गोगिना से नामिक गांव होते हुए मुनस्यारी- 2
पिछली कड़ी : बागेश्वर के गोगिना से नामिक गांव की यात्रा के बहाने पहाड़ का जन-जीवन
सुबह नाश्ते में योगेश की फरमाइश पर पराठों का भोग लगाकर हम अपने अगले पड़ाव थाला बुग्याल की ओर निकल पड़े. रास्ते में 2300 मीटर की उंचाई पर खरक में तीन झोपड़ियां दिखी. इस जगह को गांव वाले घुघानपानी के नाम से पुकारते हैं. खरक के बाहर खूंटे से बंधी हुई तंदुरुस्त भैंसें दिख रही थी. महिलाएं दूध निकाल गांव को जाने की तैयारी कर रही थी. इनकी आर्थिकी का ये भी एक मुख्य सहारा हुआ. अक्सर परिवार का कोई न कोई सदस्य भैंसों की रखवाली के लिए रात में यहीं रुक जाता है.
धीरे-धीरे पेड़ कम होते जा रहे थे. मखमली बुग्याली घास में खिले सैकड़ों रंग-बिरंगे छोटे-छोटे फूल थकान को कम करते चले जा रहे थे. आगे दो रास्ते मिले. एक ऊपर की ओर, थाला बुग्याल को और दूसरा सीधे सुखमरी धार की ओर था. बलवंत ने बताया कि आजकल थाला बुग्याल में पानी की समस्या है, पानी करीब किलोमीटर भर नीचे से लाना पड़ता है. तो थाला से थोड़ा आगे सुखसुमरी धार से पहले बाल्छन कुंड के पास पड़ाव डाला. मैं और बलवंत टैंट लगा भोजन की तैयारी में जुट गए और हमारे साथी भीम के साथ थाला बुग्याल की ओर निकल गए. मैं पहले थाला बुग्याल से चफुवा होते हुए तल्ला रनथन, मल्ला रनथन, नामिक, सुदुमखान, राली, नंदाकुंड, रूमागैर, सलग्वार होते हुए कफनी ग्लेशियर की यात्रा कर चुका था.
टैंट के बाहर चूल्हा बना था. लकड़ी जला दी गई. खाना बनाने की जुगत के साथ ही आग सेंकते हुए बलवंत से काफी देर तक बात होते रही. घर गाँव के बारे में उससे पूछा तो वो बताता चला गया.
गांव की जिंदगी कठिन हुई हो साहब. हाड़तोड़ मेहनत हुई उसके बाद भी आज हम लोग बमुश्किल अपनी गुजर बसर ही कर पाते हैं. खेती-पाती के साथ ही मजदूरी करनी हुई तब जाके परिवार की जरूरतें पूरी हो सकने वाली हुई. गरीबी के चलते बाहर भी गया. कई जगह नौकरी भी की. दिल्ली में कुतुबमिनार के पीछे डीआरडीओ में सेठ पान सिंह रौतेला ठेकेदार ने एक कच्ची नौकरी में लगा दिया. कुछ परमानेंट थे, कुछ हमारे जैसे कच्चे. ढाई साल नौकरी की. लेकिन वहां काम ज्यादा हुआ और मजदूरी ज्यादा नहीं मिलने वाली हुई तो वापस घर आ गया. गांव में गाइड-पोर्टर का भी काम किया. इसके लिए गांव में हर कोई युवा तैयार हो ही जाने वाले हुए. मैं भी इस काम में लग गया. तब 40-50 टूरिस्टों का ग्रुप आता था. थाला बुग्याल में नौ-दस दिन का टूर रहता था उनका. बीसेक पोर्टर जाते थे सामान ढोने के लिए. अच्छी आमदनी हो जाती थी. लेकिन बाद-बाद में टूरिस्ट आना कम हो गए तो बुग्यालों में भेड़-बकरियों को चुगाने में अनवाल का काम करना शुरू किया. अब साहब वहां भी कई परेशानियां हुई. बुग्यालों में बाघ के अलावा थरूवा का भी आतंक हुवा. थरूवा तो भेड़-बकरियों के गले में दांत मार उनका खून पी लेने वाला हुआ, दर्जनों भेड़-बकरियों को मार देने वाला हुआ. वो काम भी फिर छोड़ दिया. अब घर-गांव में ही खेती के साथ ही मजदूरी करता हूं.
दूर से आवाज आती सुनाई दी तो देखा कि साथी लोग आ रहे हैं. साथी लोग चफुवा की तलहटी तक हो आए थे. सभी साथी खाना बनाने में हाथ बंटाने लगे. रोटी सेंकने में दिक्कत हो रही थी तो साथी आंनद खाती ने दो लकड़ियों को आपस में कलात्मक ढंग से बांध कर चिमटे का आविष्कार कर डाला. अब रोटियां सेकने में आसानी हो रही थी. गपशप के साथ ही भोजन को पेट के सुपुर्द कर टैंट के आगोश में चले गए.
सुबह आगे की तैयारी में लग गए. आज का पड़ाव धरमघर नाम की जगह थी, जो कि यहां से करीब छह किलोमीटर की पैदल दूरी पर है. टैंट पैक कर रुकसैक पीठ के हवाले किया और चल पड़े मखमली घास में आगे की ओर. खरसू, तेलंग, बुरांश, पन्यार, देवदार के वृक्ष पीछे छूटते चले गए. किलोमीटर भर की मीठी चढ़ाई के बाद सुखसुमरी नामक धार में कुछ देर सुस्ताने बैठ गए. यहां एक मंदिर दिखा. बलवंत ने बताया कि साल में एक बार यहां गांव वाले पूजा पाठ के लिए आते हैं और मेतुवा को खूब सारा अनाज चढ़ा जाते हैं. बुग्यालों में पत्थरों में बिल बनाके रहने वाले बिन पूंछ के चूहे की एक प्रजाति को यहां मेतुवा कहा जाता है. गांव वालों का मानना है कि इस मेतुवे की वजह से उनकी फसल अच्छी होती है.
सुखमरी धार के बाद पहाड़ी के साथ चिपके हुए रास्ते से द्यांगरूली गधेरे पर पहुंचने तक दोपहर हो चुकी थी. सभी के पेट ने आवाज मारी तो स्टोव जल उठा. कुकर में खिचड़ी बनी. चरणामृत के बराबर छह जनों ने खिचड़ी का स्वाद लिया और धरमघर की ओर की चढ़ाई चढ़ना शुरू कर दिया. चार बजे हम वहां पहुंच गए. तिरछे से मैदान में पहाड़ी की ओट में टैंट तान दिए गए. बाहर मैदान में पत्थरों का चूल्हा बना था. सूखी लकड़ियां खूब मिल गई. इस जगह में एक छानी बनी थी जिसमें नामिक का ही एक परिवार अपने भैंस, मुर्गी, बकरियों के साथ रह रहा था. छोटी-छोटी क्यारियों में सब्जी भी दिख रही थी. सावन के बाद ये यहां आ जाते हैं और जाड़े की शुरूआत होने पर ये फिर अपने गांव चले जाते हैं.
बाहर चूल्हे में साथी लोग खाना बनाने में जुटे पड़े थे. मैंने टैंट के अंदर से बलवंत को आवाज लगाई. टैंट के अंदर उससे गपसप में उसकी मानसिक पीड़ा का मेरे पास कोई जबाब नहीं था.
“साहबजी दशकों से हम अपनी जिंदगी जीते आ रहे हैं. वही हर रोज, महीने या कहें साल का काम. वही खेती-बाड़ी. होता तो ज्यादा कुछ है नहीं. बकरियां भी पालना ही हुआ. चार-पांच महीने बकरियां बुग्यालों में चली जाती हैं. साथ में गाय, बछियां भी चली जाती हैं. गांव के ही कुछ अनवाल उन्हें ले जाते हैं.”
“अनवाल कितने हैं?”
“अरे! सरजी सभी ये काम जानने वाले हुए. हर साल बदल-बदल कर चले जाते हैं.”
“मुख्यमंत्रीजी आए थे, कुछ हुआ उनके आने के बाद?”
“क्या होता सर. उनके आने से पहले कई बड़े साहब लोग यहां कुछ दिन पहले ही व्यवस्था करने आ गए थे. हम गांव वालों में एक उम्मीद जगी कि हम खानाबदोश लोगों की जिंदगी में अब शायद कुछ ठीक होगा. मुख्यमंत्री सैप भी आए. उप्पर मंदिर के पास के मैदान में. गांव से किलोमीटर भर उप्पर है ये मैदान. आप रुके तो थे वहां मैदान में. उस दिन दूसरे गांव वाले अपना काम धाम छोड़कर मुख्यमंत्री सैप को देखने-सुनने गए. हम लोगों के लिए तो वो बहुत बड़े सैप ठैरे. बहुत उम्मीद थी सर. लेकिन वो तो घूमने जैसे आए ठैरे. यहां डाक्टर नहीं है. परेशान रहते हैं हम लोग. कभी कोई बाहर से यहां घूमने को आया तो उससे दवाइयां मांगते फिरते हैं हर कोई. हमारे बच्चे बाहर नौकरी करते हैं, उनसे महीनों तक बात नहीं हो पाती है. हमने सोचा सीएम साहिब से यहां डाक्टर, टावर, मास्टर के लिए कहेंगे. बाकी रोड तो यहां कैसे आएगी हमें नहीं पता. आ जाती तो ठीक ही रहता. पैदल चलने में तो कई दिन बर्बाद हो जाते हैं. अब साब ज्यादा तो हमने नहीं मांगना था. सीएम साहिब आए. हमारे कहने से पहले ही उन्होंने कह दिया कि यहां सब दे देंगे और भी बहुत कुछ कहा उन्होंने. बड़ी-बड़ी बातें कह रहे थे. हमें तो समझ में नहीं आया. उनके जाने के बाद गांव में रुके साहब लोग भी कह कर कि अब यहां सब ठीक हो जाएगा, कह कर चले गए. हमने सीएम साहिब के छोटे साहिबों की खूब आवभगत भी जितना हमसे हो सकता था करी ही. लेकिन साब! यहां कुछ भी तो नहीं हुआ. वैसे ही हैं हम लोग खानाबदोशों की तरह. यही हमारी नियति ठैरी. क्या कहें! किससे कहें! इन नेताओं ने तो हमें आपस में ही बागेश्वर-पिथौरागढ़ में बांट के रख दिया है. अपना तो ये उड़नखटोले में आए. खाया-पिया, हगा और चल दिए. लगता ही नहीं कि हम आजाद भारत में रह रहे हैं. गुलाम भारत में हमारे बुजुर्ग तब भी अच्छी जिंदगी जी गए. अंग्रेज अफसर कभी आए तो दयावान भी हुए. ये तो सब चोर-लुटेरे हैं. चुनावों के समय ही ये अपनी शक्ल दिखाने वाले हुए.”
धरमघर में रात थोड़ी ठंडी सी रही. सुबह टैंट, सामान पैक कर रूड़खान पास की चढ़ाई चढ़नी शुरू कर दी. रास्ते में मोनाल भी अठखेलियां करते दिखे. रूड़खान पास तक के दो किलोमीटर की तीखी चढ़ाई वाला रास्ता करीब दो घंटे में तय हो पाया. रूड़खान पास 3300 मीटर की उंचाई पर है. यहां से दोनों ओर के दृश्य काफी सुंदर थे. रूड़खान पास के दाहिने ओर खलिया टॉप और बांए ओर छतिया बुग्याल फैले हैं. यहीं से आगे नीचे की ओर पुनिया बुग्याल फैला दिख रहा था. पुनिया बुग्याल से भी एक रास्ता मुनस्यारी को और दूसरा मिलम घाटी में रूड़गाड़ी की ओर जाता है. अनवाल इसी रास्ते से अपनी बकरियों के साथ रूड़गाड़ी को निकलते हैं.
योगेश और हरीशदा छतिया बुग्याल में दूर तक निकल गए. उनके आने तक मैं जोहार और दानपुर की हिमालयी घाटियों में खोये रहा. उनके आने के बाद हम सभी आगे खलिया टॉप के रास्ते को बढ़े. रास्ते के दोनों ओर भोज, बुरांश का घना जंगल अपने में ही कौतूहल पैदा कर रहा था. एक छोटे खुले बुग्याली मैदान में भेड़-बकरियों का झुंड आराम फरमा रहा था. चरवाहे भेड़ों की ऊन उतारने के काम में व्यस्त थे. पास में ही कुछ जड़ी-बूटियां सूखाने को रखी थी. कुछ देर ये सब देखते रहे और फिर आगे को चल पड़े. खलिया टॉप की तलहटी में पहुंचने पर बलवंत और भीम ने पानी की खोजबीन करनी शुरू कर दी. कुछ देर बाद ही उन्हें पानी मिल गया तो थोड़ा सा आगे ऊंचे मैदान में तंबू तान दिए गए.
दरअसल यहां पानी बहुत कम है और सितंबर-अक्टूबर में वह पानी भी अपने आपको छिपाते हुए पत्थरों के नीचे से चुपचाप बहता रहता है. बलवंत और भीम वहीं रूक गए और हम चारों जन खलिया टॉप की ओर चल दिए. घंटे भर की चढ़ाई के बाद हम करीब साढ़े तीन हजार मीटर की उंचाई पर खलिया टॉप में थे. चारों ओर देखने पर जोहार, दारमा, दानपुर में बिखरी पहाड़ियों के शीर्ष से नीचे का दृश्य काफी मनमोहक लग रहा था. काफी देर तक बुग्याली घास में पड़े रहने के बाद वापस नीचे आ गए. रास्ते से हम सूखी लकड़ियां भी अपने साथ लेते आए थे. सूर्यास्त होने को था. हम सभी अपने कैमरों के साथ लैस हो गए. पंचाचूली शिखर सूर्य की लालिमा में सुनहरे होने लगे और कुछ ही पलों में ये चोटियां गहरे लाल रंग में रंग गई. हम अपलक ये दृश्य देखते रहे.
अंधेरा घिर आया था. सामने पंचाचूली के शिखर शांत सोते हुए से लग रहे थे. नीले आसमान में चांद की अठखेलियां देखने लायक थी. झिलमिलाते असंख्य तारे कौतूहल अलग पैदा कर रहे थे. आग में बनी पूरी, सब्जी का रसास्वादन के बाद रसगुल्लों का भोग लगाकर तंबू में समा गए. सुबह नींद खुली तो देखा हरीशदा टैंट में नहीं थे. बाहर सब ओर देखा उनका कहीं अता-पता नहीं. फिर कैमरे को ही दूरबीन बना देखना शुरू किया तो वो ऊपर खलिया टॉप की ओर जाते दिखाई दिए. दो-एक घंटे बाद वो वापस लौटे तो वो बहुत ज्यादा खुश दिखे. उन्हें नीम अंधेरे में जाने का ये फायदा रहा कि उन्हें टॉप में कस्तूरी मृग और हिमालयन लोमड़ी के दर्शन हो गए. उनके कैमरे में वो कैद थे.
आज मुनस्यारी में ही रुकने का मन था तो आराम से परांठे बनाकर नाश्ता कम भोजन ज्यादा लिया गया. तंबू-सामान पैक कर खलिया बुग्याल की मखमली घास में धीरे-धीरे नीचे को उतरना शुरू कर दिया. वर्ष 2015 में खलिया टॉप को ‘ट्रैक आफ द इयर’ भी घोषित किया गया था, जिसके चलते हमारे यहां आने से कुछ दिन पहले ही साइकिलिंग हुई थी.
कुछ घोड़े बुग्याल की हरी घास चरते तो कुछ अघाए जैसे दिखे. बुग्याल का छोर खत्म होते ही हिमालय की गोद में नीचे दूर तक फैला मुनस्यारी दिखा. यहां से कुछ जगहों पर तीखा ढलान भी मिला. दोपहर बाद मुनस्यारी में अपने पड़ाव में पहुंचे. तैयार हो नीचे बाजार की ओर निकले. आज मुनस्यारी की बाजार कुछ सुनसान जैसी लगी. कुछ जगहों में बैठकें भाषण हो रहे थे. कुछ बैनरों पर नजर गई तो मालूम हुआ कि आज यहां कॉलेज का इलेक्शन था. हारे और जीते प्रत्याशी अपने-अपने गम-खुशी डिस्पोजलों से गले में उड़ेल रहे थे. बकायदा कई जगहों पर तो इसके लिए स्टाल लगे थे. लड़कियां भी ‘हम किसी से कम नहीं’ की तर्ज पर अपनी खुशी जाहिर करते दिखे. हम इस माहौल से निकल सीधे पांडे लॉज में पांडेजी से मिलने चले गए.
पांडेजी से दरकोट गांव के रास्ते की जानकारी लेनी थी. सरल स्वभाव के पांडेजी का मुनस्यारी में लॉज है. उनके खुशनुमा व्यवहार से उनके लॉज में भी प्रायः चहल-पहल रहती ही है. पांडेजी लॉज में ही मिल गए. उनसे हमने पांगतीजी के हेरिटेज म्यूजियम का रास्ता पूछा तो उन्होंने अपने एक कार वाले मित्र को तुरंत ही बुलाकर उसे समझा दिया कि कहां-कहां जाना है. पांडेजी के मित्र हमें डानाधार नंदा देवी के मंदिर में ले गए. मंदिर काफी सुंदर जगह में था. यहां से दूर तक गोरी नदी के पार के गांव दिखाई दे रहे थे. सीढ़ीनुमा खेतों में तैंयार हो रही फसल गांव वालों की मेहनत को बयां कर रही थी. कुछ देर यहां ठहर कर फिर वापस लौटे दरकोट गांव की ओर.
मुनस्यारी से लगा दरकोट एक छोटा गांव है. मुनस्यारी से छह किमी दूर. यहां सौ साल पुराने खिड़कियों व दरवाजों में नक्काशी वाले पुराने आकर्षक मकान हैं. यहां हाथ की बुनाई से बने पशमीने व अंगूरा के शाल के साथ ही भेड़ की उन के बने कंबल भी मिलते हैं. मुनस्यारी के नानासेन गांव में डा. शेर सिंह पांगती के घर में उनका बनाया एक अनोखा हेरिटेज म्यूजियम है. पांडेजी के मित्र ने हमें कहा कि वो आराम से आएं वो यहीं सड़क में ही रहेगा. सड़क से लगे अंदर के एक चौड़े रास्ते में कुछ कदम चलने के बाद ही एक आकर्षक से दिख रहे कॉटेजनुमा बिल्डिंग के दरवाजे के ऊपर एक बोर्ड दिखा. ट्राईबल हेरिटेज म्यूजियम, श्री निवास मुनस्यारी. दरवाजे के पास ही छोटी सी तख्ती में लिखा था, प्रवेश शुल्क दस रुपया. दरवाजे के अंदर गए तो वहां एक बुजुर्ग किताबों में ध्यानमग्न दिखे. अभिवादन के बाद उनसे पूछा कि टिकट कहां मिलेगा तो मुस्कराते हुए वो बोलो कि, ‘हो जाएगा आप लोग पहले देखिए तो सही.’
अंदर के कमरे में गए तो लगा कि किसी दूसरी ही दुनियां में आ गए हैं. मास्टरजी द्वारा ‘जोहार घाटी’ की सभ्यता के संजोये गए दशकों पुरानी धरोहरों को हम सभी देखते रह गए. उन्होंने बीते जमाने की ढेर सारी यादगारों के साथ ही तिब्बत के साथ होने वाले व्यापार के वक्त चीजों को अपने इस म्यूजियम में बहुत ही करीने से संजो रखा था. जिनमें से रोजमर्रा की जिंदगी में आग जलाने के काम आने वाले चकमक पत्थर तथा सूखी काई, कप, बरतन, छोटा चमड़े का बैग, पारंपरिक आभूषण, हिरन की खाल का बैग, पारंपरिक आभूषण, मिलम गांव की आबाद तस्वीर सहित सौ साल पुरानी कई अदभुत चीजों को बखूबी संजो के रखा है. कुमाउंनी, भोटियाओं के तिब्बती खम्पा और डोक्पाओं के आपसी व्यापार के वक्त के सामान को बचाकर रख खत्म होती संस्कृति को बचाना ही पांगतीजी ने अपनी जिंदगी का उदेश्य बना लिया. सरल स्वभाव के पांगतीजी से उनकी लिखी दो किताबें ‘शिव भूमि कैलाश’ तथा ‘राजुला मालूशाही प्रेम गाथा’ मैंने खरीद ली. वापसी में वो कहना नहीं भूले कि, कभी भी कुछ भी पूछना हो तो फोन कर लेना, किताब में नंबर लिखा है. संग्रहालय में आने वाले हर किसी को वो बड़े ही प्यार से सब इतिहास बताते हुए चकमक पत्थर से आग निकलने का तरीका भी दिखा ही देते. उनके संग्रहालय की कुछ तस्वीरें खींचने से मैं अपने को रोक नहीं सका. दो घंटे वहां कब बीते मालूम ही नहीं चला.
वापस बाजार को लौटे तो रास्ते में एक डंपर में कॉलेज के छात्र-छात्राएं जीत के जश्न में रोड में डंपर शो करते मिले. पांडेजी का धन्यवाद कर वापस अपने रैन बसेरे में पहुंचे. शाम तेजी से ढलने लगी थी. पंचाचूली में सूर्य की किरणें लालिमा बिखेरने लगी थी. हर कोई इन पलों को अपने कैमरे में कैद करने को आतुर दिख रहा था. नीचे गोरी नदी के पार गांवों में लाइटें टिमटिमाने लगी थी.
इस बीच जोहार घाटी के पुरोधा डा. शेर सिंह पांगतीजी उर्फ मास्टरजी भी अब हमारे बीच नहीं रहे. जोहार की सांस्कृतिक विरासत का परिचय देश—दुनिया से कराने वाले मास्टरजी का जाना जोहार ही नहीं मेरे जैसे उनके चाहने वालों के लिए भी अपूर्ण क्षति है. जिसकी भरपाई कब होगी, मालूम नहीं. बहरहाल्! पांगती जी का जोहार की सांस्कृतिक धरोहर को समेटे अपने घर में हेरिटेज म्यूजियम जोहार की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में हमेशा उनकी याद तो दिलाता ही रहेगा.
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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