पहाड़ और मेरा बचपन – 7
दिल्ली की डीटीसी बसों में मैंने एक समय के बाद टिकट लेना बंद ही कर दिया. मां जब मुझे बस के किराए के लिए तीस पैसे देती, तो मैं मन ही मन सोचने लगता कि तीस पैसे का आज क्या खाऊंगा.टिकिट चैक करने वाला इंस्पेक्टर आता, तो मैं बहुत करीने से लोगों की टांगों के बीच से होते हुए आगे से पीछे और पीछे से आगे करते रहता. कई बार जब सख्ती ज्यादा होने का अंदेशा होता, तो मैं लौटते हुए लिफ्ट मांगकर भी घर पहुंचा. और लिफ्ट मांगने के लिए कार, स्कूटर, मोटरसाइकल से लेकर साइकल तक, मुझे सब गवारा थे. कई बार मैंने साइकल में लिफ्ट ली. एक बार तो मेरा पैर साइकल के पहिए में लगी सींकों के बीच आ गया. पैर तो खैर मुंड़ा ही मुड़ा साइकल भी गिरी और एक सींक भी मुड़ गई. उसके बाद मैंने साइकल में जाने से बचता रहा.
पर इस बीच मेरे खाने का शौक बहुत बढ़ गया. जिस तरह शराब पीने वाले लोग बेवड़े हो जाते हैं, मैं गुड़ के लड्डू, चाट, गोलगप्पे, रेवड़ी-मूंगफली, गुड़ की पट्टी या मिठाई के लिए पागल रहने लगा. ऐसा नहीं कि घर में खाने-पीने की कोई कमी थी, पर स्कूल में लंच ब्रेक से ही मेरे खाने का सिलसिला शुरू हो जाता था. लंच ब्रेक में मैं पहले तो मां की दी रोटी-सब्जी खाकर ही खुश रहता था, पर एक दिन किसी बात पर क्लास के एक लड़के से लड़ाई हो गई. चूंकि मैं अपने साथ पढ़ रहे बाकी लड़कों से उम्र में करीब दो साल बड़ा था और मुझे अपने से तीन साल बड़े भाई से लड़ने का अभ्यास था, मैंने ताबड़तोड़ घूंसे बरसाकर उस लड़के को पराजित कर दिया. वह लड़का भी डीलडौल में मुझसे बड़ा था. उसे मैंने हराया क्या पूरी क्लास में मेरा दबदबा हो गया. उसी दिन लंच ब्रेक में दो-तीन लड़के अपना लंच बॉक्स लेकर मेरे पास आ गए. मैंने देखा कि उनके लंच बॉक्स में लजीज पराठे और मिठाई भी थी. लड़कों ने बॉक्स खोलकर मेरी ओर बढ़ा दिए और मैंने हर बॉक्स से अपनी पसंद की चीजें उठा-उठाकर खाईं. शायद इसी को शेर के मुंह खून लगना कहते हैं. अगले दिन से मैं खुद ही उन्हें लंच बॉक्स खोलने को कहने लगा और पसंदीदा चीज उठाकर खाने भी लगा. पर कुछ ही दिनों में खाने के आइटमों की पुनरावृत्ति होने लगी. पराठे कितने भी स्वादिष्ट हों, रोज खाओगे तो बोर हो ही जाओगे. मुझे चटपटी चीजें खाने में ज्यादा मजा आता था. मीठी चटनी के साथ समोसे और गुड़ की पट्टी यानी चिक्की मेरी पसंदीदा चीजें थीं. अब ये चीजें तो खरीदकर ही मिल सकती थीं. टिकिट के पैसे तो टॉफियां और गुड़ के लड्डू में ही चले जाते थे.
एक दिन मैं बस स्टॉप पर इसी बात पर चिंतन कर रहा था कि इन चीजों को खरीदने के लिए पैसे कहां से आएं कि अचानक मैंने झोंक में सामने से आ रहे अंकल के सामने हाथ फैला दिए. हाथ फैलाते ही मेरी आवाज रुआंसी हो गई और मुंह से शब्द निकले-अंकल, मेरे टिकिट के पैसे खो गए. घर जाने के लिए बस के टिकट के पैसे दे दो. मेरी आवाज के रुआंसेपन के चलते या मेरी स्कूल युनिफॉर्म देखकर उस अंकल ने मेरी हथेली पर अठन्नी रख दी. यह किसी चमत्कार से कम न था. इस अठन्नी से मैं बहुत कुछ खरीदकर खा सकता था. लेकिन जब इतनी आसानी से अठन्नी मिल गई, तो मन में लालच आ गया. सोचा कि आजमाकर देखते हैं क्या वाकई इतनी आसानी से पैसा मिलेगा मुझे. अब मैंने थोड़े अमीर जैसे दिखते अंकलों के आगे हाथ फैलाना और आवाज में रुआंसापन लाकर उनसे टिकट का पैसा मांगना शुरू किया. सबने तो नहीं दिए. पर कुछ ही देर में मेरे पास सवा रुपया इकट्ठा हो गया. मैंने बस के इंतजार में खड़े अपने दो और दोस्तों को बुलाया और तीनों ने मिलकर आइसक्रीम और महंगी वाली खोये की कुल्फी की पार्टी की. इस तरह पैसे मांगने का एक नया सिलसिला शुरू हुआ. यह सिलसिला शायद कभी खत्म ही न होता, पर दो वारदातें ऐसी हुईं कि इस सिलसिले को अचानक रोक देना पड़ा.
एक दिन मैं बहुत बेतुक्कलुफ होकर अपनी नकली रुआंसी आवाज में किसी अंकल को पैसों की उम्मीद में अपने टिकट के पैसे खोने की दास्तां सुना रहा रहा था कि तड़ाक! तड़ाक! मेरे गाल पर दो चमाटे पड़ गए. मेरी नजरों के सामने एक क्षण को अंधेरा छा गया. कहां तो मैं अपनी खुली हथेली पर चमकती हुई अठन्नी या अंकल की ड्रेस देखते हुए रुपये ही उम्मीद कर रहा था और कहां उन्होंने मेरे गाल बजा दिए. बेटे तेरे बाप ने क्या तुझे भिखारी बना दिया है. साले रोज तेरे पैसे खो जाते हैं. तीसरी बार परसों भी तूने पैसे मांगे थे.ये नया धंधा चला दिया है क्या, स्कूल यूनिफॉर्म पहनकर पैसे मांग. भाग यहां से. और अब कभी मेरे सामने आया तो…उस संभ्रांत दिखते अंकल ने गंदी-सी गाली दी और मैं बिना नजर उठाए उनके सामने से खिसक गया. वह दिन मेरे लिए वाकई बहुत खराब दिन था क्योंकि एक ही दिन में मेरी अय्याशी खत्म कर दी जाने वाली थी. उसी दिन घर में मेरी मां ने मुझे अपने पास बुलाकर पूछा-तू क्या दूसरे लोगों से पैसे मांगता है? मां का सवाल सुनकर मेरी सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. मां को कैसे मालूम चला. मैं सतर्क हो गया. सच बोलने पर बहुत मार पड़ सकती थी. मैंने कहा नहीं मम्मी एक दिन एक अंकल से मांग लिए थे क्योंकि मेरी जेब फटी थी और तेरे दिए पैसे रास्ते में कहीं गिर गए थे.
28 नंबर गली में तेरे दोस्त की मां बता रही थी कि तू अंकल लोगों से पैसे मांगता है. मां थोड़ा नरम पड़ते हुए बोली. अरे मां वह तो एक नंबर का झूठा है. उससे मेरी लड़ाई चल रही है. तेरे से मुझे पिटवाने के लिए उसने अपनी मां से झूठ बोला होगा. मैं मां की नरम पड़ती आवाज को ताड़ते हुए बोला.बेटा हम गरीब हैं लेकिन इज्जतवाले हैं. दूसरों से कभी पैसे मत मांगना. मां ने बिना मुझे मारे अपनी फाइनल बात कही. और मैंने राहत की सांस ली कि मार नहीं पड़ी. लेकिन यह भी हुआ कि अगले दिन से मेरी किसी अंकल के सामने हाथ फैलाने की हिम्मत नहीं पड़ी. वह जो चाट-पापड़ी से लेकर, समोसे, आइसक्रीम और भी न जाने क्या-क्या खाने को मिलता था, वह अतीत की एक मीठी याद बनकर रह गया.
लेकिन वह जो लड़का था, जिसकी मां ने मेरी मां को मेरे कारनामों के बारे में चेताया था, उस लड़के से मेरी दुश्मनी बढ़ गई. एक दिन स्कूल से वापस लौटने के बाद जब हम उसकी गली के सामने एक मैदान में पहुंचे, तो किसी बात पर उसकी और मेरी हाथापाई शुरू हो गई.मैं गर्दन को अपने हाथ के फंदे में दबाकर पैर से पेंचा मारकर गिराने में माहिर था. पलक झपकते ही मैंने उसे नीचे गिरा दिया और उसकी छाती पर चढ़ बैठा. उसके बाद मैंने उसे थप्पड़ मारे या घूंसे मुझे याद नहीं पर इतना याद है कि मेरी गिरफ्त से छूटते ही उसने पास पड़ी बड़ी-सी ईंट उठा ली और इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता उसने एक ही ऐक्शन में खींचकर वह ईंट मेरी ओर फेंकी. ईंट मेरे दाहिने पैर की जांघ पर लगी. जैसे ही मेरा हाथ जांघ पर गया मैंने वहां एक लहर उठती महसूस की. वह मांसपेशी की लहर थी.लहर उठी और उठकर बैठ गई. तब तक के जीवन में मुझ पर हुआ यह प्रबलतम प्रहार था. मैं इससे पहले कि दर्द में बिलबिलाते हुए उठता, वह लड़का अपने घर की ओर भाग निकला. मैं लंगड़ाते हुए उसके पीछे भागा. ऐसा प्रहार खाने के बाद मैं चुप बैठने वाला नहीं था. चोट पता नहीं कितनी लगी थी, पर इस बात का मानसिक आघात जबरदस्त था कि वह मुझे मारकर घर भाग गया. मैंने उसके घर का दरवाजा खटखटाया, तो उसकी मां ने दरवाजा खोला. मैंने उन्हें बताया कि कैसे उनका बेटा मुझे ईंट मारकर आया है. मैंने जांघ की ओर इशारा किया. तब पहली बार मेरी भी नजर गई वहां. खून का थक्का जमा होकर नीला पड़ गया था. मैंने मन ही मन सोचा काश कि थोड़ा खून भी निकला होता. खून देखकर उसकी मां घबरा जाती और तब जरूर उसकी पिटाई करती. मुझे उम्मीद थी कि उसकी मां मेरी चोट देखकर अपने बेटे को बाहर बुलाएगी, पर उसने ऐसा नहीं किया. उसने मुझे कहा कि तुम जाओ मैं उसे बताती हूं. पर मैं उसके कहने के ढंग से ही समझ रहा था कि वह उसे कुछ नहीं बताने वाली और तब अचानक मैंने अनुभव किया कि मेरी गले में हिचकी भरने लगी है और आंखों की ओर आंसू दौड़ने लगे हैं. मेरा बालमन इस तरह खुद पर हो रहे अन्याय का विरोध कर रहा था. हम दोनों में भले ही लड़ाई हुई थी और मैंने उसे गिराकर मारा भी था, मगर ईंट उठाकर मारने की क्या तुक थी. बच्चों की हाथापाई थी, उसमें ईंट, पत्थर उठाना प्रतिबंधित था. खैर, मैं लड़के की मां को अपने आंसूं नहीं दिखाना चाहता था, इसलिए तुरंत पीछे मुड़ गया. मैं जब अपने घर पहुंचा तो खुद को रोकते-रोकते भी मैंने अपनी मां को इस घटना के बारे में बता ही दिया और बताते हुए रोने भी लगा. अपनी मां से आंसूं क्या छिपाना. आंख में भले ही आंसूं थे, पर मेरे दिल में बदले की आग धधक रही थी. संभवत: इस आग की तपन उस लड़के ने महसूस कर ली थी क्योंकि अगले कई दिनों तक स्कूल जाते समय और स्कूल से लौटते वक्त मेरी नजर उसी को तलाश करती रही, पर वह कभी दिखाई ही नहीं दिया.मैं यह बताना चाहूंगा कि यह पहली बार था कि जब मैंने किसी के हाथ से मार खाई थी.दूसरी, तीसरी, चौथी और पांचवीं बार की मार खाने की घटनाएं पहाड़ में घटने वाली थीं और वे पहली घटना से कहीं दर्दनाक साबित होने वाली थीं.
मार खाने वाली ये वारदातें आने वाली किसी और किस्त में क्योंकि अभी मुझे आपको दिल्ली से जम्मू लेकर जाना है, जहां मेरे दो वर्ष के छोटे भाई की मृत्यु की बेहद उदास करने वाली यादें हैं. लेकिन दिल्ली के भी कुछ किस्से और हैं, जिन्हें बताना जरूरी लग रहा क्योंकि उन्हें पढ़े बिना आप मुझे जान न पाएंगे और मुझे ही न जान पाए, तो फिर फायदा क्या इतना सब पढ़ने का.
(जारी)
पिछली क़िस्त का लिंक: पहाड़ और मेरा बचपन – 6
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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