चिकित्सा-जगत में ये बात बड़ी शिद्दत से महसूस की जाती है कि, नब्ज देखने की परिपाटी अब लगभग विलुप्त सी होती जा रही है, जिसमें रोगी-नैदानिक- संबंधों में एक किस्म की ऊष्मा सी हुआ करती थी. आधा निदान तो, डॉक्टर के रोगी से प्रेमपूर्वक बात करते ही हो जाता था. डॉक्टर के नब्ज पकड़ने, जबान देखने, आँखों में टॉर्च चमकाने और दो मीठे बोल बोलने से रोगी आत्मीयता सी महसूस करता था, आधा मर्ज एकदम उड़नछू.
समय तेजी से बदला. इस युग में अर्थोगमोपाय तो बहुत से हो गए, लेकिन उनमें जो परस्पर भावनात्मक संबंध रहता था, वह क्रमशः अतीत की सी बात होता चला गया. संवेदना-स्पर्श एक बेहतर निदान हो सकता है, यह बात मानवीय संबंधों से लेकर चिकित्सीय संबंधों तक सार्वभौमिक तौर पर महसूस की जाती है.
चिकित्सक का पेशा, किसी दौर में कितना पावन था, यह बात इस उदाहरण से समझी जा सकती है- मुरली प्रसाद शर्मा (मुन्ना) पिता के अनुशासन के भय से गाँव से भाग आता है. परिस्थिति कहें या संगति-दोष, वह बॉम्बे का भाई (गिरोहबाज) बन जाता है, लेकिन इसके बावजूद वह माता-पिता को यह विश्वास दिलाता है कि, वह एक डॉक्टर बन गया है. उसके माता-पिता गाँव के सीधे-सरल लोग हैंं. उन्होंने जो सपना देखा था, वो था बेटे का डॉक्टर बनना. उनका विश्वास है कि, बेटा डॉक्टर बनकर मानव-सेवा-धर्म निभा सकता है. गिरोहबाज होकर भी, वह पिता के सपने को पूरा करके दिखाना चाहता है. तभी तो, उनके आने की खबर सुनकर, वे आनन-फानन में में उस घर को सहसा हॉस्पिटल में बदल देते हैं. इमारत का स्वरूप ही बदल जाता है. बड़े-बड़े अक्षरों में बोर्ड टंगा रहता, ‘हरिप्रसाद शर्मा चैरिटेबल हॉस्पिटल.’ मजे की बात यह है कि, बोर्ड में ‘हरि’ को ‘हरी’ लिखा रहता है. गिरोह के कुछ लोग, डॉक्टर का बाना धरते हैं, तो कुछ मरीजों का. यहाँ तक कि, वे अपहृत व्यक्ति को भी मरीज के रूप में पेश करते हैं. रेलवे स्टेशन पर सर्किट उन्हें रिसीव करने जाता है, तो बाकायदा ‘एप्रिन’ पहने रहता है. यहाँ पर ह्यूमर का चरम स्तर है.
फिल्म का संदेश है- मरीजों की संवेदनाओं को स्पर्श करना, उनकी भावनाओं को समझना. तभी तो वह डॉक्टर जे डॉट अस्थाना से बारंबार एक ही सवाल पूछता है, “जब कोई मरीज मर रहा हो, तो उसका ये फार्म भरना जरूरी है क्या?” प्रकारांतर से फिल्म में, चिकित्सा-व्यवसाय में औपचारिकताओं से परेशान मरीजों की भावनाओं को बखूबी अभिव्यक्त किया गया है. बासु चटर्जी की फिल्म दिल्लगी: सूक्ष्म मनोविज्ञान की गहरी पकड़
हीरानी के पिता चाहते थे कि, उनका बेटा मेडिकल कॉलेज में एडमिशन ले, लेकिन राजू की राह कुछ अलग थी. वे फिल्म एडिटिंग प्रोफेशन में चले गए. उनके कई दोस्त थे, जो मेडिकल कॉलेज में अध्ययनरत थे. राजू हीरानी, गाहे-बगाहे उनके पास आते-जाते रहते थे. फलस्वरूप उन्हें मेडिकल कॉलेज और उनके हॉस्टल्स में, चिकित्सकीय गतिविधियों का अच्छा-खासा ज्ञान था. ऋषिकेश मुखर्जी से प्रभावित राजू हीरानी, इस अनछुए मुद्दे पर फिल्म बनाना चाहते थे. फिल्म के कथानक में, वे मात्र एक ‘फैंटेसी एलिमेंट’ लाए- यदि कोई गुंडा-मवाली, किसी तरीके से, किसी मेडिकल कॉलेज में एडमिशन ले ले, तो फिर क्या होगा? यहीं पर यह फिल्म परम्परागत तौर-तरीकों में थोड़ी सी भिन्न हो जाती है. ऐडमिशन से लेकर, कक्षा में उसका व्यवहार, व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों पर उसकी मोटे हिसाब की प्रतिक्रिया, दर्शकों को रोमांचित करती है. जो लोग नियम-कानून की आड़ में सहज-सरल कामों में अड़ंगे लगाते हैं, वह उनकी आँखों में धूल झोंकता है, तरह-तरह से उन्हें छकाता है. संक्षेप में, व्यवस्था को ठेंगा दिखाता है, उनकी जमकर खबर लेता है, वो भी स्ट्रीट स्मार्ट स्टाइल में. उसका व्यवहार, आम आदमी का सा व्यवहार रहता है, इसलिए उसका यह अंदाज दर्शकों को खूब रास आया. इतना सब होने के बावजूद, फिल्मकार ने नैतिकता का लंघन नहीं होने दिया. उसका मुख्य किरदार ट्रिकी है, रिसोर्सफुल है. वो चाहता, तो डिग्री पूरी कर सकता था, वो भी अव्वल दर्जे के साथ, लेकिन पैनल टेस्ट के दौरान वह स्वतः पढ़ाई छोड़ने की घोषणा कर देता है. फिल्म संदेशप्रद थी, इस बात का फिल्म में बखूबी ध्यान रखा गया है.
मुन्ना भाई, मात्र भावनात्मक स्पर्श के सहारे कितने-कितने लोगों का विश्वास अर्जित कर लेता है. यद्यपि वह रंगदारी करता है, भयदोहन करता है, लेकिन इस कारोबार को वह सोशल सर्विस कहकर उसका औचित्य साबित करता रहता है. वह मुंबई की ठेठ देशज भाषा का इस्तेमाल करता है. फिर भी वह दर्शकों की श्रद्धा का पात्र बन जाता है. मात्र इस कारण कि, वह सहज है, सरल है. उस पर मानवीय दृष्टिकोण का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. पेशेंट्स- स्टूडेंट्स से लेकर स्टाफ- डॉक्टर्स तक, उसकी देशज भाषा का दोहराव करते हुए दिखाई पड़ते हैं, यहाँ तक कि, उसका चिरविरोधी डॉ जे. अस्थाना भी कई मौकों पर अनायास ही ठेठ स्लैंग बोल बैठता है. दर्शकों पर फिल्म का जादू सर चढ़कर बोला. कई संवाद तो लोगों की जुबान पर स्वतः आने लगे- ‘मामू’, ‘डीन बोले तो हेडमास्टर.’ ‘बॉयफ्रेंड बोले तो..’
उसकी ‘ह्यूमनटेरियन अप्रोच’ कुछ दृष्टांतों से स्पष्ट हो जाती है;
1-वह खुदकुशी की कोशिश करने वाले नौजवान और उसकी माँ को दिलासा देता है. टूटे आत्मबल वाले लड़के के वार्ड में नाच-गाना करके, वह उसके जीवन में आशा का संदेश लाता है. मात्र सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार से, वह माँ-बेटे के चेहरे पर मुस्कान लाने में सफल हो जाता है. ये सब, भावनात्मक स्पर्श के सिवा कुछ भी नहीं है.
2-वह मरणासन्न जहीर भाई (जिमी शेरगिल) के चेहरे पर मुस्कान लाकर रख देता है. भले ही इसके लिए उसे नैतिक मर्यादाओं को लाँघना पड़ता है. इस उपाय को वह ‘लेसर इविल’ के रूप में आजमाता है. बार डांसर का ‘देख ले…’ एपिसोड हॉलीवुड फिल्म ‘वन फ्ल्यू ओवर’ से प्रेरित बताया जाता है.
3-वह चिड़चिड़े मकसूद भाई को अपने कोमल स्पर्श (जादू की झप्पी) से एक सहनशील बुजुर्ग के रूप में लाकर खड़ा कर देता है. जब समूचा स्टाफ मुन्ना के पक्ष में लामबंद हो जाता है, तो मकसूद भाई, डीन को उसका व्यवहार याद दिलाता है.
4-जब डॉक्टर रुस्तम के वृद्ध-बीमार पिता, ‘पप्पा’ की स्थिति खराब हो जाती है, तो वे वार्ड के बीचों-बीच कैरम खेलते हुए उन्हें बिस्तर से उठने के लिए उकसाते हैं. वह उन्हें खेलने के लिए तैयार करके,उनकी जिजीविषा को जाग्रत कर देता है. कैरम-सीन में गोटी का स्लो मोशन में जाना, फिल्म का चरम दृश्य है. जब ‘पप्पा’ क्वीन को जीत लेते हैं, तब अपने ठेठ पारसी अंदाज में कहते हैं, “जूस पीवानू, कैरम रम्बानू. मजा जी लाइफ.” इस दृश्य को देखते हुए दर्शकों को यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि लगती है. उनके अंदर का मनुष्य जाग्रत हो उठता है. फिल्म में यह दृश्य, आशावादिता का एक खूबसूरत प्रतीक बनकर उभरता है. फिल्मकार की यही खूबी है, उसकी छोटी-छोटी बातों में जीवन का सार्थक उद्देश्य दिखता है. मुंबई के दादर इलाके की पारसी कॉलोनी का परिवेश हू-ब-हू दिखाया गया है. फिल्म में बुजुर्गों की समस्या का मर्मस्पर्शी चित्रण हुआ है.
5- वह आनंद बनर्जी जैसे लाइलाज रोगी से भावनात्मक संबंध स्थापित करता है, वह उसे समय देकर भावनात्मक स्तर पर परतें कुरेदने का काम करता है और अंततः उसे निदान योग्य बना देता है.
मुन्ना का किरदार, भयदोहन और रंगदारी जैसे अनुचित काम करता है, मात्र उसके मानवीय दृष्टिकोण के चलते, दर्शक उसके इलीगल प्रोफेशन को अन्यथा नहीं लेते. वह और उसके संगी-साथी मुंबई की स्लैंग भाषा का इस्तेमाल करते हैं. राजू हीरानी ने इस भूमिका के लिए संजय दत्त को उपयुक्त पाया. संजय दत्त ने भी अपने खास अंदाज और उम्दा एक्टिंग से मुन्ना भाई के किरदार को कालजयी बना दिया.
इससे पूर्व, ठगी-जालसाजी में माहिर लोगों के लिए ‘नटवरलाल’ मुहावरे का खुलकर प्रयोग होता था. फिल्म की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जाता है कि, परीक्षाओं में किसी अन्य के स्थान पर बैठे छद्म परीक्षार्थियों के लिए ‘मुन्ना भाई’ एक मान्य संज्ञा हो गई. मीडिया से लेकर, आम जनजीवन में यह एक नया मुहावरा बनकर उभरा.
फिल्म में डॉक्टर रुस्तम का चरित्र अद्वितीय है. वह अविवाहित है. उसे हर समय ‘पप्पा’ की चिंता लगी रहती है. एक तरफ वह डॉक्टर अस्थाना का विश्वासपात्र बना रहता है, तो मजबूरी में उसे मुन्ना का भी साथ देना पड़ता है. कुल मिलाकर, वह दोहरा पिस जाता है. वह प्रतिभाशाली डॉक्टर है, यंगेस्ट फैकल्टी, अपने बैच का टॉपर.
जब मुन्ना, एडमिशन के इरादे से मेडिकल कॉलेज में पहुँचता है, तो ‘सफारी सूट’ उसे डीन से मिलने की सलाह देता है. डीन उस समय ऑपरेशन थिएटर में व्यस्त रहता है, तो मुन्ना अपने चेले-चपाटों के साथ, वही आ धमकता है. ऑपरेशन थिएटर में डॉक्टर अस्थाना का पारा, सातवें आसमान पर पहुँच जाता है. वह ‘लाफिंग थेरेपी’ का सहारा लेकर स्वयं को संयत करने की कोशिश करता है. इस मौके पर रुस्तम ही, मुन्ना एंड पार्टी को ओ.टी. से बाहर निकालता है. वह उन्हें दाखिले के लिए एच.एस.सी. में मिनिमम परसेंटेज नोट कराता है. तत्पश्चात मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम पास करने की अनिवार्यता बताता है. जब मुन्ना उससे पूछता है कि, क्या तुमने एंट्रेंस पास किया था, तो बेचारा भावावेश में आकर कह बैठता है कि, मैंने तो एंट्रेंस टॉप किया था. यहीं से, वह मुन्ना और सर्किट की निगाह में चढ़ जाता है. फिर तो वे खजाने की चाबी की तरह, उसका जब चाहे तब इस्तेमाल करते हैं.
फिल्म में सरप्राइज़ एलिमेंट्स की भरमार है. बड़ा मजेदार दृश्य है; सर्किट, बाउल में दही-शक्कर घुलाते हुए स्पून फीडिंग करा रहा होता है. सर्किट कहता है, “माँ कहती थी, एग्जाम से पहले दही-शक्कर खाकर जाना शुभ होता है.” दृश्य के परवर्ती भाग में दिखाया जाता है कि, वह डॉक्टर रुस्तम को दही-शक्कर खिला रहा होता है. मुन्ना के कुछ गुर्गे उसको कंघी कर रहे होते हैं, तो कुछ उसकी पॉकेट में एडमिट कार्ड धँसा रहे होते हैं. उधर मुन्ना, बेलौस अंदाज में पप्पा के साथ कैरम खेल रहा होता है. वह डॉ. रुस्तम से कहता है, “मुझे एग्जाम हॉल में देर से जाना पसंद नहीं .”
इधर उसको विदा करते हुए सर्किट कहता है, “फेल होएगा, तो बहुत मार खाएगा.”
वह पितृ-मोह में मुरली प्रसाद शर्मा के स्थान पर परीक्षा में बैठता है. परिणामस्वरूप, मुरली प्रसाद शर्मा, मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम में शीर्ष स्थान पा लेता है.
ऐडमिशन के बाद भी, वह मुन्ना के दबाव में उसकी यदा-कदा मदद करता हुआ दिखाई देता है. दूसरी ओर वह डॉक्टर अस्थाना का भी विश्वासपात्र है. जब भी डॉक्टर अस्थाना उससे सवाल करते हैं, तो वह मुँह लटकाकर, बड़े भोलेपन के साथ कहता है, “हाउ डू आई नो सर!”
मुन्ना को परीक्षा से ऐन पहले, जब-जब यह भय सताता है कि, वह फेल हो जाएगा, तो वह फिर से डॉक्टर रुस्तम का भयदोहन करता है. मोबाइल फोन के सहारे अनुचित साधन प्रयोग में वह मुन्ना की मदद करता है. उस दृश्य में शोरगुल कर रहे गुर्गों को डाँटता है, तुम्हारी वजह से मैं कॉन्सन्ट्रेट नहीं कर पा रहा हूँ.
मुन्ना, फिर से मेधा-सूची में स्थान सहित पास हो जाता है. पड़ोसन: ऑल टाइम क्लासिक रोमांटिक कॉमेडी
मुन्ना, डीन के दफ्तर में जा धमकता है और बड़े फख्र के साथ कहता है, “अपुन को टॉप करने की आदत पड़ गई है.”
यहाँ तक कि, जब मुन्ना को कॉलेज से निकाल बाहर करने के लिए पैनल टेस्ट लिया जाता है, तब भी वह और उसके साथी, प्रश्न लीक करने और उन्हें रटाने में उसकी भरसक मदद करते हैं. मजे की बात यह है कि, ‘मुन्ना का हार्ट राइट साइड में है’, पहचानने वाला पहला व्यक्ति, डॉक्टर रुस्तम ही होता है. सबसे पहले उसे ही उसके मानवीय दृष्टिकोण की बात समझ में आती है. किशोर कुमार की सदाबहार फिल्म चलती का नाम गाड़ी
सर्किट (अरशद वारसी) के बिना, मुन्नाभाई की कल्पना नहीं की जा सकती. वह उसके साथ साए की तरह रहता है. आरंभ में वह उसकी अपराध-वृत्ति में उसका राइट हैंड रहता है, तो कॉलेज-ऐडमिशन में उसकी पूरी मदद करता है. हॉस्टल का कमरा देखते ही वह त्वरित प्रतिक्रिया देता है, “भाई! ये तो शुरू होते ही खत्म हो गया.” इतना ही नहीं, वह उसे सलाह भी दे डालता है, “इस दीवार को खिसकाकर बगल वाले कमरे को अंदर ले लेते हैं.” वह मुन्ना को पढ़ाई पर ध्यान देने की गुजारिश करता है और उसके अध्ययन के दौरान, ‘कारोबार’ को संभालता है.
मुन्ना की फरमाइश पर, वह शॉर्ट नोटिस पर ही, विदेशी व्यक्ति की बॉडी फ़ौरन हाजिर कर देता है. मुन्ना अपनी सारी अंतरंग बातें उसी से शेयर करता है. यहाँ तक कि, जब छद्म चिंकी उसे किसी डिस्को बार मिलती है, तो वह सर्किट को ही अपने साथ ले जाता है. उसके अल्ट्रामॉर्डन दिखने पर भी वह उसका बचाव सा करता हुआ नजर आता है, “भाई! बिन माँ की बच्ची है. हाथ से निकल गई होगी.”
जब मुन्ना, घर वापसी की बात करता है, तो सर्किट बिना किसी ‘सेकेंड थॉट’ के उसके साथ गाँव जाने की हामी भरता है.
राजू हीरानी (निर्देशक) की ही तरह, बोमन ईरानी की भी यह डेब्यू फिल्म थी.डॉक्टर अस्थाना के किरदार को उन्होंने इतनी संजीदगी से निभाया कि, उसे लगभग आइकॉनिक सा बना दिया. बयालीस साल की उम्र में डेब्यू करने के बाद, फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
जब मुन्नाभाई, मेडिकल कॉलेज में एडमिशन ले लेता है, तब से डॉक्टर अस्थाना के जीवन में एक हलचल सी मच जाती है. जहाँ एकओर वह सख्त प्रोफेशनल रवैये वाला डीन है, तो दूसरी ओर वह एक स्नेहमय पिता भी है. उसे हरदम यह भय सताता रहता है कि, कहीं मुन्ना ने चिंकी को पहचान तो नहीं लिया. वे इस बात की खास एहतियात रखते हैं. कुंदन शाह की कालजयी कॉमेडी फिल्म: जाने भी दो यारो
सत्र के आरंभ में, मेडिकल स्टूडेंट्स के उद्बोधन के मौके पर, उनके प्रोफेशनल नजरिए को बखूबी दिखाया गया है. डॉक्टर अस्थाना हॉल में नवप्रवेशी छात्रों से रूबरू होते हैं;
“दिस इंस्टीट्यूट हैज ए हिस्ट्री ऑफ प्रोड्यूसिंग गुड डॉक्टर्स.. फिर खुद संशोधित करते हुए कहते हैं, “ग्रेट डॉक्टर्स.”
वे बच्चों से सवाल पूछते हैं, “आप में से कौन अच्छा डॉक्टर बनना चाहता है?” एक लड़की जवाब देना चाहती है.
वे पूछते हैं, “क्यों तुममें ऐसी क्या खास बात है?”
“सर! आई लव पीपल. मुझे लगता है कि, मैं पेशेंट के दर्द को खुद महसूस कर सकती हूँ. मैं डॉक्टर नहीं, एक दोस्त बनकर उनकी मदद करना चाहती हूँ.” जवाब सुनकर वह खरा- खरा दो टूक बोलता है, “वी आर नॉट हियर टू मेक फ्रेंड्स. मैंने अपने पच्चीस साल के कैरियर में, कभी किसी पेशेंट से दोस्ती नहीं की. किसी पेशेंट का दर्द महसूस नहीं किया. सिर्फ उस दर्द का इलाज किया.”
“लेट मी एक्सप्लेन… इस हाथ को देखो. रॉक स्टेडी.. हजारों ऑपरेशन किए, इन हाथों ने. लेकिन ये हाथ कभी नहीं काँपे. लेकिन अगर मैं अपनी बेटी का ऑपरेशन करूँ, तो ये हाथ जरूर काँपेंगे.. इसलिए कि, मैं अपनी बेटी से प्यार करता हूँ.”
मजे की बात यह है कि, मूल स्क्रिप्ट में बेटी वाला एंगल नहीं था. ये पंक्तियाँ खुद बोमन ईरानी की हैं. फिल्मकार ने इन्हें प्रभावी जानकर फिल्म में डाल दिया.
आरंभ में उनका किरदार एंटागनिस्ट सा लगता है. मुन्ना का डीन से टकराव, फिल्म में गति लाने में सहायक साबित होता है. उनका क्रोध आने पर ‘लाफिंग थेरेपी’ का सहारा लेना दर्शकों को खूब भाया. यह विरोधाभासी संतुलन उन्होंने बखूबी साधा.
फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दीकी, पॉकेटमार की भूमिका में नजर आए. वह स्टेशन पर उस समय भीड़- मनोवृत्ति का शिकार हो जाता है, जब वह मुन्ना के ही पिता की जेब काट लेता है. हरिप्रसाद शर्मा (दत्त साहब) उसे भीड़ से बचाते हैं और जीवन की सीख देते हैं. तभी वह स्टेशन पर शर्मा जी को रिसीव करने आई ‘सर्किट एंड पार्टी’ को देखता है. उन्हें डॉक्टर की वेशभूषा में देखकर वह बुरी तरह से चौंकता है. दरअसल यह वाकया किसी दौर में हीरानी के पिता के साथ घटा था. वहाँ से उन्होंने इसे कथा में स्थान दिया.
टीवी धारावाहिक ‘लापतागंज’ और ‘भाभी जी घर पर हैं’ से प्रसिद्धि पाने वाले अभिनेता रोहिताश गौड़ फिल्म में फल-विक्रेता की भूमिका में नजर आए. वैसे तो वे भी एक गिरोहबाज ही होते हैं, लेकिन मुन्ना के माता-पिता के आगमन पर फल की ठेली लगा लेते हैं. दत्त साहब उन्हीं के ठेले से नारियल खरीद रहे होते हैं, कि तभी वहाँ पर डॉक्टर अस्थाना मलाई वाले नारियल का मोल-भाव करते हुए दिखाई देते हैं. शर्मा जी डॉक्टर अस्थाना को पहचान लेते हैं. जब डॉ. अस्थाना, मुन्ना की डाक्टरी के बारे में खोद-खोदकर सवाल पूछता है, तो फल- विक्रेता, कभी नारियल, तो कभी केले बेचने के बहाने उनकी एकाग्रता भंग करने की कोशिश करते हुए नजर आता है.
मुन्ना भाई का आर्द्र व्यवहार, सौंहार्दपूर्ण वातावरण तैयार करता है. उसका डिप्राइव्ड क्लास की संवेदना को समझना, प्रभाव पैदा करता है. आखिर में, शर्मा जी (दत्त साहब) नालायक बेटे से कहते हैं, “तूने सबको जीना सिखा दिया.” यही फिल्म का संदेश है.
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ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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