसकी उंगली में काट लिया. उसने खून देखा, तो जैसा कि वह करता रहा होगा, खून को उसने चूस लिया और इस तरह जहर और भी तेजी से उसके शरीर में फैल गया और उसने कुछ ही घंटों में प्राण त्याग दिए.

मां बताती है कि एक बार एक ही घर के दो लोगों को एक ही सांप ने दो दिन एक-एक कर काट लिया और दोनों मारे गए. दूसरे लोग मारे गए, पर मैं अब तक जिंदा बचा हुआ हूं जबकि कुछ नहीं तो पांच ऐसे मौके आए होंगे जबकि सांप मुझे काट सकते थे. कुछ जगह उन्होंने काटा नहीं और दो-तीन बार मैंने उन्हें ऐसा करने नहीं दिया. गांव का किस्सा ऐसा है कि हमारे खेतों में यहां अक्सर बंदर आकर फसल पर हमला बोल देते थे. मक्के की फसल पर उनकी खास नजर होती थी. एक बार मैं संयोग से छुट्टियों में गांव आया हुआ था. यहां मैं अपने बज्या यानी ताऊजी के घर पर ही रुकता था. वहां कोई न कोई पालतू कुत्ता जरूर होता. मुझे कुत्तों के साथ खेलने का बहुत शौक था. एक बार मैं खेतों में आए बंदरों को भगाने के लिए ताऊजी के कुत्ते के साथ खेतों में दौड़ रहा था. ढलान पर खेत कटे हुए होते हैं, सीढ़ीनुमा. एक खेत पर दौड़ते हुए मैं नीचे के दूसरे खेत पर कूदने वाला था कि मेरी नजर एक गहरे काले रंग के कोबरा पर पड़ी, जो खेत की जड़ पर रंगते हुए सरपट जा रहा था. उस पर नजर पड़ते ही मेरे शरीर ने खुद ब खुद हवा में उड़ान भरी और मुझे याद है मैं एक उस पूरे खेत की चौड़ाई को लांघता हुआ नीचे वाले खेत में जाकर गिरा था.

जितनी दूरी मेरे शरीर ने तय की थी, उसे अगर मैं नाप लेता, तो वह लंबी कूद में जूनियर लेवल का राष्ट्रीय रेकॉर्ड से तो ज्यादा ही निकलता. उस सांप का रंग और उसका गदराया बदन मुझे कभी नहीं भूलता. लेकिन वह सांप खुशनसीब था कि मुझे दोस्तों के साथ खेलते हुए नहीं मिला. कक्षा पांच तक पहुंचते-पहुंचते मैं कम से कम पांच-छह सांपों को तो ठिकाने लगा ही चुका था क्योंकि वे मुझे तब मिले जबकि मैं अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था. दोस्तों के बीच हीरो बनने की खातिर मैं कोई भी जोखिम उठा सकता था. अकेले में सिर्फ एक सांप को निपटाया था और उन दिनों चूंकि किसी से सुना था कि नाग अगर हो, तो उसकी आंखों में मारनेवाले की तस्वीर कैद हो जाती है और बाद में नागिन उसे पाताललोक में भी खोजकर डसने आती है, मैंने इस सांप की आंखों के अस्तित्व को मिटाने का प्रयास किया था और कई दिनों तक नागिन के आने के डर से बेहाल रहा था, हालांकि मेरी बालबुद्धि यह सोचकर भी बीच-बीच में आश्वस्त होती रहती थी कि हो सकता है जिसे मैंने मारा वह मर्द सांप न होकर औरत सांप हो.

सांपों से मेरी और भी कई मुठभेड़े हैं. मैं जब आठ साल का था, तो पिता ने फौज की नौकरी अचानक छोड़ दी और पूरा परिवार पिथौरागढ़ में ठुलीगाड़ के पास आकर किराए पर रहने लगा. बाद में यही ठुलीगाड़ मेरे बड़े भाई का ससुराल बना. यहां सांपों को लेकर कई वारदातें हुईं. ठुलीगाड़ में हमारे घर गांव के घरों जैसे ही थे और वहां सब्जियों की खेती होती थी. पहाड़ी खीरे भी बहुत लगते थे. सर्दियों में हम कभी भी आढ़ू के पेड़ पर चढ़ी ककड़ी की बेल से ककड़ी तोड़कर खा जाते थे. एक बार ऐसे ही मैंने एक ललचाने वाले आकार की ककड़ी को तोड़ने को हाथ बढ़ाया हुआ था, इस बात से अनभिज्ञ कि ककड़ी की दूसरी ओर सांप जीभ लपलपाता हुए मेरे बढ़ते हाथ पर ही नजर गड़ाए था. इधर मैंने ककड़ी पकड़ी और उधर उसने जीभ बाहर फेंकी. मुझे उंगलियों पर एक जरा-से स्पर्श की अनुभूति हुई और तुरंत मेरी नजर सांप के मुंह पर गई. मेरा हाथ ककड़ी छोड़ झटके से पीछे आया और शरीर ने स्थिति का संज्ञान लेते हुए स्वत:स्फूर्त दो कदम पीछे छलांग लगाई. और तब मैंने देखा की वह खासा बड़े आकार का भुजंग था और जीभ लपलपाए मेरी ओर ही देख रहा था. उसके बाद मुझे तो याद नहीं पड़ता कि मैंने कभी इस तरह हाथ बढ़ाकर ककड़ी तोड़ने की कोशिश की हो. इन्हीं दिनों एक बार मां एक दिन मुझे अपने साथ घास काटने ले गई.

उन दिनों पिता बेरोजगार थे, तो मां ने घर चलाने की जिम्मेदारी अपने सिर ले रखी थी. उसने काले रंग की गाय पाल ली थी और उसका दूध बेचकर हम बच्चों की स्कूल फीस और घर के बाकी खर्च चलते थे. मैं मां का हरसंभव सहयोग करने की कोशिश करता था. दूध सप्लाई करने भी मैं ही जाता और दूध भी अपने ही सहपाठी के घर देने जाता था. एक बार वहां सहपाठी के पिता ने शिकायत कर दी कि दूध कम आता है, तो मैंने कैसे बिना मां को बताए दूध में चुपचाप पानी मिलाना शुरू किया, यह कहानी बाद में. अभी मां के साथ घास काटने जाने का किस्सा पूरा कर लिया जाए. उन दिनों मां की पूरी कोशिश पैसे कमाने और कमाए हुए पैसे बचाने की होती थी. गाय पालना मजाक नहीं था. उसके लिए रोज दाला बनाना पड़ता था. दाला तो सिन्ने यानी बिच्छू घास की पत्तियों का बन जाता था, पर घास लाना एक चुनौती था.

(जारी)

सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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