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और इस तरह रातोंरात मैं बुद्धू बच्चे से बना एक होशियार बालक

पहाड़ और मेरा बचपन – 14

(पिछली क़िस्त : और इस तरह जौ की ताल ने बचाई इज्जत, मैंने मां के सामने स्वाभिमान की रक्षा की)

(पोस्ट को लेखक सुन्दर चंद ठाकुर की आवाज में सुनने के लिये प्लेयर के लोड होने की प्रतीक्षा करें.)

हमारे किराए के घर की तस्वीर आपने पिछली किस्त में देख ही ली होगी. अगर आप इस घर को ठीक से देखें, तो पाएंगे कि इसमें एक कमरा ऊपर है, जो हमें दो साल बाद मिला. तब तक पूरा परिवार नीचे वाले डेढ़ कमरे में ही रहता था. डेढ़ का अर्थ है कि एक अंदर वाला बड़ा कमरा जिसमें कि पूरा परिवार सोता था और एक बाहर का छोटा कमरा जिसमें मां ने अपना चूल्हा बनाया हुआ था, बाद में जब हमने ऊपर वाला कमरा भी किराए पर ले लिया, तो नीचे के इस बाहर वाले कमरे को हमने अपनी गाय का गोठ बना दिया था. इसी कमरे में कुछ समय के लिए हमने मुर्गियां भी पाली थीं. फिलहाल मैं आपको उस एक रात की बात बताता हूं जिसने मेरे जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया.

मेरे पिता यूं तो दसवीं तक ही पढ़े थे, पर उन्हें पढ़ने का शौक बहुत था.. उन्होंने मिशन इंटर कॉलेज से दसवीं पास की थी. हमारा गांव खड्कू भल्या पिथौरागढ़ शहर से करीब 30-40 किमी दूर था. वहां से बच्चे गुरना के स्कूल में पढ़ने आते थे. गांव के ज्यादातर दूसरे बच्चों के विपरीत मेरे पिताजी पढ़ने के बहुत शौकीन थे. वे गांव छोड़कर पिथौरागढ़ बाजार से करीब दस किमी दूर एक पहाड़ पर स्थित भैलोंत नामक जगह पर आकर अपने ताऊजी के घर पर रहे. वहां से वे पैदल ही स्कूल जाते थे. ठंड के दिनों में सुबह-सुबह घर से बाहर निकलने की कल्पना मात्र से रूह कांप जाती है, पर वे ऐसे में भी पैदल ही स्कूल जाते थे. जाहिर है, पढ़ाई को लेकर उनमें जुनून भरा हुआ था. भैलोंत से मिशन इंटर कॉलेज पैदल चलकर पहुंचने में कुछ भी नहीं तो ढाई घंटा तो लग ही जाता होगा. जाड़ों में शाम को जल्दी अंधेरा हो जाता है और अंधेरे में जानवरों का भी खतरा रहता था.

उन दिनों बाघ, भालू, जंगली सुअर और सियारों का आतंक बना ही रहता था. पिताजी ने इम्तहानों के दिनों में समय बचाने के लिए बुंगा और मौष्टिमाणू में रहने की भी व्यवस्था की. पर मौष्टिमाणू में वे जिस परिवार के साथ रहे, वे उनका गांव से मंगाया राशन खुद खा जाते थे और पिताजी को भूखा रखते थे. कुछ ही महीनों में वे बहुत कमजोर हो गए. जब पिताजी की मां को माजरा समझ आया, तो उन्होंने वहां से उन्हें दूसरी जगह भेजा. पिताजी बचपन से ही बहुत शरीफ इंसान रहे. वे बीमार पड़ने पर भी घरवालों को नहीं बताते थे. मां बताती है कि एक बार गांव में उनकी मां के पास खबर पहुंची कि पिताजी पिथौरागढ़ में बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हैं. वे घबरा गईं. पिताजी उनके तीन बेटियों के बाद जन्मे बेटे थे. उनके मन में बेटे के लिए बहुत ज्यादा मोह था. उन्हें जैसे ही बेटे के बीमार होने की खबर मिली, वे गांव में घर का सारा कारोबार छोड़ पैदल बाजार की ओर चल पड़ी. खड़कू भल्या से पिथौरागढ़ बाजार अगर शॉर्टकट से जाओ तो आपको पूरा पहाड़ चढ़कर गुरना पहुंचना होता है और वहां से करीब पंद्रह किलोमीटर और चलकर आप पिथौरागढ़ पहुंच पाते हो. वे जब पिथौरागढ़ की बाजार पहुंची तो ऐसा संयोग हुआ कि पिताजी स्कूल से घर की ओर जा रहे थे. सिलथाम में दोनों एकदूसरे के आमने-सामने पड़ गए. अरे ईजा, तू यहां कैसे? पिताजी ने मां को देख हैरानी से पूछा. और तब आमा ने पिताजी को अपनी चिंता की बात बताई और पिताजी ने आमा हंसी उड़ाते हुए कहा कि वे तो बिलकुल ठीक हैं. पिताजी को स्वस्थ देख आमा की चिंता दूर हुई और तब उन्हें गांव में घर के कारोबार की चिंता हुई कि भैंसों को दाला देना है, गोठ साफ करना है, नौले से पानी लाना है. वे उलटे पांव गांव की ओर भागीं और रात में जाकर वापस पहुंची. मैं यह सब इसलिए बता रहा हूं ताकि आप लोगों को यह मालूम चल सके कि मेरे पिताजी पढ़ाई को कितना मानते थे. पढ़ाई के लिए अगर वे खुद को इतनी यंत्रणा दे सकते थे, तो जाहिर है कि उनकी अपने बच्चों से भी वैसी ही अपेक्षा रहनी थी. दिल्ली और जम्मू में रहने तक मैं बहुत छोटा था, पर पिथौरागढ़ आने तक मैं चौथी कक्षा में पहुंच चुका था और मेरी गर्दन का नाप भी इतना बढ़ चुका था कि वह अब पिताजी की हथेलियों फिट आ सकती थी.

मुझे आज भी वह दृश्य अच्छी तरह याद है जब हम नीचे वाले घर में अंदर वाले कमरे की दहलीज पर ढिबरी की रोशनी में पढ़ रहे थे. पिताजी को जाने क्या सूझी कि उन्होंने आज पहली मर्तबा अपने बड़े बेटे की बजाय छोटे बेटे को सामने बैठाया और सोचिए किताब भी निकलवाई तो किस विषय की. गणित! अगले दिन स्कूल में गणित का ही टेस्ट था. स्कूल के मास्टर साहब, जिनका नाम डी के जोशी था, हमें इन दिनों लघुत्तम समापवर्त्य यानी एलसीएम यानी लीस्ट कॉमन मल्टिपल पढ़ा रहे थे. जैसे अनपढ़ों के लिए काला अक्षर भैंस बराबर होता है, मेरे लिए गणित भी लगभग वैसी ही थी. पिताजी को जब पढ़ाते हुए मेरे गणित के गए-गुजरे ज्ञान का अहसास हुआ, तो उन्होंने मेरी गर्दन मरोड़ मरोड़कर बराबर ही कर डाली. जैसा कि अक्सर मेरे साथ होता ही रहता था, उस दिन भी मेरी नाक बह रही थी. यहां पिताजी अपनी हथेलियों के बीच मेरी गर्दन पर दबाव बनाते और उधर तुरंत पतले गोंद की तरह मेरा सिकान नासिकाद्वार से मुक्त होकर जमींदोज होने के लिए गुरुत्वाकर्षण बल के अधीन आकर नीचे की ओर गति करता कि मैं उसके टूटकर अलग हो जाने से ऐन पहले उस पर अपनी नाक से बल आरोपित कर उसे ऊर्ध्व दिशा में खींच लेता और इस तरह वह अपने उद्गम में आ मूल स्रोत से मिल विलीन हो जाता. मां पास में ही चूल्हे पर खाना बना रही थी पर पिता का सख्त रवैया देख और उनकी मेरे अज्ञान पर टीका-टिप्पणी सुन उसकी भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि बीच-बचाव कर मेरी गर्दन को उन सख्त हथेलियों के दबाव से बचा ले. मेरे पास बचने का इसके सिवा कोई चारा नहीं था कि मैं सचमुच पूरी ताकत से दिमाग लगाऊं और पिताजी मुझे जो कुछ भी समझाने की कोशिश कर रहे थे उसे जल्दी से जल्दी समझ लूं. इस तरह जीवन में पहली बार मैंने गणित में अपना दिमाग लगाया ताकि पिताजी की मार से बच सकूं और मैं कामयाब भी हुआ. एक बार समझ आने के बाद कि एलसीएम कैसे निकालते हैं, मैंने पिताजी के दिए सभी सवाल कर डाले. अगले दिन स्कूल में पंद्रह नंबर का टेस्ट था. वह भी मैंने अपनी समझ से अच्छा किया.

दो दिन बाद डीके जोशी सर ने टेस्ट के पेपर बांटने थे. इस सर के बारे में बता दूं कि वे उंगलियों के बीच पैंसिल फंसाकर चेहरे पर कोई शिकन लाए बिना उन पर अपनी उंगलियों का दबाव बढ़ाते जाते थे. बच्चा मारे दर्द के हवा में कूदने लगता और वे जालिम की तरह मुस्कराते रहते. जब उन्होंने टेस्ट के पेपर बांटना शुरू किया तो सारे पेपर बांट दिए, बस मेरा ही रह गया. मेरे दिल की धड़कनें बढ़ रही थीं कि दो दिन पहले पिताजी के हाथ मार खाई थी, क्या आज डीके सर की मार भी खानी पड़ेगी. डीके सर का चेहरा भावहीन रहता था इसलिए कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करने वाले हैं. उन्होंने हाथ में पेपर हिलाते हुए कहा – किसे पेपर नहीं मिला. मैंने अपना हाथ खड़ा किया. उन्होंने मुझे सामने बुलाया. मैं भीगी बिल्ली की तरह सामने गया. उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा और तब मुझे उनकी आवाज सुनाई दी- ये है क्लास का सबसे होशियार लड़का. इसने एक भी सवाल गलत नहीं किया. सिर्फ इसके पंद्रह में से पंद्रह नंबर आए हैं. शाबास सुंदर! उन्होंने कहा और मेरी पीठ ठोकी. मुझे चंद लम्हों तक कुछ सूझा नहीं कि मैं क्या करूं. मेरा दिमाग एक दम खाली हो गया था.

मैं अपने तब तक के जीवन में अपनी ऐसी तारीफ सुनने और गणित में इतने नंबर लाने का आदी न था. उस रोज घर पहुंचने तक मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. मैंने घर पहुंच मां को बताया कि आज स्कूल में क्या हुआ और साथ में यह भी जोड़ दिया कि अब तू देखना मैं बड़ा होकर कितना बड़ा आदमी बनूंगा. सचमुच मेरे लिए वह दिन बहुत निर्णायक साबित हुआ क्योंकि मुझे टीचर के मुंह से अपनी तारीफ सुनने का नशा हो गया. अपना नाम सुनने के लिए मैं खुद ही देर तक पढ़ने लगा. जो पढ़ेगा, तो उसके नंबर भी अच्छे आएंगे. दूसरे लड़के ज्यादा पढ़ते नहीं थे. इस तरह मेरे कक्षा में अच्छे नंबर आना शुरू हो गए. कक्षा पांच का जब परीक्षाफल आया तो मैं कक्षा में तीसरे स्थान पर था. मुझसे आगे सिर्फ दो लड़कियां थीं. कैसा कायाकल्प हुआ देखो पिताजी की सिर्फ एक दिन की मार से. एक बुद्धू बच्चा होशियार बन गया. और इस संयोग के बारे में आप क्या कहोगे कि वह दिन और उसके बाद का पूरा जीवन पिताजी ने न मुझे कभी पढ़ाया और न कभी किसी बात पर डांट लगाई. मैं हमेशा उनका चहेता बेटा बना रहा, जिसने उनके फौज में अफसर बनने का सपना पूरा किया और अफसर बनने के बाद उनके साथ बैठकर शराब पीने जैसा दिलेर परंतु यादगार कारनामा भी करके दिखाया.

(जारी)

सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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