पहाड़ और मेरा जीवन -44
पिछली क़िस्त : पहाड़ों में पैदल चलने के बिना जिंदगी का जायका ही क्या
जो लोग पिथौरागढ़ से जुड़े हैं और जिनकी पत्रकारिता में थोड़ी बहुत दिलचस्पी है, वे बद्रीदत्त कसनियाल को जरूर जानते होंगे. मेरे और मेरे बड़े भाई के जीवन पर कसनियाल जी का गहरा प्रभाव पड़ा. कुछ लोग अक्सर मुझसे सवाल पूछते हैं कि फौज में अफसर बनने के बाद मुझे क्या सूझी कि मैंने फौज छोड़कर पत्रकारिता का पेशा चुना. मैं उन्हें आज बताना चाहता हूं कि कसनियाल जी के सान्निध्य में जीवन के जो मूल्य मुझे मिले, अगर वे नहीं मिले होते, तो शायद मैं फौज छोड़कर आता ही नहीं और न पत्रकारिता के पेशे से जुड़ता. मैं यहां यह भी स्वीकार करना चाहता हूं कि आज भले ही मैं एक बड़े ब्रैंड के अखबार के एडिशन का संपादक हूं लेकिन जहां तक पत्रकारिता के बुनियादी हुनर और उसके प्रतिमानों पर खरा उतरने की बात है, तो मैं आज भी कसनियाल जी के चेले से ज्यादा कुछ नहीं हूं.
जहां तक मुझे याद है कसनियाल जी से मेरे बड़े भाई की मित्रता पहले हुई थी. विज्ञान में रुचि के बावजूद बड़े भाई को पिताजी की लापरवाही की वजह से पिथौरागढ़ आने के बाद मिशन इंटर कॉलेज में कला संकाय में दाखिला लेना पड़ा था. जब मैं सातवीं के बाद एक साल के लिए माता-पिता के साथ राजस्थान गया, जहां से मैंने आठवीं पास की, तब भाई मेरे साथ नहीं था. वह अकेला ही पिथौरागढ़ रहा.
उन दिनों हमें यह पता था कि कोई दाढ़ी वाला पत्रकार है, जो भाई को बहुत अच्छा मानता है और उसकी कभी-कभार मदद भी करता रहता है. इस एक साल के दौरान वही भाई के लोकल गार्जियन थे. राजस्थान से लौटने के बाद जब मैंने भाई के साथ रहना शुरू किया, तो कसनियाल जी से मेरी भी पहचान बढ़ी. वे कई बार बाजार में मिल जाते थे. मिलते तो हिमानी स्वीट्स की दुकान में चाय या कॉफी पिलवाते, साथ में कुछ खाने का भी ऑर्डर देते. किसी दुकान में यूं कॉफी पीते हुए कुछ खाना उन दिनों मेरे दिमाग में एक तरह की इंटैलेक्चुअल लग्जरी जैसा था.
कसनियाल जी का बात करने का अंदाज ऐसा था कि कोई भी उनके सामने बौद्धिक रूप से बहुत हल्का लगता. वे तर्क की हवा में किसी को भी उड़ा सकते थे. उनके साथ रहते हुए मैंने जाना कि पत्रकारिता के नाम पर शहर में उनकी तूती बोलती थी. मेरी नजर में उन दिनों जिले का मजिस्ट्रेट प्रधानमंत्री से कम नहीं हुआ करता था और डीएम को वे किसी भी बात पर घेर लेते थे. कसनियाल जी के दफ्तर में जाओ तो दर्जनों पत्रिकाएं और बेशुमार किताबों के बीच जाना होता था और हमेशा लोग वहां बैठकर किसी न किसी गर्मागर्म मुद्दे पर बहस कर रहे होते थे. वे सरकारी नीतियों, नेताओं, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर इतने जबर्दस्त तरीके से अपने तर्क पेश करते कि उनके खिलाफ बोलने वालों की टांय-टांय होने में देर नहीं लगती. उन्हें राष्ट्रीय अखबारों से नौकरी के ऑफर थे, कुछ दिनों के लिए उन्होंने शायद अमर उजाला में भी काम किया, बाद में वे पीटीआई के अलावा टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स जैसे अंग्रेजी अखबारों के लिए भी रिपोर्टिंग करते रहे.
यह लेख लिखते हुए मैंने उनका नाम गूगल किया तो हिंदुस्तान टाइम्स में उनकी दो महीने पहले की रिपोर्ट देखने को मिली. उन दिनों जब-तब मुझे उनके लेख पढ़ने को मिल जाते थे. उनकी हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर पकड़ थी और दोनों में वे बराबर निपुणता से लिखते थे. पिथौरागढ़ और आसपास के इलाकों में रहने वाली लगभग सभी बड़ी हस्तियों को वे निजी तौर पर जानते थे. बड़ी हस्तियों से मेरा मतलब ऐसे लोगों से है, जिन्होंने वस्तुत: किसी मुद्दे के लिए बड़ा काम किया हो. ओलिंपिक, एशियाई खेलों में भाग ले चुके पुराने खिलाड़ियों, विश्वयुद्धों में भाग ले चुके और बहादुरी का मैडल पाए पुराने फौजी, वृक्षारोपण, बागवानी, मुर्गी पालन से जुड़े और पहाड़ के प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए आंदोलन करने वाले लोग. उनका ज्ञान देखकर मुझे और मुझ जैसे सभी दूसरे लोगों को भी हमेशा लगता था कि उन्हें दिल्ली में रहना चाहिए और अंग्रेजी का बड़ा पत्रकार बनना चाहिए- बेहिसाब रुतबे और उतने ही पैसे वाला, खुशवंत सिंह, अरुण शौरी जैसा. लेकिन कसनियाल जी पहाड़ छोड़कर जाने को तैयार न थे.
उनके साथ रहते हुए और उनकी जीवनशैली को करीब से देखकर मेरे दिमाग में एक आदर्श पत्रकार की जो छवि बनी, मैंने हमेशा ही वैसा बनना चाहा. इसलिए मेरे लेखकीय मिजाज पर आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि उसमें सत्ता प्रतिष्ठानों के खिलाफ एक पुट हमेशा बना रहता है. कसनियाल जी की बातचीत की बौद्धिक शैली और वैसा ही बर्ताव शहर में इतनी चर्चा में रहता कि कोई भी नई प्रतिभा, भले ही उसका पत्रकारिता से कोई सीधा संबंध न हो, उनका सान्निध्य पाने उनके दफ्तर में पहुंची दिखाई देती. मुझे उनके दफ्तर में हमेशा ही उनके सान्निध्य पाने को उतावले लोग बैठे मिलते. कसनियाल जी का व्यक्तित्व भी बहुत आकर्षक था. उन्हें मैंने कभी बिना दाढ़ी के नहीं देखा. दाढ़ी के साथ वे ज्यादा बौद्धिक और चिंतक दिखते थे. वे हमेशा पतले-दुबले ही रहे. एकदम सर्वहारा. उन्हें मैंने कभी ज्यादा भोजन करते भी नहीं देखा. उनकी खुराक सिर्फ पत्रकारिता से जुड़ी बातें थीं और वे तमाम पत्रिकाएं और किताबें, जो बड़ी तादाद में उनके दफ्तर में पड़ी रहती थीं.
ये वे दिन थे जब पांच-दस रुपये की पत्रिका खरीदने को भी मैं और मेरा बड़ा भाई बहुत बड़ी उपलब्धि समझते थे. कसनियाल जी के पास महंगी-महंगी पत्रिकाएं भी आती थीं. नया साल आने पर उनके पास कई सरकारी विभागों की डायरियां और कैलेंडर आते थे, जिन्हें वे हम जैसे अपने प्रिय शागिर्दों में बांट देते थे. उन्हें पैसों की भी परवाह न थी. कभी-कभी उन्हें भी फाके मारने पड़ते थे और कभी कहीं से पेमेंट आने पर वे हमें भी पैसे दे दिया करते थे. जाहिर है उनके ऐसे व्यक्तित्व का मुझ पर भी प्रभाव पड़ने वाला था और वह पड़ा भी क्योंकि अन्यथा और क्या वजह हो सकती है कि मैं फौज में अफसर की नौकरी छोड़ बिना यह सोचे कि बाहर की दुनिया में मैं क्या करने वाला हूं, खुद ही फौज छोड़कर आ गया. बाहर आने के बाद मैंने छह साल एक सिक्योरिटी अफसर की नौकरी की पर मैं तब तक भीतर से पूरी तरह पत्रकार बन चुका था. अलबत्ता, मैंने अपना पहला इंटरव्यू तो पिथौरागढ़ में ही ले लिया था, सुंदरलाल बहुगुणा, जो बाकायदा उत्तरउजाला में आधे पेज में प्रकाशित हुआ. मैंने बाद में बाबा नागार्जुन से भी एक लंबी बातचीत की थी. वह भी उत्तरउजाला में ही प्रकाशित हुई. सच पूछो तो कसनियाल जी के सान्निध्य में मैं कब पत्रकार बन गया, पता ही नहीं चला.
सिक्योरिटी अफसर रहते हुए मैंने बहुत से हिंदी अखबारों में लिखना जारी रखा था. फौज में रहते हुए मैं संयुक्त राष्ट्र सेना के सोमालिया में चल रहे शांति अभियान में गया था और वहां से मैंने शांति अभियान पर एक बड़ी रिपोर्ट भेजी थी, जिसे मृणाल पांडे जी ने हिंदुस्तान में प्रकाशित किया था. इस लेख के मुझे 1300 रुपये भी मिले थे, हालांकि लेख में मुझे बाइलाइन नहीं मिली थी क्योंकि सेना में एक्टिव नौकरी करते हुए इस तरह के लेख प्रकाशित नहीं किए जा सकते थे. ऐसे लेखों के प्रकाशित होने के साथ यह साबित हो गया था कि मैं कसनियाल जी का पक्का चेला बनने जा रहा था. कालांतर में यही हुआ.
आज भी पिथौरागढ़ जाता हूं, तो कसनियाल जी से मिले बिना नहीं लौटता. हालांकि पिछले दौरों में कभी उनसे मन भर के तो मुलाकात नहीं हो पाई, पर आने वाले सालों में उनके साथ फुर्सत से बैठने का इरादा जरूर है मेरा. मैं जाने कितने सालों से उनके कासनी वाले घर नहीं गया हूं. उनके बच्चों से नहीं मिला. अलबत्ता मैं उनकी पत्नी से भी नहीं मिला कभी. उनकी शायद चार बेटियां और एक बेटा है, हालांकि विवाह उनका बहुत बाद में हुआ. उन्हें देखकर कभी उनकी उम्र के बारे में खयाल ही नहीं आया. वे पैंतीस सालों से हमेशा मुझे एक जैसे ही लगे. मैं यह भी जानता हूं कि उन्हें न चाहने वाले भी बहुत लोग हैं. कुछ प्रफेशनल दुश्मनी के चलते और कुछ उनके बेपरवाह आचरण के कारण उनसे चिढ़ते रहे हैं, पर यह बात तो निर्विवाद है कि उन्होंने खुद भले ही उतना नहीं किया, जितना वह कर सकते थे, पर ताउम्र पिथौरागढ़ रहते हुए उन्होंने वहां के युवाओं को जिस तरह प्रभावित किया और उन्हें एक बेहतर भविष्य की राह दिखाई वैसा कोई दूसरा नहीं कर सका. मैं व्यक्ति, लेखक और पत्रकार के रूप में स्वयं इस तथ्य का एक जीवंत उदाहरण हूं.
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सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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बद्री दत्त कसनियाल जी के मार्गदर्शन के कारण पिथौरागढ़ के कई युवाओं को अलग अलग क्षेत्रों में आगे बढ़ने का मौका मिला। आज भी उनके बैंक रोड वॉर ऑफिस में जाने पर चाय और बौद्धिक खुराक जरूर मिलती है। प्रशासनिक अधिकारियों से अधिक सीमांत क्षेत्र की जानकारी कसनियाल जी के पास हमेशा उपलब्ध रहती है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी उनकी पकड़ बहुत गहरी है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में तो वह स्वयं एक विश्वविद्यालय के समान हैं।
कसनियाल जी कई मुद्दों पर हमारे लिए गूगल या एन्साइक्लोपीडिया से कम नहीं. जब हमें कुछ विश्वसनीय जानना हो तो हम उन्हें ही पूछते हैं. असल में कसनियाल जी महज व्यक्ति नहीं एक संस्थान हैं. न जाने कितने धुरंधर पत्रकार चिलकोटी भवन के उस छोटे से कमरे के इस विश्वविद्यालय से ट्रेनिंग पाकर निकले और आगे बढ़े. इस आलेख के लिए सुन्दर दा का शुक्रिया.