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रचना सिंह के कारण जब पूरी कक्षा के सामने मेरी इज्जत दांव पर लगी

पहाड़ और मेरा जीवन –27

मैं आप लोगों को इस बार केंद्रीय विद्यालय पिथौरागढ़ का किस्सा सुनाने जा रहा हूं. उन दिनों मैं कक्षा सात में पढ़ता था. जैसा कि मैंने आपको पहले बताया था कि कैसे एक रात मेरे पिता ने गर्दन पकड़ मुझे गणित पढ़ा मेरा जीवन ही बदल डाला था. उनके उस तरह पढ़ाने से ही मुझे गणित के यूनिट टेस्ट में तब तक के जीवन में पहली बार पंद्रह में से पंद्रह अंक मिले थे और मैंने आवारागर्दी के साथ-साथ पढ़ाई करने के महत्व को समझा था और इस तरह घ्यान से होमवर्क इत्यादि करने लगा था. इसके परिणामस्वरूप मेरे परीक्षाओं में भी अच्छे अंक आने लगे और मैं कक्षा के पहले पांच मेधावी बच्चों में गिना जाने लगा. यही वजह थी कि कक्षा सात में मुझे मेरी क्लास टीचर ने कक्षा का मॉनिटर नियुक्त किया. मैं उस क्लास टीचर का दिल से शुक्रिया करना चाहता हूं क्योंकि उनके मुझे मॉनिटर बनाए जाने की वजह से ही मुझमें इतना आत्मविश्वास और आत्मबल आ सका कि बड़ा होने के बाद मैं सेना में अफसर बनने के लिए जरूरी इम्तहानों को पास कर पाया.

पहले तो मैं यह बताना चाहूंगा कि हमारे समय में यानी जिन दिनों हम स्कूल में थे, तो क्लास मॉनिटर की क्या भूमिका होती थी और क्या क्लास मॉनिटर बनने से किसी की इज्जत या रुतबे में मुनाफा होता था? मैं बहुत ईमानदारी से इन दो सवालों का जवाब देना चाहता हूं. देखिए साहब रुतबा तो बढ़ता ही था. यह वह उम्र होती है, जब हर बात का हम पर बहुत गहरा असर होता था, पर हम उसे प्रकट नहीं कर पाते थे. जैसे मैंने आपको पहले बताया था कि कैसे एक हमारी रीता मैडम होती थी, जो हमें अंग्रेजी पढ़ाती थी. वह बहुत प्यार से बच्चों से बात करती थी. एक बार मैं उन्हें उनके घर के बाहर मिला, तो मैंने अपने खास ढंग से कुछ सकुचाते हुए उन्हें नमस्ते किया. उन्होंने दो मिनट रुककर मुझसे बातचीत की. मेरे घर-परिवार के बारे में पूछा. वे दो मिनट मेरे लिए बहुत कीमती हैं क्योंकि उनके दो मिनट मुझसे प्यार से बात करने के कारण मैंने खुद को भीतर से बहुत समृद्ध होते पाया. ऐसे ही हमारी हिंदी की मंजू मैडम होती थी, गोरी और लंबी. उन दिनों लगभग सभी मैडम साड़ी पहनकर स्कूल आती थीं. उनके व्यक्तित्व में निर्मल वर्मा की पहाड़ों की पृष्ठभूमि पर लिखी कहानियों की नायिकाओं जैसा आकर्षण होता था.

बहरहाल यह कि मुझे सातवीं में शायद मंजू मैडम ने ही क्लास का मॉनिटर बनाया. मेरी हिंदी बचपन से ही अच्छी थी क्योंकि मैंने दिल्ली में बेहिसाब कॉमिक्स पढ़ी थीं. चंपक, लोटपोट, चाचा चौधरी, बहादुर, नंदन, चंदामामा, पराग, मैंड्रिक द मैजिशियन आदि मैंने जाने कितनी ही कॉमिक्स किताबों के बीच रखकर पढ़ डाली थीं. उनका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि मेरी हिंदी अच्छी हो गई और देखिए आज एक हिंदी अखबार का संपादक बना बैठा हूं. जब आप जुनून से कुछ करते हैं, तो सफलता मिलना तय होता है. क्लास के मॉनिटर की सबसे बड़ी ड्यूटी यह होती थी कि किसी टीचर की अनुपस्थिति में जब पूरा पीरियड सामने पढ़ाने वाला कोई नहीं होता, बच्चों को कैसे शांत रखा जाए. मैं अपने अनुभव से आज प्रधानमंत्री मोदी जी को भी चुनौती दे सकता हूं, देश चलाना कितना भी मुश्किल हो, लेकिन टीचर की अनुपस्थिति में सातवीं कक्षा के बच्चों को चुप रख पाना नामुमकिन है. बहरहाल मैंने अपने खास तरीके ईजाद किए हुए थे बच्चों को चुप करवाने के. इनमें से सबसे कारगर तरीका यह था कि जो भी बच्चे मुझे बात करते हुए दिख जाते, मैं उनका नाम सामने ब्लैकबोर्ड पर लिख देता. लेकिन इस तरीके का बच्चों पर प्रभावी असर तभी रहता था जब उन्हें यह पता होता था कि टीचर कुछ देर में कक्षा में आने वाला है. समस्या तब होती थी जब बच्चों के पास यह सूचना होती थी कि टीचर को आकस्मिक छुट्टी लेनी पड़ी है और उसकी जगह कोई दूसरा टीचर भी नहीं आने वाला. तब वे इस बात से नहीं घबराते थे कि मैं उनका नाम सामने ब्लैक बोर्ड पर लिख रहा हूं.

मुझे लगता है रचना सिंह के साथ जो घटना घटी वह ऐसे ही किसी दिन की रही होगी, जब सभी बच्चों को मालूम था कि हमारी क्लास में कोई टीचर नहीं आने वाला. मैंने सामने ब्लैक बोर्ड को नामों से लगभग भर दिया था, पर सभी बच्चे उससे बेपरवाह बातें करने में मशगूल थे. सामान्यत: लड़कियां लड़कों की तुलना में ज्यादा अनुशासित होती हैं और मॉनिटर के बार-बार कहने पर चुप हो जाती हैं, लेकिन उस दिन रचना सिंह बहुत जोर-जोर से बात कर रही थी. मैंने किसी लड़के को टोका, तो उसने तुरंत मुझपर व्यंग्य का बाण छोड़ा कि लड़कियों को तो मैं चुप करवा नहीं पा रहा था. मैं हाथ में लकड़ी वाला बारह इंच का फुट्टा लिए हुए था. उसे घुमाता हुआ मैं रचना सिंह की मेज के सामने पहुंचा. मैंने उसे ज्यादा जोर से तो नहीं पर हां मॉनिटर वाली हेकड़ी का पुट लिए हुए आवाज में चुप होने को कहा और जैसा कि फिल्मों में पुलिस वाले हीरो लोगों को दिखाते हैं, कुछ वैसी ही अदा में थोड़े टशन के साथ मैंने हाथ में पकड़ा लकड़ी का फुट्टा उसके मेज पर मारा. अब मैं क्या जानता था कि उस पर मेरी ये हरकत इतनी नागवार गुजरेगी कि वह मेरे उस फुट्टे को ही पकड़ लेगी. उसने फुट्टा पकड़ लिया. रचना सिंह ने फुट्टा तो हाथ में पकड़ ही लिया था, अब वह उसे मेरे हाथ से छीनने का भी यत्न करने लगी थी. अब तक मैं भीतर ही भीतर कक्षा में अपनी मर्दानगी को लेकर अलर्ट हो गया था. यहां से आगे मुझे हर कदम फूंक फूंक कर रखना था. एक भी गलत चाल मेरी इज्जत का फलूदा बना सकती था.

अभी कुछ दिन पहले ही हमारी कक्षा की एक और सहपाठी सावित्री ने कबड्डी खेलते हुए एक लड़के को उसके दोनों हाथ पकड़ हवा में घुमा दिया था. तब से बाकी लड़के उसी लड़के की बात कर रहे थे. कहीं ऐसा न हो कि रचना सचमुच मेरे हाथ से फुट्टा छीन ले और क्लास के लड़के अगले कई दिनों तक चटखारे लेते हुए इस घटना का मजा लें. जिस तरह अगर शेर पीछे पड़ जाए और रास्ते में दीवार या बड़ा गड्ढा आने पर आदमी जान बचाने के लिए पूरा दम लगाकर उन्हें भी लांघ जाता है, उसी तरह इज्जत बचाने के लिए मैंने भी पूरा दम लगाया और फुट्टे को पकड़ उसके हाथ में इतनी जोर से घुमाया कि उसके पास उसे छोड़ने के सिवा कोई चारा न बचा. मैंने उसके हाथ तो नहीं देखे, पर लगता है उसकी त्वचा छिल गई थी. वह दर्द से कराह उठी थी. पर मैंने फुट्टा हाथ में आने के बाद राहत की सांस ली. पर रचना मुझे ऐसे छोड़ने वाली नहीं थी. उसने कुछ कहा. मैंने जवाब दिया. पांच मिनट तक तू तू मैं मैं चली और फिर रचना ने डेस्क पर सिर रखकर मुंह छिपा लिया. उसने शायद कुछ सिसकियां भी भरीं. मुझे उसका रोना अच्छा नहीं लगा. उसके प्रति अपने सख्त बर्ताव पर मुझे अफसोस भी हुआ, लेकिन मैंने यह सब एक मॉनिटर की आबरू बचाने के लिए किया.

रचना ने अगले पीरियड में भूगोल पढ़ाने आईं टीचर से मेरी शिकायत की. लेकिन संयोग था कि वह टीचर रचना की पड़ोसा थी और उसकी रचना की मां से खटपट चल रही थी. उसने भरी कक्षा में मेरी तरफदारी की. जाहिर है यह बतौर मॉनिटर मेरी नैतिक जीत थी, पर फिर भी आज तक मुझे उस घटना का अफसोस होता है और मैं खुद से सवाल पूछता रहता हूं कि मॉनिटर के रूप में अपनी इज्जत बचाने के लिए क्या उसे चोट पहुंचाए बिना कोई रास्ता नहीं निकाला जा सकता था?

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सुन्दर चन्द ठाकुर

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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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Girish Lohani

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